meerut news: गालिब के लिखे वे खत, जो 150 साल पहले हुए थे प्रकाशित

meerut news: इतिहासकारों का मानना है कि अग़र ग़ालिब ने शायरी न भी की होती तो उनके ख़त उन्हें अपने दौर का सबसे ज़हीन इंसान बना देते। उन्हें ख़त लिखने का बेहद शौक़ था।

Report :  Sushil Kumar
Update:2023-02-23 23:02 IST

meerut Ghalib written letters (Social Media)

meerut news: उर्दू भाषा के फनकार और शायर के तौर पर मिर्जा गालिब का नाम आज भी लोग अदब से लेते हैं। शायरी के अलावा एक और बात जो उन्हें 'ग़ालिब' बनाती है, वह है उनके ख़त। इतिहासकारों का मानना है कि अग़र ग़ालिब ने शायरी न भी की होती तो उनके ख़त उन्हें अपने दौर का सबसे ज़हीन इंसान बना देते। उन्हें ख़त लिखने का बेहद शौक़ था। बक़ौल ग़ालिब –

'सौ कोस से ब-ज़बान-ए-क़लम (कलम के जरिये) बातें किया करो

और हिज़्र (तन्हाई) में विसाल (मिलन) के मज़े लिया करो।'

गालिब के खतों के बारे में ऐसा कहा जाता है कि गालिब के खत को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे गालिब पाठक से बात कर रहें हों। उनके लिखे 173 खतों का संकलन उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के पुराने इलाके खैरनगर क्षेत्र में मुज्तबाई प्रेस द्वारा करीब डेढ़ सौ साल पहले प्रकाशित किया गया था। हसीनों को लिखे ख़तों का तो पता नहीं पर ज़हीनों को उन्होंने ख़ूब लिखा। उनके दोस्त जैसे मुंशी हरगोपाल 'तफ़्ता', नबी बख्श हक़ीर, चौधरी अब्दुल ग़फ़ूर 'सुरूर', नवाब लोहारू, नवाब रामपुर, हाकिम अली बेग 'मिहिर' वगैरह ताउम्र ग़ालिब से राब्ता रखे रहे और ग़ालिब के ज़्यादातर ख़त इनके नाम ही हैं।

जानकारों के अनुसार गालिब ने मेरठ के अपने दोस्त मुंशी मुमताज अली खान को खत लिखकर और उनके खतों को किताब के रूप में प्रकाशित करने की इच्छा जताई। उस समय मेरठ एक प्रकाशन केंद्र था और खान के पास छपाई की एक छोटी सी सुविधा थी। गालिब की मृत्यु के ठीक एक साल पहले, खान ने दो गालिब प्रशंसकों - अब्दुल गफूर सरूर और गुलाम बेखबर के साथ 'उद-ए-हिंदी' निकाली। प्राक्कथन उस समय के एक अन्य प्रसिद्ध कवि कलक मेरठी द्वारा लिखा गया था। जानकारों का यह भी कहना है कि उद-ए-हिंदी (Oud-e-Hindi) शीर्षक से प्रकाशित संकलन में जिन खतों को लिया गया है। उनमें वें खत भी हैं जो कि मिर्जा गालिब द्वारा अपने दोस्तों को लिखे गए थे।

मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविधालय (सीसीएसयू) में उर्दू विभाग के हैड प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी बताते हैं कि "पत्र लेखन की संवादात्मक शैली जो ग़ालिब ने विकसित की थी और महान कवि के जीवन और समय का प्रतिबिंब कुछ पहलू थे। जमशेदपुरी कहते हैं,- ग़ालिब के लिखे खत बताते हैं कि कैसे 1857 के विद्रोह के बाद दिल्ली शहर के वाशिंदों पर प्रतिबंध लगाये गये थे। एक अन्य खत में, ग़ालिब ने 1858 में ज़फर के जमा होने के बाद अपनी पेंशन खो दी थी, रामपुर के नवाब को अपने वित्तीय संकट का वर्णन किया और उनसे मदद करने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, "गालिब के युग के निर्णायक समय की झलक देने वाले ये पत्र अत्यधिक साहित्यिक महत्व के हैं। ये बेजोड़ साहित्यिक और ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।

