अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने का मार्ग ‘स्टैटिक’ समाजवाद और ‘डायनिमिक’ अन्त्योदय

Update:2018-01-12 14:08 IST

योगेश मिश्र

लखनऊ। वर्तमान राजनैतिक परिपे्रक्ष्य में प्राय: यह सवाल बहुतों द्वारा उठाया जाता है कि भूमण्डलीकरण और बाजारवाद तथा उपभोक्तावाद के समय में समाजवादी समाज का कोई औचित्य है अथवा नहीं? अन्त्योदय की अनिवार्यता रह गई या नहीं? इसके लिए समाजवाद और अन्त्योदय के अभिउद्देश्य एवं विकास का संक्षिप्त दृश्यालोकन जरुरी है।

समाजवादी आन्दोलन के विकास पर तीन व्यक्तियों- आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ.राममनोहर लोहिया का निर्णायक प्रभाव रहा है। जबकि अन्त्योदय की वैचारिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि मूलत: देशज है। इसे पं. दीनदयाल उपाध्याय ने आकार दिया। बाद में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने दिशा दी।

समाजवाद के तीसरे सबसे महत्वपूर्ण पुरोधा डॉ. राममनोहर प्रारम्भ में माक्र्स कम्युनिस्ट के वैचारिक चिन्तक थे। लेकिन प्रारम्भ से ही माक्र्सवाद के प्रति उनकी एक आलोचनात्मक दृष्टि रही। उनका मानना था कि समाजवाद का प्रस्थान बिन्दु समाजवाद है किन्तु यह अपने आप में परिपूर्ण और अन्तिम नहीं है। देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार माक्र्स द्वारा प्रतिपादित विचार सूत्रों की व्याख्या होनी चाहिए। डॉ. लोहिया और दीनदयाल जी मूलत: मौलिक राजनीतिक चिन्तक एवं दार्शनिक थे।

अन्त्योदय के पुरोधा पुरुष और इस विचारधारा के प्रवर्तक पं.दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और अन्त्योदय की धारणा का अध्ययन किया जाये तो यह लगता है कि देश में भूख, गरीबी, लाचारी झेलने को अभिशप्त अंतिम आदमी की दिक्कतों से वह अपना अभियान शुरू करना चाहते थे। वह सामाजिक समरसता, विकास और समृद्धि के द्वार में प्रवेश की पहली अनुमति अंतिम सोपान पर खड़े व्यक्ति को देना चाहते थे। जबकि लोहिया का समाजवाद माक्र्स के चिंतन से उबरने के बाद देशज होकर विसंगति और असमानता खत्म करने की जो पहल कर रहा था, उस पहल में अंतिम आदमी तक चीजें देर से पहुंचती थीं। जो काल का अंतराल था, इसी ने समाजवाद को ‘स्टैटिक’ और अन्त्योदय को ‘डायनिमिक’ विचारधारा बनाया।

आजादी के उपरान्त जब भारत नवनिर्माण के दौर से गुजर रहा था, राजनीति और अर्थव्यवस्था अपनी निर्णायक दिशा तय कर रही थी। उसी समय डॉ.लोहिया ने समानता, अहिंसा, विकेन्द्रीकरण, लोकतंत्र और सम्पन्न समाजवादी समाज को समाजवादी लक्ष्य बताया जो एक दूसरे के पूरक हैं। उसी समय पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद और अन्त्योदय का विचार दिया। आज भारतीय समाज में सम्पन्नता एवं विपन्नता की खाई अपेक्षाकृत और गहरी हुई। संविधान के संकल्प में समाजवादी गणराज्य निर्मित करने का अभिकथन कारगर व प्रभावी रूप से क्रियान्वित नहीं हो सका है।

विकास ने कई विकृतियों को भी जन्म दिया

नि:संदेह भारत विकास की दिशा में आगे बढ़ा है, किन्तु इस विकास ने कई विकृतियों को भी जन्म दिया है। डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल की चेतावनी सही निकली कि इस तरह की आर्थिक नीति से विकास एकांगी और आत्मघाती होगा। हमारे यहां अरबपतियों के बढऩे की रफ्तार दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है। एशिया के 25 सर्वाधिक धनी अरबपतियों में 10 भारतीय हैं। करोड़पतियों के मामले में भारत एक लाख की सीमा रेखा 2006 में ही पार कर चुका है। करोड़पति 25.4 प्रतिशत के अनुपात से बढ़ रहे हैं।

