Lucknow University: LU के छात्रों ने डोगरा शैली में बनाई कलाकृतियां, जानें इस शैली में क्या है खास

प्रशिक्षक अजय कुमार ने बताया कि इस शैली को ढोकरा और घड़वा कला जैसे नामों से भी जाना जाता है। प्राचीन समय में भारत के कारीगर एक पारंपरिक धातु से ढलाई किया करते थे। यह शैली इसी तकनीक पर आधारित है। भारत में मेटल कास्टिंग की यह कला 4000 वर्षों से ज्यादा पुरानी है।

Written By :  Abhishek Mishra
Update: 2024-04-02 13:15 GMT

Lucknow University: एलयू के विद्यार्थियों ने डोगरा शैली में मूर्तियां और कलाकृतियां बनाई हैं। यह कलाकृतियां मधुमक्खी के मोम और तारकोल से तैयार की गई हैं। जानकारी के मुताबिक डोगरा शैली का इस्तेमाल करीब चार हजार साल पहले किया जाता था। इस शैली में बनी कलाकृतियों की विदेशों में काफी मांग रहती है।

चार हजार साल पुरानी शैली

लखनऊ विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय में छात्र-छात्राओं ने प्राचीन डोगरा शैली में राजस्थानी ऊंट, नाचते हुए मोर, मछली और आदिवासी मुखौटा जैसी कलाकृतियां तैयार की हैं। मूर्तिकला विभाग के प्रशिक्षक अजय कुमार के नेतृत्व में छात्रों ने कलाकृतियां और मूर्तियां तैयार की हैं। इसके लिए पहले विद्यार्थियों को प्रशिक्षण दिया गया। मधुमक्खी के मोम और तारकोल का प्रयोग करते हुए विद्यार्थियों ने मूर्तियां और कलाकृतियां बनाई हैं। इसका निर्माण चार हजार वर्ष पुरानी डोगरा शैली में किया गया है।


धातु में होती है मूर्ति की ढलाई

प्रशिक्षक अजय कुमार ने बताया कि इस शैली को ढोकरा और घड़वा कला जैसे नामों से भी जाना जाता है। प्राचीन समय में भारत के कारीगर एक पारंपरिक धातु से ढलाई किया करते थे। यह शैली इसी तकनीक पर आधारित है। भारत में मेटल कास्टिंग की यह कला 4000 वर्षों से ज्यादा पुरानी है। इस शैली में पहले मोम से कलाकृतियों को बनाया जाता है। फिर धातु में मूर्ति की ढलाई की जाती है। मधुमक्खी के मोम व तारकोल से प्रक्रिया में कलाकृतियां सबसे पहले तैयार की जाती हैं।


अमेरिका भेजी जाती हैं कलाकृतियां

वर्षों पुरानी इस शैली से तैयार की गई मूर्तियों की डिमांड विदेशों में काफी ज्यादा है। डोगरा शैली की कलाकृतियां का निर्यात यूरोप और अमेरिका में किया जाता है। वहां इस शैली में बनी मोर, घोड़े, हाथी जैसी कलाकृतियां भेजी जाती हैं। मोहनजोदड़ो सभ्यता की विख्यात मूर्ति नर्तकी का निर्माण भी डोगरा शैली में किया गया था। छत्तीसगढ़ में आज भी शैली प्रचलन में है। इस शैली का नाम वहां के आदिवासियों के नाम पर रखा गया है।


विद्यार्थियों ने बनाए खरगोश और हिरन

ललित कला संकाय के अध्यक्ष डॉ. रतन कुमार के अनुसार बीएफए के हेमंत कुमार ने मात्र देवी, दृश्या अग्रवाल ने राजस्थानी ऊंट व नाचते हुए मोर, ज्ञानेंद्र कुमार ने आदिवासी मखौटा, एमवीए मूर्तिकला के अंकित प्रजापति ने उगता हुआ कमल और मछली को तैयार किया है। इस प्रचीन शैली में एमएफए प्रिंट मेकिंग की कोमल देवी ने कछुए की गाड़ी और हाथी, जय नारायण ने बकरियां, वंशिका ने घोड़े और हिरन, सौरभ ने मां सरस्वती और बुद्ध का चेहरा बनाया है। इसके अलावा श्रेयांशी ने गाय, कपिल शर्मा ने बेल, सिमरन ने ग्रामीण महिला, अदिति द्विवेदी ने नाव, अनिकेत ने खरगोश और निहारिका सिंह ने ट्रेडिशनल फेस जैसी कलाकृतियां बनाई हैं।

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