अपनों से भयभीत भाजपा नेतृत्व, जनता के पैमानों पर नहीं उतरी खरी

Update: 2017-09-28 10:03 GMT

विजय शंकर पंकज

लखनऊ: भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली में संपन्न राष्ट्रीय परिषद की बैठक से एक बात साफ हो गई है कि चुनावी जीत का बड़े-बड़े नारे देने वाले नेतृत्व को जमीनी हकीकत का एहसास हो गया है। साढ़े तीन वर्ष से केन्द्र सरकार तथा 15 राज्यों में भाजपा एवं 3 राज्यों में सहयोगी दलों के साथ सत्तारूढ़ रहते हुए भी जनता के पैमाने पर खरा नहीं उतरी है।

भाजपा नेतृत्व की कार्यकर्ताओं से बढ़ती दूरियां, सत्तासीन नेताओं की मनमानी, सरकार एवं संगठन में कुछ नेताओं की बढ़ती जागीरदारी और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर धनबल एवं बाहुबलियों को प्रश्रय देने की रणनीति पार्टी के लोकतांत्रिक ढांचे को पलीता लगा दिया है। यही वजह है कि कमजोर और बिखरे विकल्प के बाद भी भाजपा नेतृत्व भयभीत एवं सहमा हुआ है। वही वजह है कि भाजपा को मिशन 2019 में विरोधियों से ज्यादा अब अपनों का भय सताने लगा है।

कमजोर विपक्ष के बावजूद भाजपा के सामने कड़ी

चुनौतियां राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के बढ़ते जनाधार का हवाला देते हुए मिशन 2019 में और बड़ा लक्ष्य हासिल करने का दावा किया। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अनुमान से ज्यादा सीटें मिली थीं। विशेषकर उत्तर प्रदेश में सहयोगियों के साथ भाजपा को मिली 73 सीटों का किसी को अनुमान नहीं था। यहां तक कि उस समय उत्तर प्रदेश के प्रभारी एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश में 40 से 45 सीटों से आगे की जीत की संभावना नही जता पा रहे थे। वर्ष 2019 में अब यूपी का लक्ष्य हासिल करना बड़ी चुनौती है।

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यह स्थिति तब है जब भाजपा के लिए यूपी में जीत का पूरा द्वार खुला हुआ है। उत्तर प्रदेश में सबसे प्रबल विरोधी समाजवादी पार्टी अपने पारिवारिक कलह में उलझी हुई है, तो बहुजन समाज पार्टी आपरेशन वसूली के कारण बिखराव की स्थिति में है। राष्ट्रीय दल होते हुए भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की बैशाखी पार्टी बनकर रह गई है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बीमारी और अपने उटपटांग बयानों के कारण हास्यास्पद बन रहे कांग्रेस के भविष्य राहुल गांधी अपनी छवि सुधारने में असमर्थ हो रहे हैं। ऐसे में सपा और कांग्रेस को अपनी वर्ष 2014 की सीटों को बचाने की भी बड़ी चुनौती साबित होगी।

बसपा को वर्ष 2019 के लोकसभा में अपना खाता खोलने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है। ऐसे में कमजोर और बिखरा विपक्ष ही भाजपा की ताकत बनी हुई है। वर्ष 2014 के चुनाव परिणामों के आधार पर भाजपा को कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा असम में कुछ सीटें बढऩे का अनुमान है परंतु मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और जम्मू-काश्मीर में पार्टी को कुछ सीटें गंवानी भी पड़ सकती है। ऐसे में अमित शाह का सपनों का मिशन 2019 का लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं होगा।

यूपी में सरकार-संगठन में खींचतान

यूपी में भाजपा सरकार बनने के बाद इस वसूली प्रकरण को ही लेकर मुख्यमंत्री योगी, उनके एक उपमुख्यमंत्री और महामंत्री संगठन के बीच कई बार तकरार हो चुकी है। यहां तक की विवादों में फंसी सरकारी अधिवक्ताओं की नियुक्ति का मामला भी सरकार और संगठन मंत्री के बीच की ही तनातनी का नतीजा बताया जाता है। यूपी में हालात यह हो गए हैं कि महामंत्री संगठन सुनील बंसल को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का वरदहस्त प्राप्त है, तो इस जोड़ी से घबड़ाए