वर्ष 2014 के लोकसभा के चुनाव में 1205 करोड़पति प्रत्याशी थे, जिसमें से 300 के करीब सांसद हैं। मुंबई के बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स में बीस लाख वर्गफुट में एक हजार करोड़ रुपये से अधिक लागत से बनी नौ-मंजिलों वाली ‘भारत डायमण्ड बोर्स’ की इमारत भारत की संपन्नता की कथा कहती है। एशिया में सोना रखने के मामले में भारत, चीन व जापान के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश है। यहां 800 अरब डॉलर मूल्य का स्वर्ण है। कारों में 28 फीसदी, मोटरसाइकिल की बिक्री में 26 फीसदी की बढ़ोत्तरी समृद्धि की संकेतक है।

आजादी के समय प्रति व्यक्ति आय मात्र 255 रुपये थी जो इस समय 46,492 रुपये है। साक्षरता दर 18.3 प्रतिशत से 75.06 फीसदी हो गई है, प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 16.6 किलोवाट से बढक़र 631 किलोवाट, जीवन प्रत्याशा 32.1 वर्ष से बढक़र 68 वर्ष हो गयी है। वर्ष 1950 में देश में 19,811 किलोमीटर के हाईवे थे, आज 70,548 किलोमीटर हाईवे है। एक लाख टेलीफोन की संख्या 54 करोड़ 30 लाख से अधिक हो गई है। लगभग 118 करोड़ मोबाइल सिम काम कर रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं और जीवन की गुणवत्ता में भी काफी बदलाव आया है। आजादी के वक्त 1000 में से 137 नवजात शिशुओं की जन्म प्रक्रिया के दौरान या उसके बाद मृत्यु हो जाती थी, अब यह दर 37 पर आ गयी है। प्रति एक लाख आबादी पर 60 चिकित्सक उपलब्ध हैं, पहले यह उपलब्धता 16 थी।

बहुत नीचे है हिन्दुस्तान

यह विकास का निरपेक्ष प्रतिस्वरूपण है। तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि हम दुनिया के मुकाबले कहां खड़े हैं? प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत का 161 वां स्थान है। यहां प्रति व्यक्ति आय 1180 डॉलर प्रतिवर्ष है, जो मोनाको

(2,03,900 डॉलर) से 175 गुना, लिचटेंसटीन (1,13,210 डॉलर) से 96 गुना, नार्वे (86, 440 डॉलर) से 73 गुना व लक्जमबर्ग (74,430 डॉलर) से 63 गुना कम है। क्रय शक्ति के आधार पर भारत की औसत आय 3800 डॉलर है जो विकसित देशों की प्रति व्यक्ति आय (23500 डॉलर) वैश्विक प्रति व्यक्ति आय (9100 डॉलर) व यहां तक विकासशील देशों की औसत आय (5200 डॉलर) की अपेक्षा बहुत कम है।

संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट में भारत 169 देशों की सूची में 119वें स्थान पर है। शिक्षा के क्षेत्र में 116 देशों से पीछे होना दुखद है। इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस द्वारा जारी चौथे वार्षिक वैश्विक शांति सूचकांक में भारत से 127 देश आगे हैं। भारत इराक के बाद दूसरा सबसे अधिक आतंक प्रभावित देश है। लीसेस्टर विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के अनुसार खुशहाली के परिप्रेक्ष्य में देश का 125वां स्थान है। थिंक टैंक हेरिटेज फाउण्डेशन की रिपोर्ट बताती है कि 123 देशों में आर्थिक आजादी हमसे अधिक है। विश्व बैंक ने अपनी ताजा रिपोर्ट में भारत को व्यावसायिक वातावरण के अनुकूलतम देशों की सूची में 120वें स्थान पर रखा है। रिपोर्ट के अनुसार स्वाजीलैंड व इथियोपिया जैसे अफ्रीकी देश हिन्दुस्तान से बेहतर हैं।