प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी कहते हैं,गालिब की पत्र लिखने की एक अनूठी शैली थी। ग़ालिब ने अपने दोस्त नवाब युसूफ अली खान बहादुर के जन्म दिन के मौके पर उन्हें लिखा था- "तुम सलामत रहो हज़ार बरस, हर बरस के हो दिन पचास हज़ार" आज भी लोंग जन्मदिन पर अपने दोस्तों को बधाई देने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। कई खत एक बीते युग की झलक देते हैं। मसलन, अंग्रेजों द्वारा दिल्ली पर अधिकार करने और बादशाह बहादुरशाह जफर को रंगून निर्वासित करने के तुरंत बाद, एक टूटे दिल वाले ग़ालिब ने लिखा, "रोज़ इस शहर में एक हुकम नया होता है... कुछ समाज में नहीं आता क्या होता है (हर दिन, एक नया आदेश) इस शहर में गुजर रहा है ... मुझे समझ नहीं आ रहा है कि क्या हो रहा है)"।

ज़फर की बीमारी भी ग़ालिब को परेशान करने लग गयी थी जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने दोस्त मुंशी हीरा सिंह से किया, '...बादशाह बीमार रहने लग गए हैं. ख़ुदा जाने अब कौन उनके बाद मुझे अपनी सरपरस्ती लेगा?'

गालिब को अपनी मशहूरियत का पूरा अंदाजा था

गालिब को अपनी मशहूरियत का उन्हें पूरा अंदाजा था। एक बानगी इसकी भी पेश है। 20 नवंबर, 1855 को उन्होंने जूनून को नाराज़ होकर लिखा -

'... क्यों परेशान होते हो कि तुम्हारे ख़त मुझे नहीं मिल रहे? मुझे रोज़ कई ख़त सिर्फ़ ग़ालिब, दिल्ली के पते से आते हैं. बल्लीमारान मोहल्ला भी कई लोग नहीं लिखते. तुम खुद देखो, तुम पते पर मेरे नाम के साथ लाल कुआं, दिल्ली लिख देते हो और वो भी मुझे मिल जाते हैं...'

1857 खराब थी माली हालत

1857 के गदर के बाद उनकी माली हालात बहुत ख़राब हो गयी थी। दिल्ली दरबार तो ख़ुद दाने-दाने को मोहताज था। इसलिए रामपुर नवाब और कुछ दोस्तों के अलावा और कहीं से कुछ ख़ास मदद उन्हें मिल नहीं पा रही थी। ऐसे में वे पूरी तरह अंग्रेज़ सरकार के होकर रह गए थे।

अपने एक खत में वे नवाब युसूफ़ अली ख़ां को लिखते हैं - 'मैं अंग्रेज़ी सरकार में नवाबी का दर्जा रखता हूं. पेंशन अगर्चे थोड़ी है, परंतु इज्ज़त ज़्यादा पाता हूं। गवर्नमेंट के दरबार में दाहिनी रुख़ में दसवां नंबर और सात पारचे और जागीर, सरपेच, माला-ए-मरवारीद, ख़ल्लत मुक़र्रर है।'

एक खत जो कि रामपुर नवाब के नाम ही था, उसमें उन्होंने लिखा '...नमक-ख़्वार-ए-सरकार-ए-अंग्रेज़ होना इतना भी बुरा नहीं है।'

विदेशी विद्वानों ने की थी चर्चा

कुछ अर्सा पहले मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में पांच दिवसीय अंतरराष्ट्रीय बहुभाषी उर्दू विद्वानों के समारोह में मिस्र और जर्मनी सहित विदेशी उर्दू विद्वानों ने ग़ालिब के इन 'ख़ुतूत' (पत्रों) पर अपने भारतीय समकक्षों के साथ चर्चा की थी।

गालिब का पूरा नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खान है

मिर्जा गालिब का पूरा नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खान है। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ। उनके पिता का नाम अबदुल्ला बेग और माता का नाम इज्जत उत निसा बेगम था। मिर्जा गालिब ने 11 साल की उम्र में ही उर्दू और फारसी में गद्य और पद्य लेखन की शुरुआत कर दी। गालिब की शायरी से महफिलों में तालियां बजने लगती थी। वे खड़े-खड़े ही शे'र और गजलें बना लिया करते थे। यही कारण है कि गालिब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान समेत दुनियाभर में करोड़ों दिलों के पसंदीदा शायर हैं। 15 फरवरी 1869 को मिर्जा गालिब की मृत्यु हो गई। उन्हें हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास दफनाया गया। गालिब के मौत के एक साल बाद उनकी पत्नी उमराव बेगम की भी मृत्यु हो गई।

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