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शरणागत हो चुके हैं। सरकार और संगठन में बढ़ती यह दूरी पार्टी को कहां ले जाएगी यह तो समय बताएगा परंतु इसका असर पार्टी के कार्यक्रमों पर भी दिखने लगा है। यूपी में जुलाई से सितम्बर के बीच बूथ स्तर के सभी कार्यक्रम पूरी तरफ से विफल साबित हुए हैं। इन कार्यक्रमों के लिए जिन संगठन पदाधिकारियों को जिम्मेदारी दी गइ थी, उन्होंने बताया कि जिला एवं मंडल स्तर पर बुलाए गए कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओं की उपस्थिति नगण्य है। नाराज कार्यकर्ताओं ने पार्टी कार्यक्रमों से अपनी दूरियां बढ़ा ली हैं, यह स्थिति ज्यादातर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद पैदा हुआ है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रदेश स्तर पर पार्टी पदाधिकारी उनकी नहीं सुनते तो सरकार में मंत्री मिलने से भी कतराते हैं।

प्रदेश में डेढ़ दशक के बाद भाजपा की सरकार बनी है परंतु कार्यकर्ताओं की किसी भी स्तर पर कोई पहचान ही नहीं बनी है। हालात यह है कि भाजपा से ज्यादा सपा और कांग्रेस कार्यकर्ता भाजपा मंत्रियों से अपने काम कराने में सक्षम है और उनकी सुनवाई हो जाती है। भाजपा कार्यकर्ताओं को पार्टी नेता एवं मंत्री नैतिकता एवं ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं। केवल चुनाव के समय ही कार्यकर्ताओं की पूछताछ होती है। उसमें भी आॢथक लाभ की जिम्मेदारी पदाधिकारियों के चहेतों को ही दी जाती है। कार्यकर्ताओं का आरोप है कि संगठन महामंत्री सुनील बंसल के इर्द-गिर्द चापलूसी और दलाली करने वाले नेताओं का एक गुट हावी है।

२ चुनावी घोषणाएं हाशिये पर

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दरम्यान भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी घोषणाएं केवल वादे ही बनकर रह गयी है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की प्रधानमंत्री की मुहिम में कोई खास फर्क नहीं आया है, तरीका बदल गया है। भाजपा शासित कई राज्यों की सरकारें भ्रष्टाचार के विवादों में फंसी हुई हैं। काला धन की वापसी नारा बनकर रह गया है। मोदी सरकार किसी बड़े भ्रष्टाचारी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में विफल साबित हुई।

विजय माल्या तथा लतिल मोदी के देश छोडऩे की घटना ने सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। मोदी सरकार की आॢथक नीति फ्लाप साबित हुई है और बढ़ती महंगाई ने आम जनता की कमर तोड़ दी है। नोटबंदी तथा जीएसटी से बेरोजगारी बढ़ी है तथा छोटे उद्योगों एवं कारोबारियों की परेशानियां बढ़ी है। बढ़ती बेरोजगारी एवं बढ़ती महंगाई के समक्ष मोदी सरकार की योजनाएं कितना प्रभावी होगा यह मिशन 2019 बताएगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से ज्यादा जमीनी हकीकत का एहसास है। यही कारण है कि राष्ट्रीय परिषद में कार्यकर्ताओं की एकजुटता तथा उसकी नाराजगी दूर करने की जिस बात को अमित शाह को कहना चाहिए था, वह प्रधानमंत्री ने कही। प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों को कार्यकर्ताओं से संवाद बढ़ाना चाहिए।