अमीर-गरीब की बढ़ती खाई

स्विस बैंकों में कुल जमा भारतीय रकम भारत के बाहरी ऋण का 13 गुना है। विदेशों में अवैध रूप से भेजे जा रहे भारतीय धन में हर साल 11.6 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है। घोषित तौर पर 13 राज्यों में लगभग 170 जिले नक्सल प्रभावित क्षेत्र माने जाते हैं, जहां आदमी बंदूक के साये में सांस लेने के लिए अभिशप्त है। हिंसा के और रूप भी यथावत मौजूद हैं। गरीबी और बेरोजगारी से जनित लूट, हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा, आतंकी घटनाएं थमने की बजाए बढ़ी हैं। सुरक्षा के लिए एक लाख लोगों पर मात्र 94 पुलिसकर्मी हैं, जबकि होने 200 चाहिए।

यूएनडीपी के बहुआयामी निर्धनता सूचकांक के अनुसार गरीब वह है जिसकी प्रतिदिन की आय 1.5 डॉलर से कम है। भारत की लगभग 70 फीसदी आबादी गरीब है। योजना आयोग के अनुसार देश में 30 करोड़ 17 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार 77 फीसदी लोगों की हालत दयनीय है जो महज 20 रुपये प्रतिदिन में गुजर-बसर करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार देश में बेरोजगारी की संख्या में गत वर्ष 3.9 करोड़ का इजाफा हुआ है। बेहद कम मेहनताना पर काम करने वालों की संख्या में 21.5 करोड़ की वृद्धि हुई है। बेरोजगारी के कारण तनाव एवं हताशा में आत्महत्या करने वालों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। देश की कुल आबादी के बीस फीसदी बच्चे फुटपाथों पर जीवन बसर करते हैं। 52.2 प्रतिशत बाल-मजदूरों को सातों दिन काम करना पड़ता है। पांच से बारह आयु वर्ग के 65.7 प्रतिशत बच्चे शारीरिक प्रताडऩा एवं शोषण के शिकार हैं। ‘नवधान्य’ की रिपोर्ट बताती है कि 21.40 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर हैं। 74.95 प्रतिशत भारतीय गरीब हैं। साफ है कि अन्त्योदयी समाजवाद लाने के जो लक्ष्य निर्धारित हुए वे आज भी दिवास्वप्न बने हुए हैं।

कमजोर लोकतंत्र

देश में लोकतंत्र की स्थिति आज भी काफी कमजोर है। आम आदमी की थाने में जाने से रूह कांपती है। कलक्टर व कप्तान को आम आदमी के सरोकारों व गरिमा से कोई मतलब नहीं। यूपी के बाराबंकी में अपनी बात सुनाने के लिए एक दलित को जिलाधिकारी की कार के आगे लेटना पड़ा। ऐसी हर जिले में अक्सर कई घटनाएं मिल जायेंगी।

अगर देश अन्त्योदय और एकात्म मानववाद के पथ पर चलता तो भी ऐसा नहीं होता। डॉ. लोहिया सदैव पुलिस पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कानून बनाने की पैरवी करते रहे।

पं.दीनदयाल के एकात्म मानववाद का पाठ भी पुलिस को इस बर्बरता की छूट नहीं देता है। जाति, भाषा, अर्थव्यवस्था, आर्थिक विषमता, लोकतंत्र सामाजिक व राजनीतिक जीवन पर डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल का दर्शन ही भारत के सर्वतोन्मुखी विकास का वाहक बन सकता है। अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण अधिकांश जनसंख्या का अनुत्पादक कार्यों में लगा होना है। पूंजी की कमी के चलते छोटी मशीनों और श्रम प्रधान उद्योगों को संरक्षण की पैरवी डॉ. लोहिया ने की।

श्रमिकों को काम मिलने से उनके हाथ क्रयशक्ति आएगी, बाजार का आकार फैलेगा। व्यापक रूप से व्याप्त बेरोजगारी व आर्थिक विषमता को कम करने के साथ-साथ सामाजिक जीवन में लोगों की सहभागिता भी बढ़ती, यदि इन दोनों विचार पुरुषों के विचार को ठीक से आत्मसात किया गया होता। निर्धनता सामाजिक चेतना को कुंठित कर देती है, इसलिए इन्होंने आर्थिक विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया। आज अर्थव्यवस्था केन्द्रीयकरण की नीति से संचालित हो रही है। विदेश नीति पर डॉ. लोहिया का स्पष्ट पक्ष उनकी समाजवादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है। वैदेशिक मामलों में ढुलमुल नीति के कारण आजादी के सात दशक के बाद भी संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थायी सदस्यता नहीं मिली। हिन्दी यूएनओ की आधिकारिक भाषा नहीं बन पाई।

