लखनऊ : लोकसभा चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए। उन्होंने जो भी घोषणा की उनमें स्वच्छ भारत अभियान काफी लोकप्रिय हुआ। होता क्यों ना आखिर देश बदलने की बात जो हो रही थी। मोदी सहित सैकड़ों नेताओं अभिनेताओं और अन्य ने झाड़ू लगाते हुए फोटो क्लिक करवा फ्रेम में जड़ दी।
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जबकि हकीकत में ये अभियान फुस्स साबित हुआ है। देश के दो चार शहरों में भले ही इसे कुछ सफलता मिली हो। लेकिन बाकी जगह ये सिर्फ नेताओं के प्रचार का हथकंडे के तौर पर नजर आता है। आपको लग रहा होगा कि आखिर हम ऐसा क्या बताने वाले हैं जिसके लिए इतनी लंबी भूमिका बना रहे हैं।
दरअसल ये सारी बातें हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि अम्बेडकर महासभा ने यूपी के बुंदेलखंड इलाके में एक सर्वे किया है। जिसमें ये निकल कर आया कि आज भी वहां दलित महिलाएं सिर पर मैला ढो रही हैं। और उनके साथ हमारे आप जैसे ही इंसान जानवर से भी बुरा व्यवहार कर रहे हैं।
देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार बुंदेलखंड आज भी दलित महिलाओं द्वारा सिर पर मैला ढोने का गवाह बना हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं अगर ऊंची जाति का कोई व्यक्ति सामने पड़ जाए तो उन्हें पांव में पहनी हुई चप्पलें उठाकर हाथ में लेनी पड़ती हैं। ये दावा हम नही कर रहे बल्कि ये सच्चाई निकल कर आई है अम्बेडकर महासभा की सर्वे में। बुंदेलखंड के 13 जिलों के सर्वे के नतीजों को लेकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ लालजी प्रसाद निर्मल लखनऊ में मीडिया से मुखातिब हुए। पिछले पखवारे बुंदेलखंड के गांवों में दलितों की स्थिति जांच कर लौटी अम्बेडकर महासभा के मुताबिक दलितों की स्थिति राजनैतिक दलों के दावे से ठीक उलट हैं।
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गौरतलब है कि जहां एक ओर मोदी सरकार स्वच्छता मिशन का दावा हर सभा में कर रहे हैं और इससे पहले समाजवादी पुरोधा मुलायम सरकार ने मैला ढोने की कुप्रथा के पूरी तरह खत्म होने के दावे भी किए थे।
इन नतीजों के बाद अब महासभा अनुसूचित जाति एवं जनजातियों की शिकायतों के निवारण के लिए अम्बेडकर महासभा परिसर में 6 दिसंबर को सशक्तीकरण केंद्र की स्थापना करने जा रहा है। साथ ही एक हेल्पलाइऩ नम्बर जारी किया जाएगा ।
आए हैं कुछ चौंकाने वाले ऩतीजे
इस सर्वे में एक जमीनी हकीकत यह भी निकल कर सामने आई है कि यूपी में सरकारी आंकड़े 10970 की बजाए 45 हजार के आसपास मैला ढोने वालों की संख्या है। साथ ही महासभा का दावा है कि जहां सरकारी आंकड़ों में जहां यूपी में 40 से 45 हजार दलित उत्पीडन के मामले सामने आते हैं। हकीकत इसके कोसों दूर है।
वास्तविकता में दलित उत्पीड़न की संख्या इस आंकडे से दोगुनी से भी ज्यादा है। आधे से अधिक मामलों में पीड़ित या तो डर से सामने नही आते या फिर आते भी हैं तो उनकी शिकायत नही दर्ज होती। जबकि अनुसूचित जाती जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 2015 में स्पष्ट प्रावधान है कि यदि कोई अधिकारी पीड़ित की शिकायत दर्ज करने में लापरवाही बरतता है तो उसे 5 साल की कैद या 5 लाख जुर्माना (या दोनो ही) की सजा हो सकती है। लेकिन दलित आबादी और सरकारी महकमे दोनों को ही इस नियम के प्रावधानों की सही जानकारी नही है।
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दलितों को आज भी सामंती व्यवस्था से दो चार होना पड़ता है। इस सर्वे की माने तो आज भी इस क्षेत्र में किसी दलित के सामने ऊंची जाति का कोई व्यक्ति पड़ जाए तो पैर में पहनी हुई चप्पल हाथ में लेकर किनारे हो जाना पड़ता है। चाय पानी की सार्वजनिक दुकानों पर आज भी दलितों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
मैला ढोने वालों की हालत पस्त, फैल रही बीमारियां
जानकारी देते हुए महासभा की पदाधिकारी डॉ सत्या दोहरे ने बताया कि बुंदेलखंड के ललितपुर जालौन जिलों में दलित आबादी की स्थिति इतनी खराब है कि मैला ढोने वाली दलित जाति की महिलायें साड़ी के फटे चीथड़ों से बनी खाट पर सोने को विवश हैं। आलम ये है कि मैला उठाने की एवज में इन्हें मिलते हैं 20 या 30 रुपये प्रतिमाह और दो सूखी रोटियां। यही कारण है की इन महिलाओं में टीबी, लेप्रोसी और कैंसर जैसी बीमारियां बहुतायत पाई जाती हैं।
स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर देश भर में शौचालय बन रहे हैं। आए दिन खबर आती है कि फलां इलाके को नेता जी शौचालय दे तार दिया है। तो ऐसे में बुंदेलखंड में सूखे शौचालय आज भी क्यों जिंदा हैं। क्यों महिलाओं को सिर पर किसी का गंद उठाना पड़ रहा है।
क्या है कानून
आपको बता दें, मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने का पहला कानून 1993 में पारित हुआ और फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून आया। पहले कानून में केवल सूखे शौचालयों में काम करने को समाप्त किया गया जबकि दूसरे कानून में मैला ढोने की परिभाषा को बढ़ाया गया जिसमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया। इस नए कानून ने स्पष्ट तौर पर मैला ढोने वाले या इसके सम्पर्क में आने वाले श्रमिकों की संख्या को बढ़ाया है परन्तु नई परिभाषा के अनुसार ऐसे श्रमिकों की सही संख्या अभी ज्ञात नहीं है।
सूखे शौचालयों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए इस काम से मुक्ति के लिए पुनर्वास पैकेज आम तौर पर चालीस हजार रुपये के अनुदान तक ही सीमित हैं। अक्सर इसमें भी कटौती कर दी जाती है।
सिर्फ दावे, पुनर्वास के नाम पर ठेंगा
इन श्रमिकों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना के पहले के वर्षों में 100 करोड़ रुपए के आसपास आवंटित हुआ था। जबकि 2014-15 और 2015-16 में इस योजना पर कोई भी व्यय नहीं हुआ। 2016-17 के बजट में केवल 10 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था।