पूर्णिमा श्रीवास्तव की स्पेशल रिपोर्ट
गोरखपुर। सोशल मीडिया पर रिश्तों का यांत्रिकी प्रदर्शन और पितृपक्ष में दिखावे के एक से बढक़र एक ढोंग के बीच कड़वी हकीकत यह है कि हमारे समाज में बूढ़े मां-बाप औलादों के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। बुजुर्ग बंद कमरों में घुट रहे हैं। एकाकी जीवन यापन कर रहे हैं। औलाजद उनकी पेंशन तक लूट ले रहे हैं। इस सामाजिक बुराई के बीच कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जो हमें सकून देते हैं। ऐसे उदाहरण इस बात की तस्दीक करते हैं कि सबकुछ बुरा ही नहीं है। ऐसी ही मिसाल कायम की है गोरखपुर के एक परिवार ने अपने माता-पिता को ताउम्र अपने बीच रखने के लिए उनके मंदिर का ही निर्माण करा लिया है। करीब 14 लाख की लागत से बने इस मंदिर में परिवार के सदस्य सुबह-शाम पूजा-अर्चना करते हैं। अब तो माता-पिता के अनूठे मंदिर को देखने के लिए दूरदराज से भी लोग पहुंच रहे हैं।
गोरखपुर के बिछिया जंगल तुलसी राम मोहल्ले में स्वर्गीय जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव का परिवार हंसी-खुशी रहता है। आपसी एकजुटता को लेकर परिवार दूसरों के लिए मिसाल है। 2010 में रेलवे से सेवानिवृत्त जगदम्बा प्रसाद की पत्नी प्रभावती देवी का निधन हो गया। तीन साल बाद वह खुद भी दुनिया छोड़ गए। माता-पिता की याद में गमगीन रहने वाले परिवार के सदस्यों ने उनकी यादों को तरोताजा बनाए रखने के लिए अनूठा निर्णय लिया। परिवार के सदस्यों ने सर्वसम्मति से माता-पिता के नाम से मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। करीब सवा एकड़ में फैली पैतृक जमीन में मंदिर बनवाने का फैसला लिया गया। चार पुत्रों और एक बेटी ने मिलकर मंदिर का खर्च उठाने का निर्णय लिया। देखते ही देखते दो वर्ष पूर्व भव्य मंदिर साकार रूप में खड़ा हो गया। माता-पिता की चार फीट ऊंची प्रतिमा का निर्माण राजस्थान के कारीगर ने किया है।
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चौदह लाख हुए खर्च
प्रतिमा के निर्माण पर करीब तीन लाख रुपये तो संगमरमर के मंदिर पर 11 लाख रुपये से अधिक खर्च हुए हैं। बड़े बेटे डॉ. शिवानंद श्रीवास्तव कहते हैं कि आपसी सहयोग से कब मंदिर का निर्माण हो गया, हमें पता ही नहीं चला। किसने कितना खर्च किया, इसका भी हिसाब किताब नहीं रहा। करीब सवा एकड़ में फैला मंदिर परिसर अब एक वाटिका की तरह दिखता है। हरियाली के बीच आम, केला, अमरूद समेत कई फलों के पेड़ संग फूलों के पौधे यहां की शोभा बढ़ाते हैं। परिवार के सदस्य सुबह-शाम माता-पिता के इस अनूठे मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। वहीं प्रत्येक रविवार को परिवार के सभी सदस्य एकजुट होकर भव्य पूजा-अर्चना का आयोजन करते हैं।
रोज जाते हैं पूजा करने
इस अनूठे मंदिर में बेटे, बहू, नाती और पोते सभी पुजारी हैं। बिना किसी तामझाम के परिवार का हर उपलब्ध सदस्य सुबह-शाम मंदिर में दिया-बाती करने पहुंच जाता है। साल में एक बार कथा का आयोजन किया जाता है। परिवार के सदस्य श्यामनंद कहते हैं कि माता-पिता के मंदिर से काफी सकून मिलता है। रोज के दर्शन से हमें पता ही नहीं चलता कि माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं है। बड़ी बहू गीता कहती हैं कि अब तो लगता ही नहीं कि बाबूजी और मां हमारे में बीच नहीं हैं। हर त्योहार में सभी के नये कपड़ों के साथ बाबूजी और मां के कपड़ों की भी खरीद होती है। कपड़ों को मौसम के मुताबिक भी बदलते हैं। गोरखपुर विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में शिक्षक मानवेन्द्र सिंह कहते हैं कि नि:संदेह माता-पिता का मंदिर एक परिवार का निजी मामला है, लेकिन इसका संदेश व्यापक है। एक भी व्यक्ति इस संदेश से बुजुर्ग मां-बाप को उनका हक दे तो मंदिर की सार्थकता पूरी हो जाएगी।