दाम बांधो की नीति

महंगाई के परिप्रेक्ष्य में ‘दाम-बांधो’ नीति की उपेक्षा सर्वथा अनुचित है। दाम बांधने का अनुपात भी डॉ. लोहिया ने बताया था कि वह लागत मूल्य की तुलना में कितना हो। डॉ. लोहिया ने ‘नदियां साफ करने’ और सभी नदियों को आपस में जोडऩे का कार्यक्रम दिया था। पं. दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक दल के प्रधानमंत्री रहे अटल विहारी बाजपेयी ने इस दिशा में कई कदम आगे बढ़ाये थे। आज कई संगठन ‘गंगा साफ करो’ का अभियान चला रहे हैं। इस आन्दोलन की शुरुआत समाजवादियों ने साठ के दशक में की थी। 24 फरवरी, 1958 में डॉ. लोहिया ने वाराणसी में इसी मुद्दे पर सारगर्भित भाषण दिया था। नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसे अमलीजामा पहनाने के लिए अलग से मंत्रालय का गठन कर दिया।

लोहिया और उपाध्याय में वैचारिक समानता

दोनों कई मुद्दों पर एक साथ रहे। उनके स्वर एक रहे। फिर भी इनके अनुयायियों के बीच खाई खींच दी गई! डॉ.लोहिया गठबंधन तंत्र के पक्षधर थे। भाजपा के अटल बिहारी बाजपेयी ने गठबंधन सरकार के फार्मूले को सफलतापूर्वक लागू करने में मील का पत्थर गाड़ा। डॉ.लोहिया ने सन 1953 में त्रावणकोर-कोचिन में अल्पमत सरकार की रचना कर दी थी।

डॉ.लोहिया पं.दीनदयाल उपाध्याय के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बैठकों में भी गए थे। उन्होंने राय दी कि हिंदू पार्टियां अपना तर्कहीन विरोध छोड़ दें। ताकि कांग्रेस को हराया जा सके। भाजपा ने समान सिविल संहिता और धारा 370 को तजा। नतीजतन, नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला बाजपेयी मंत्रिमंडल में सदस्य बने। डॉ.लोहिया ने पिता के नाम के साथ मां का नाम लिखना अनिवार्य करने की वकालत की थी। इस काम को उत्तर प्रदेश में भाजपा के कल्याण सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में किया।

डॉ.लोहिया नास्तिक थे पर दिमाग मीमांसक था। तभी तो डॉ.लोहिया की धर्म, ईश्वर, लोक-परलोक, वर्ण व्यवस्था और कर्म का सिद्धांत आदि पर सोच मौलिक थी। वे सनातनी संकेतों, संदेशों, प्रतीकों व चिह्नों का सम्मान करते थे। राम के अस्तित्व पर उठने वाले सवाल का जवाब यह कह कर देते थे कि ‘‘राम का जन्म हुआ था या नहीं, महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है। महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि राम का नाम लेकर करोड़ों लोग जीते हैं।’’ अपने सुख में उसे भागीदार बनाते हैं। दुख में उसी के सहारे जीते हैं। राम का यह भावसत्य इतिहास से ज्यादा मूल्यवान है।

डॉ. लोहिया उनके मुताबिक धर्म दीर्घ कालीन राजनीति है। यह कहते समय उनकी दृष्टि में लीला पुरुषोत्तम कृष्ण थे।

डॉ.लोहिया ने रजिया सुल्तान को भारतीय और जहीरुद्दीन बाबर को लुटेरा कहा। अयोध्या, मथुरा और काशी के बाबत डॉ.लोहिया ने अपना आकलन पुणे के मुस्लिम सत्य शोधक संघ के संयोजक और सोशलिस्ट चिंतक हमीद दलवई के साथ साझा किया था। दलवई और डॉ.लोहिया इस कोशिश में थे कि हिंदू-मुस्लिम सौहाद्र्र दृढ़ बनाने के लिए इन ऐतिहासिक विकृतियों को शांतिपूर्वक तथा सहमति के आधार पर दुरुस्त किया जाए। मुस्लिम बादशाहों को राम और कृष्ण के जन्मस्थल और विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की भूमि ही मस्जिद बनाने के लिए नजर आई!

