हे राम! तेरी गंगा अब भी मैली, नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल ने किया खुलासा

Update: 2018-01-12 07:54 GMT

अनुराग शुक्ला

लखनऊ: भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली का टाइटिल यह साबित करने के लिए काफी है कि कई फिल्में भी असल जिंदगी से ही बनती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गंगा के बुलावे पर गुजरात छोडक़र पिछले लोकसभा चुनाव में बनारस पहुंच गये। गंगा मां के बुलावे पर जब मोदी प्रधानमंत्री पद की तरफ बढऩे की कोशिश कर रहे थे तो उन्होंने मां को साफ करने की कसम खाई थी। अब हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं। फरवरी 2017 में खुद नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल (एनजीटी) को यह कहना पड़ा कि गंगा की एक बूंद भी साफ नहीं हुई है।

2525 किलोमीटर लंबी गंगा पांच राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होती हुई बंगाल की खाड़ी में समा जाती है। इस नदी का कुल कैचमेंट एरिया 8,61,404 वर्ग किलोमीटर है। गंगा 10 लाख वर्ग किलोमीटर को उपजाऊ बनाती है। यह देश की कुल 46 फीसदी आबादी को सहारा देती है। यह नदी देश की कुल उपजाऊ जमीन का करीब एक चौथाई है जो 116 शहरों, 1657 ग्राम पंचायतों और 66 जिलों से गुजरती है, लेकिन इस पवित्र गंगा को हम क्या दे रहे हैं? २ करोड़ ९0 लाख लीटर प्रदूषित कचरा। यह आंकड़ा गंगा में प्रतिदिन गिर रहे कचरे के पैमाने को दर्शाता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की १२ प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है।

गंगा एक्शन प्लान की राह पर नमामि गंगे प्रोजेक्ट

नमामि गंगे प्रोजेक्ट के नाम से शुरू हुआ गंगा सफाई अभियान एक बार फिर राजीव गांधी के समय के गंगा एक्शन प्लान की राह पर बढ़ता ही दिख रहा है। गंगा को साफ करने की जिम्मेदारी संभालने वाले मंत्री बदल चुके हैं मगर गंगा की नियति नहीं बदलती दिख रही है। पहले गाय, गंगा और गीता की बात करने वाली उमा भारती ने इसकी जिम्मेदारी संभाली। पर काम न होता देख मंत्रिमंडल के ‘बेस्ट पर्फार्मर’ नितिन गडकरी को यह जिम्मेदारी दे दी गयी है। अंतर-मंत्रालय विवाद व सहयोग की कमी ने इस प्रोजेक्ट को सफेद हाथी बनने को विवश कर दिया है। हालांकि नितिन गडकरी ने यह दावा किया है कि अगले साल तक गंगा 80 फीसदी साफ हो जाएगी।

तीन साल में खर्च हुए 3673 करोड़ रुपये

नमामि गंगे प्रोजेक्ट में पिछले तीन साल यानी 2014-15 से लेकर 2016-17 में कुल 3673 करोड़ रुपये खर्च किए गए। चल रहे वित्तीय वर्ष 2017-18 में 2300 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है पर इस बजट का इस्तेमाल ही नहीं हो सका है। कैग की संसद में पेश रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि नोडल एजेंसी ‘नेशनल मिशन फार क्लीन गंगा’ ने गंगा सफाई के लिए दिया गया पैसा इस्तेमाल ही नहीं किया। इस साल के 198.14 करोड़ रुपये बैंक में ही पड़े रह गये। पिछले तीन साल में 20 हजार करोड़ रुपये में से 1704.91 करोड़ रुपये यानी महज 8.52 फीसदी पैसा ही रिलीज हो सका है।

नमामि गंगे परियोजना में कुल 163 प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी गयी थी। गंगा में गिर रहे कचरे का ट्रीटमेंट करने वाले इन प्रोजेक्ट्स की कुल कीमत 14040.53 करोड़ रुपये थी। इसमें से अक्टूबर 2017 तक 2391.26 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसी तरह 37 प्रोजेक्ट्स घाटों और श्मशान घाटों के पुनुरुद्धार के लिए थे, जिसमें 1164.02 करोड़ रुपये खर्च होने थे। उसमें से सिर्फ 45.24 करोड़ रुपये खर्च हो सके। एक घाट की सफाई के लिए 5 करोड़ में से 4.42 करोड़ रुपये खर्च हुए। नदी की सतह के लिए 55.24 करोड़ रुपये खर्च होने थे जिसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं हो सका है। वहीं रिवर फ्रंट विकास के 4 प्रोजेक्ट्स में 324.56 करोड़ रुपये खर्च होने थे। इसमें से अब तक 158.40 करोड़ रुपये खर्च हो सके हैं। ग्रामीण स्वच्छता पर 127.83 करोड़ रुपये में से महज 5 करोड़ रुपये ही खर्च हो सके हैं।

धारा न निर्मल बन सकी और न अविरल

2009 में मनमोहन सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की स्थापना कर गंगा की ‘अविरल धारा’ को बनाए रखने की बात की थी। वहीं मोदी सरकार ने ‘निर्मल धारा’ की बात कर नमामि गंगे प्रोजेक्ट शुरू किया था। 2013 में उत्तराखंड की जल त्रासदी के बाद ऐसी 23 परियोजनाओं को चिन्हित कर उन्हें ही त्रासदी का जिम्मेदार ठहराया गया था। अविरल धारा को लेकर दिसंबर 2014 में पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीमकोर्ट में शपथपत्र भी दिया था जिसमें इन प्रोजेक्टों को चिन्हित किया गया था। शपथपत्र के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने 5 नए प्रोजेक्ट को मंजूरी भी दे दी है। गंगा सफाई से जुड़ी स्वयंसेवी मल्लिका भनोट का मानना है, ‘अब अविरल धारा तो अतीत की बात हो गयी क्योंकि नदी पर 250-400 हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की मंजूरी प्रस्तावित है।’

