Lucknow News: IIM के असिस्टेंट प्रोफेसर ने किया शोध, सामने आए ये निष्कर्ष

IIM Lucknow: असिस्टेंट प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता का कहना है कि वन संसाधनों के विभिन्न उपयोगों पर अधिकार हितधारकों के बीच विभाजित हैं।

Report :  Abhishek Mishra
Update: 2024-07-02 04:30 GMT

IIM Lucknow Research: आईआईएम लखनऊ के असिस्टेंट प्रोफेसर ने शोध किया है। जिसमे कई निष्कर्ष सामने निकल कर आए हैं। शोध के अनुसार कोयला मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय के बीच सही तालमेल नहीं हैं। दोनों मंत्रालय अपने-अपने हितकारियों के संरक्षण की बात करते हैं। नीतियां भी काफी घुमावदार हैं। दोनों ही मंत्रालय को साथ में मिलकर बीच का रास्ता निकालना चाहिए। 

गो-नो-गो नीति की समीक्षा पर किया शोध

वर्ष 2009 में शुरू की गई गो-नो-गो नीति की समीक्षा में आईआईएम के असिस्टेंट प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता के शोध में इसके साथ कई बातें सामने आई हैं। उन्होंने यह शोध आईआईएम कलकत्ता के सार्वजनिक नीति और प्रबंधन समूह के प्रो. राजेश भट्टाचार्य के साथ मिलकर किया है। उनका यह शोधपत्र जर्नल लैंड यूज पॉलिसी में भी प्रकाशित हुआ है। यह शोध अध्ययन भारत के वनों और खनिज संसाधनों के प्रबंधन में चुनौतियों और संघर्षों पर फोकस करते हुए किया गया है। 

प्रो. प्रियांशु गुप्ता 

 भारत की खनिज संपदा घने जंगलों के नीचे

शोध टीम ने भारत की गो-नो-गो नीति का विश्लेषण किया है। जिसका उद्देश्य यह निर्धारित करना था कि किन वनों को संरक्षित किया जाना चाहिए और किनका उपयोग तेजी से खनन मंजूरी जारी करने के लिए किया जा सकता है। शोध में कहा गया है कि भारत की खनिज संपदा मुख्य रूप से घने, जंगलों के नीचे स्थित है। पर, इन घने जंगलों में कई आदिवासी समुदायों के घर हैं। जिसके चलते खनन गतिविधियां पर्यावरण संरक्षण, आदिवासी आबादी के अधिकारों और विकास के बीच हितों का टकराव पैदा करती हैं। शोध के दौरान गो-नो-गो नीति के विकास और इसके सामने आई बाधाओं की समीक्षा करता है।आईआईएम लखनऊ के बिजनेस सस्टेनेबिलिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता का कहना है कि वन संसाधनों के विभिन्न उपयोगों पर अधिकार हितधारकों के बीच विभाजित हैं। यह विखंडन अक्सर संघर्ष और देरी का कारण बनता है। जिससे तेजी से मंजूरी और एकल खिड़की मंजूरी जैसे तंत्र की मांग होती है। 

शोध में पता चली कई बातें

विश्लेषण से पता चलता है कि नीतिगत निर्णयों से राजनीति को हटाना समाधान नहीं है, क्योंकि सार्वजनिक नीति स्वाभाविक रूप से राजनीतिक है और इसके लिए सभी हितधारकों से इनपुट की आवश्यकता होती है। शोध में कहा गया है कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सभी हितधारकों की बात सुनी जाए। जिससे अधिक संतुलित और टिकाऊ परिणाम प्राप्त हों। अध्ययन में वन और खनिज प्रशासन में प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन बनाने की जटिलताओं को हाइलाइट कर उनका हल देने का प्रयास किया गया है।

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