पं.दीनदयाल उपाध्याय के जनसंघ और भाजपा के शक्ति केंद्र अयोध्या, मथुरा और काशी हैं। मथुरा और काशी में अगर कोई आम हिंदू जाए तो उसे लग जाएगा कि भारत के बहुसंख्यक निरीह, निहत्थे हिंदुओं की आस्था के मूलाधिकार का हनन अपने बर्बर सैन्य बल द्वारा राजमद में चूर इन बादशाहों ने किया था। भाजपा के घोषणा पत्र में भी अयोध्या का राम मंदिर रहा है। आने वाले कुछ महीनों में अगर अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि बातचीत से मंदिर निर्माण की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं हो पाई।

सर्वोच्च अदालत में मामला है। दोनों पक्षों ने अदालत के फैसले को मानने की हामी भर रखी है। अदालती सुनवाई अंतिम दौर में है। पुरातात्विक उत्खनन में मंदिर के प्रमाण मिल चुके हैं। ऐसे में यदि अदालती फैसले से ही सही राम मंदिर का निर्माण शुरू होता है तो यह कहा जा सकता है कि इस समस्या के समाधान के लिए शांतिपूर्वक सहमति की दिशा में आगे बढ़ा गया है। यही तो डॉ. लोहिया की सोच थी। सपना था। भाजपा का यही जनता से ’कमिटमेंट’ है।

डॉ.लोहिया रामचरितमानस के छोटे-छोटे किस्सों का उदाहरण दे आमजन की जिज्ञासा जगाते थे। कहा करते थे कि राम का असर करोड़ों के दिमाग पर इसलिए नहीं है कि वह धर्म से जुड़े हैं, बल्कि इसलिए कि जिंदगी के हर एक पहलू और हर एक कामकाज के सिलसिले में राम मिसाल की तरह आते हैं। आदमी तब उस मिसाल के अनुसार अपने कदम उठाने लग जाता है। डॉ.लोहिया जान गए थे कि आम भारतीय जन के मन को जीतना है तो राम से अधिक सशक्त माध्यम और कोई नहीं हो सकता।

पं.दीनदयाल उपाध्याय के जनसंघ और भाजपा पर विपक्षी रामनामी होने का आरोप लगाते हैं। भगवाधारी पार्टी कहते हैं। धर्म, राम, अयोध्या, मथुरा, काशी और धर्मांतरण ऐसे मुद्दे हैं जिस पर डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल के बीच कोई ऐसा अंतर नहीं दिखता है, जिससे दोनों को चुंबक के दो ध्रुव कह दिया जाए। समाजवाद में श्रम और अंत्योदय में अंतिम व्यक्ति एक ही सरीखा है क्योंकि अंतिम व्यक्ति के पास भी श्रम के सिवाय कोई और पूंजी नहीं होती। संसद में पहली बार हाथ रिक्शा चालकों की समस्या को डॉ.लोहिया ने प्रभावी ढंग से उठाया था। यह भी तो अंत्योदय का अंतिम व्यक्ति है। डॉ.लोहिया देश के नवयुवक और नवयुवतियों द्वारा पाश्चात्य जीवनशैली की नकल करने के खिलाफ थे। वे भारतीय सभ्यता के पक्के समर्थक थे। पं.दीनदयाल के जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा में भारतीय सभ्यता के प्रति गंभीर आग्रह साफ दिखता है।

डॉ.लोहिया जिन दिनों विलिंगडन अस्पताल में भर्ती थे, उन दिनों उनके हालचाल की जानकारी देते हुए उनकी सहयोगी रमा मित्रा बाहर उनके समर्थकों को यह बताती थीं कि जब भी उन्हें होश आता है तो कहते हैं- ‘देश के गरीबों का क्या होगा।’ वह कहा करते थे- ‘‘गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है।’’ यह गरीब पं.दीनदयाल उपाध्याय का अन्त्योदय वाला शख्स ही था, शख्स ही है। डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल दोनों धोती पहनते थे। हालांकि इस बाबत लोहिया जी कहा करते थे कि इस देश में दो ही तरह के लोगों की राजनीति चमक सकती है। एक वह जो लंगोट के किस्म की धोती पहन सकता हो। दूसरी उसकी जिसकी धोती भुईलोटन हो। पर इन दोनों की धोती बीच की थी। दोनों गैर कांग्रेसवाद का नारा देते थे, जाति तोड़ो की बात करते थे, निजी पूंजी और अंग्रेजी भाषा के विरोधी थे। दोनों साम्यवाद और पूंजीवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे क्योंकि ये विचारधाराएं मनुष्य व समाज को केवल भौतिकवादी नजरिये से देखती हैं। जबकि एकात्म मानववाद में वर्ग संघर्ष की जगह परस्पर निर्भरता की बात है। एकात्म मानववाद में चिति (राष्ट्र की आत्मा) और विराट (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करती है) की बात कही गयी है।