इसके साथ ही उन्होंने कहा कि सरकारी योजनाओं का निचले स्तर तक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए ताकि इसका संदेश सब तक पहुंचे। सरकारी योजनाओं के गांव-गांव तक पहुंचाने का काम कार्यकर्ताओं के जरिए ही संभव होगा। टीवी चैनलों एवं अखबारों के विज्ञापनों पर आम जनता बहुत ध्यान नहीं देती है। गांव की चौपालों एवं चट्टियों पर चलने वाली चर्चाओं का प्रभाव ज्यादा कारगर होता है और इस काम में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

कार्यकर्ताओं के पैमाने पर खरी नहीं उतरी सरकार

भाजपा नेताओं का कहना है कि संगठन की तमाम कमजोरियों पर पर्दा डालने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विभिन्न राज्यों से इस सच्चाई की रिपोर्ट मिल चुकी है कि कार्यकर्ता काफी नाराज हैं। असल में केन्द्र में साढ़े तीन वर्षों की सरकार बनने के बाद भी हजारों पद खाली हैं। इसमें अनुसूचित जाति आयोग का पद कांग्रेस के पी.एल.पुनिया का कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी पिछले एक वर्ष से खाली है जबकि काफी दिनों से खाली होने के बाद काफी मशक्कत के बाद अल्पसंख्यक आयोग के पद पर नियुक्ति हुई। सरकार ने इन पदों पर नियुक्ति की जिम्मेदारी संगठन के पदाधिकारियों को दी थी। इसके लिए विभिन्न पदों के लिए जिलों एवं राज्यों से पदाधिकारियों के नाम मांगे गये परन्तु दिल्ली कार्यालय में यह सूची फाइलों में ही दबकर रह गई।

राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को तीन साल में इसके लिए समय ही नहीं मिला। यही नहीं अमित शाह के पास मंत्रियों, सांसदों एवं विधायकों से मिलने का समय नहीं होता तो आम कार्यकर्ताओं से मिलने की गुंजाइश ही कहां है। प्रधानमंत्री की एक बैठक में बलिया के सांसद भरत सिंह ने यह मुद्दा जब जोरदारी से उठाया तो प्रधानमंत्री ने अमित शाह को इस दिशा में पहल करने की हिदायत दी। इसके बाद हर माह के पहले एवं तीसरे सोमवार को अमित शाह के मिलने का कार्यक्रम निश्चित किया गया परन्तु कुछ माह बाद यह फिर बंद हो गया। अब जबकि फिर से चुनाव सामने है तो पार्टी सांसदों/ विधायकों को क्षेत्रों में जाने तथा कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर करने को कहा गया है।

शाह ने बदला भाजपा का सांगठनिक चेहरा

भाजपा का अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह ने पिछले तीन वर्षों में पार्टी का लोकतांत्रिक चेहरा बिल्कुल बदल दिया है। अब राज्यों में भाजपा का सांगठनिक स्वरूप अध्यक्षों की कमान से बाहर संघ से आए कुछ गिने-चुने संगठन मंत्रियों की कमान में हो गया है। यह संगठन मंत्री कारपोरेट जगत के सीईओ की तरह अपनी पसंद के धनबलियों एवं बाहुबलियों को ही संगठन में अहम पदों पर समायोजित कर रहे हैं।

संगठन मंत्रियों का काम पार्टी के बदलते स्वरूप के अनुरूप भारी खर्चे की भरपाई के लिए विभिन्न मदों से वसूली करने की तरफ बढ़ता जा रहा है। जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें है, वहां पर संगठन मंत्रियों की वसूली ज्यादा हो रही है। पहले यह रकम ज्यादातर राज्यों में रहती थी परन्तु अब हर माह इस प्रकार से वसूली गयी रकम केन्द्र को भेज दी जाती है। यह संगठन मंत्री राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रतिनिधि के रूप में भाजपा में काम करते है। इस प्रकार यह अपनी वसूली कार्यक्रम से एक तरफ जहां भाजपा में अपनी पैठ मजबूत करते हैं, वही एक हिस्सा संघ के खाते में देकर अपना संतुलन कायम करते हैं।

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