समाजवाद ऐसा राजनीतिक दर्शन है जिसमें निर्गुण नहीं अपितु सगुण पक्ष की सकारात्मक मीमांसा ऐतिहासिक एवं समसामयिक सन्दर्भों में की जाती है। इसीलिए कहा जाता है कि एकात्म मानववाद का उद्देश्य मानवीय है न कि राजनीतिक। राष्ट्रीय हितों के प्रति इनमें एक सी प्रतिबद्धता थी। भारत-पाक महासंघ का संयुक्त वक्तव्य इन दोनों नेताओं की गहन चर्चा से ही निकला, जिसे 12 अप्रैल 1964 को इन्होने जारी किया था। ‘अखंड भारत’ जिसकी अवधारणा थी। दोनों नेता सभी मुद्दों को गुणावगुण के आधार पर देखने के हिमायती थे। अरब-इस्राइल युद्ध के समय जनसंघ के नेता इस्राइल समर्थक बन गये। पंडितजी ने उन्हें यह सलाह दी कि कांग्रेस अरब समर्थक हैं, इसलिए आंख बंद करके इस्राइल समर्थक नहीं हो जाना चाहिए।

दोनों ने भारतीय समाज और राजनीति के व्यापक प्रश्नों के उत्तर इस कदर दिये कि वे पीढिय़ों के लिए प्रासंगिक हो गये। पं.दीनदयाल सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ के जौनपुर लोकसभा उपचुनाव में संयुक्त उम्मीदवार थे। दोनों राजनीति को अपने आप में स्वायत्त नहीं मानते थे। उनका मानना था कि राजनीति का जब संस्कृति, समाज और अध्यात्म से जीवंत संबंध होता है तभी राजनीति उदेश्यमूलक हो पाती है। दोनों मूलत: व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। धर्म को लेकर भी दोनों के बीच कोई अंतरविरोध नहीं था। पं.दीनदयाल धर्म को राजनीति का मूल मानते थे। धर्म के बिना न्याय संभव नहीं। डॉ.लोहिया को राम में मर्यादा की पूर्णता, कृष्ण में उन्मुक्तता या संपूर्ण व्यक्तित्व की पूर्णता तथा शिव में असीमित व्यक्तित्व की पूर्णता उन्हें दिखती थी। सत्य का इससे अधिक आभास क्या मिल सकता है कि पचास या शायद सौ शताब्दियों से भारत में हर पीढ़ी के दिमाग पर इनकी कहानी उसी तरह लिखी हुई है, जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है।

करोड़ों लोगों के सुख-दुख इनमें घुले हुए हैं। किसी कौम की किवंदंतियां, उसकी चाह, इच्छा और जनाकांक्षाओं का प्रतीक होती हैं। इन प्रतीकों को स्थापित करने में डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल आजीवन लगे रहे। एक सच तो यह भी है कि डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल दोनों ने मिलकर भारत की समस्याओं के देशी समाधान वाला एक ब्लू प्रिंट तैयार किया था । यह ब्लू प्रिंट डॉ.लोहिया के दिमाग में और पं.दीनदयाल की अटैची में था। दीनदयाल जी मुगलयसराय स्टेशन पर काल-कवलित मिले, इस स्टेशन का नाम अब उनके नाम कर दिया गया, पर अटैची नहीं मिली। डॉ.लोहिया भी अचानक चले गए। इसीलिए विदेशी नुस्खों से हम आज तक अपनी देशी समस्याओं का हल खोज रहे हैं।

संसाधनों की कमी

2020 तक देश की आबादी 130 करोड़ के करीब होगी, इसका पेट भरने के लिए जरुरी अन्न की पैदावार एक चुनौती है। भारत में 1971 में प्रति व्यक्ति 493 ग्राम अनाज उपलब्ध था जिसमें दालों की मात्रा 62 ग्राम थी, आज अनाज की उपलब्धता 431 ग्राम है, जिसमें दाल केवल 32 ग्राम है। प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1951 में 5200 घनमीटर थी जो इस समय 1300 घनमीटर है। बुनियादी जरूरत की चीजों का कम होना घातक है। देश में लगभग 51 फीसदी किसान कर्ज में डूबे हुए हंै। किसान आत्महत्या की ग्रोथ रेट दस फीसदी से अधिक है। इधर के वर्षों में यह औसत 17,105 कृषक प्रति वर्ष हो गया। शायद ही कोई गांव हो जहां की शत-प्रतिशत स्त्रियां साक्षर व स्वावलम्बी हों। लिंगभेद असमानता सूचकांक में भारत दुनिया में 122वें स्थान पर है। लिंगानुपात भी नारी की संस्थिति का एक संकेतक है।

आजादी के वक्त भारत में लिंगानुपात 946 प्रति हजार पुरुष था जो इस समय 933 है। अमरीका (1029), जापान (1041), ब्राजील (1025), तथा इण्डोनेशिया (1040) में लिंगानुपात स्त्रियों के पक्ष में है जबकि भारत में विपरीत है। स्त्री-पुरुष साक्षरता का अंतर 21 फीसदी है। श्रमशक्ति में महिलाओं की सहभागिता दर 42 फीसदी है, जो चीन (91 प्रतिशत), अमेरिका (85 प्रतिशत), ब्रिटेन (85 प्रतिशत) की तुलना में बहुत कम है। केन्द्रीय मंत्रालय में 10.8 फीसदी, संसद में 10.89 प्रतिशत, पंचायती-राज संस्थाओं में 10.4 प्रतिशत और सर्वोच्च प्रशासनिक सेवाओं में 7.6 फीसदी ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व है।

अमरीका और जापान में क्रमश: प्रति व्यक्ति 1998 और 3466 किलोवाट ऊर्जा का उपयोग करता है, जबकि भारत में एक व्यक्ति को 37.7 किलोवाट ऊर्जा उपलब्ध हो पाती हैै। एक व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन 140 लीटर पानी मिलना चाहिए जबकि उपलब्धता मात्र 49.31 लीटर है। 15 करोड़ से अधिक लोग स्वच्छ पेयजल से वंचित हैं। मात्र 44 फीसदी नागरिकों की पहुंच साफ पानी तक है। एच.एफ. लिंडाल और नेशनल काउन्सिल फॉर एप्लायड इकोनोमिक रिसर्च के अनुसार सर्वाधिक विपन्न 80 फीसदी परिवारों के पास सकल घरेलू आय का 8 से 9 प्रतिशत है। शेष भाग पर सर्वाधिक सम्पन्न 20 प्रतिशत का कब्जा है। फोब्र्स पत्रिका के अनुसार भारत के 27 अरबपतियों की औसत आय भारत के एक आदमी की औसत आमदनी से 90 लाख गुना अधिक है। वित्त मंत्रालय के अनुसार 16.5 प्रतिशत के दर से कर्ज में बढ़ोत्तरी चिंता का विषय है। विश्व बैंक में भारत की छवि पांचवें सबसे बड़े कर्जदार देश के रूप में है। भ्रष्टाचार भारत की सबसे बड़ी समस्या आज भी बनी हुई है।

स्त्रियों की मजबूती

समाजवादी कार्यक्रमों में नारी के लिए विशेष अवसर सिद्धांत का उल्लेख है। डॉ. लोहिया ने ‘रामराज्य’ के बजाय ‘सीता-रामराज्य’ का उल्लेख किया। उन्होंने ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमें ‘सीता’ को ‘वनगमन’ के लिए अभिशप्त न होना पड़े। उनकी सप्तक्रांति का प्रमुख बिन्दु नर-नारी समता है। पं.दीनदयाल उपाध्याय भी नारी स्वतंत्रता के पोषक थे। दोनों नेता मुस्लिम समाज में महिलाओं के शोषण के खिलाफ थे। बुर्का प्रथा और बहु पत्नीवाद के दोनों घोर विरोधी थे। डॉ.लोहिया बुर्का और घूंघट को पुरुष दासता का प्रतीक मानते थे।

पं.दीनदयाल उपाध्याय की पार्टी के नेता और नरेंद्र मोदी ने एक साथ तीन तलाक के सवाल पर कानून बनाने की दिशा में पहल कर मुस्लिम महिलाओं के लिए बड़ा काम किया। डॉ. लोहिया एक पत्नी व्रत के समर्थक थे। इस हद तक इसे मानते थे कि फर्रुखाबाद चुनाव के दौरान राजनीतिक चतुराईवश पुछवाये गए एक सवाल पर बोले कि एक पुरुष को एक से अधिक बीवी रखने के वो खिलाफ हैं। नतीजतन, चौथी लोक सभा के लिए सिर्फ पांच सौ वोटों से जीत पाए। इलाहाबाद से बरेली तक उनकी पार्टी का सफाया हो गया। तीन तलाक पर मोदी का स्टैंड मुस्लिम महिलाओं के लिए एक स्त्री, एक पुरुष की ही रीति-नीति जताता है।

1966 में मुंबई की एक सार्वजनिक सभा में डॉ.लोहिया ने सुझाया था कि मतांतरण कराने वाले अकीदों तथा अपरिवर्तनशील आस्थाओं के रिश्तों को तय करने के लिए कुछ आचरण संबंधी नियम रचित हों। लोहिया जी की स्पष्ट धारणा थी कि लाखों लोगों को दबाव व प्रलोभन से विजेताओं के धर्म को स्वीकार्य करने के लिए बाध्य किया गया। उन्होंने ईसाइयों के राजनीतिक हरकतों का जमकर विरोध किया था। वह मानते थे कि मतांतर कराना एक किस्म की हिंसा है। जनसंघ को लेकर भाजपा तक मतांतरण के खिलाफ लड़ाई लड़ती आ रही है।

अन्त्योदयी समाजवाद भारतीय आत्मा व शरीर के अनुरूप स्वयं सिद्ध दर्शन है, जिसे अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी उन लोगों की है जो स्वयं को पं.दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ.राममनोहर लोहिया, महात्मा गांधी, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह का अनुयायी मानते हैं। यदि शोषण विहीन, समता मूलक, सम्पन्न समाज की रचना की जानी है तो डॉ.लोहिया और पं.दीनदयाल उपाध्याय द्वारा दिखाया गया रास्ता ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि बाकी सभी फार्मूले और गुणसूत्र आजमाये जा चुके हैं। कई बार खंड-खंड, कई बार पांच साल अखंड। लेकिन इसके बाद भी विकास की दौड़ में हाशिये पर का आदमी शामिल नहीं हो सका। रोटी, कपड़ा और मकान, दवाई, पढ़ाई, सिंचाई, बिजली, सडक़, पानी आम आदमी को मयस्सर नहीं हो सके। अकेला समाजवाद या फिर अकेला अन्त्योदय भी कुछ ऐसा नहीं कर सकता जिस पर इतराया जा सके। हालांकि दोनों धारणाएं जिनके पास कुछ नहीं है, उनको कुछ-कुछ देने या सब कुछ देने की प्रतिबद्धता जताती हैं। सिर्फ देने की प्रक्रिया में अंतर है।

अन्त्योदय देने की शुरुआत अंतिम आदमी से करना चाहता है। समाजवाद अंतिम आदमी तक पहुंचाने की अभिलाषा तो व्यक्त करता है पर उसे समय लक्षित नहीं करता। समाजवाद में तमाम जगहों पर भौतिक संसाधनों को अधिक ‘स्पेस’ मिल गया है। जबकि अन्त्योदय मानवीयता को ज्यादा ‘स्पेस’ देता है। ये दोनों धारणाएं मिलकर कल्याण कर सकती हैं। 1964 के आसपास दोनों नेताओं ने मंच साझा किया। सार्वजनिक स्थानों पर इन दोनों नेताओं के एक साथ दिखने का यह नतीजा हुआ कि दोनों की सेनाओं का विभ्रम दूर हुआ। 1967 में सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत 60 के दशक में ही इन दोनों नेताओं द्वारा प्रारंभ कर दी गई थी।

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