वैसे गंगा की निर्मलता में सबसे बड़ी कमी अविरलता की है। गंगा की सफाई पर एक इंस्टीट्यूट चला रहे प्रोफेसर यू.सी.चौधरी कहते हैं कि गंगा की जियो मार्फोलाजी की समझ के बिना ये प्रोजेक्ट गंगा की लहरों में पानी बहाने का सबब बन जाएगा। उनके मुताबिक हरिद्वार में भीमगोडा बैराज,नरोरा में नरोरा बैराज और बिजनौर बैराज के जरिए गंगा के पानी को पूरी तरह से रोक लिया जाता है। इन तीनों बैराज के बाद नदी तो पूरी तरह से वहीं समाप्त हो जाती है। गोमुख वाली गंगा का पानी तो कहीं बचता ही नही। ऐसे में अविरलता कहां से आएगी और प्रवाह कहां से मिलेगा यानी अगर कुछ और बैराज बने तो गंगा का प्रवाह कृत्रिम तौर पर सही हो सकता है पर इससे निर्मलता तो खत्म हो जाएगी। बैराज में पानी रुकने से नदी में ऑक्सीजन की मात्रा कम होगी और प्रदूषण बढ़ेगा।

1986 से चल रहे गंगा एक्शन प्लान एक और दो में 986.34 करोड़ रुपये खर्च होने के बाद आज भी गंगा में 26 करोड़ 67 लाख लीटर कचरा गिरता है। इन दोनों एक्शन प्लान के फेल होने की मुख्य वजह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट पर लगाम न होना बताया जाता है। मोदी सरकार में शुरू किए गए नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत अक्टूबर 2017 तक महज 22 करोड़ लीटर प्रतिदिन सीवेज ट्रीटमेंट की क्षमता बन सकी है जबकि उसका लक्ष्य इसी अवधि में 220 करोड़ लीटर प्रतिदिन का था। अगर संख्या की बात करें तो 93 सीवर ट्रीटमेंट प्रोजेक्ट में से सिर्फ 18 ही बन सके हैं।

. क्या है विकल्प

दरअसल, गंगा एक्शन प्लान से लेकर नमामि गंगा प्रोजेक्ट के फेल होने के पीछे सीवर ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) के काम न करने की कहानी अलग-अलग रूप में सामने आई है। इसके बनने में आने वाली ज्यादा लागत, जमीन की उपलब्धता जैसे अवरोध हैं। इसका जवाब खुद केंद्र सरकार के पास ही है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के जल प्रौद्योगिकी केंद्र (डब्ल्यूटीसी) ने एक जैविक एसटीपी की खोज की है। यह एसटीपी पौधों और सूक्ष्मजीवियों की मदद से काम करता है। इसे न तो केमिकल की जरुरत है, न ही बिजली की, न कुशल श्रमिकों और न ही ज्यादा पैसे की। यह करीब 65 फीसदी तक पैसे बचाता है। अगर इसे लागू किया जाए तो नमामि गंगा प्रोजेक्ट में लगने वाले 10,430 करोड़ रुपये को कम कर 1300 करोड़ रुपये तक लाया जा सकता है।

इस एसटीपी में टायफा लैटीफोलिया नाम के पौधे का इस्तेमाल किया जाता है। यह न सिर्फ प्रदूषक तत्वों को सोखता है बल्कि इसकी जड़ों से निकलने वाली ऑक्सीजन पानी में आक्सीजन की मात्रा बढ़ाती है। यही वजह है कि साधारण एसटीपी में केमिकल का इस्तेमाल कर ऑक्सीजन बढ़ाने की बाध्यता से बचा जा सकता है। इसके अलावा यह एसटीपी 80 से 99 प्रतिशत तक धातु अवशिष्ट को भी हटा देता है। इस एसटीपी की खास बात यह भी है कि इसमें बदबू नहीं आती है। प्लवक आधारित होने की वजह से इसमें से ‘स्लज’ नहीं निकलता बल्कि इसके स्लज को ‘बायोफ्यूल’ के तौर पर क्लीन एनर्जी के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। शहरी विकास मंत्रालय ने पूरे देश के 420 शहरों में इसे इस्तेमाल करने की एडवाइजरी जारी कर दी है।

गंगा का मिजाज सबसे अलग

गंगा अपनी तरह की अलग नदी है। जब गंगा पहाड़ों से उतरती है तो साथ आते हैं पत्थरों के टुकड़े और रेत। सब गाद बनकर तलहटी में बैठते जाते हैं। इसके अलावा गंगा का मिजाज है कि कही वह कटाव करती है तो कहीं पर भराव। इसे तकनीकी भाषा में ‘इरोशन-डिपोजीशन इ$फेक्ट’ कहते हैं यानी हर बरसात में गंगा अपने गाद को भर देगी। हरिद्वार, बनारस, कानपुर या गाजीपुर में या कहीं और गंगा के हर मोड़ का आकार अलग है, उसका वृत्त (रेडियस ऑफ कर्वेचर) अलग है। यू.सी.चौधरी के मुताबिक दरअसल गंगा का वेग कई जगहों पर बदलता है। इसके अलावा गंगा का वेग बनारस में ही कुछ जगहों पर शून्य सेमी प्रति सेकेंड तक हो जाता है। आमतौर पर नदियों का वेग मध्य में सबसे ज्यादा और किनारे पर कम माना जाता है। बनारस मे यह वेग उलट जाता है। दशाश्वमेघ घाट के बाद यह वेग मध्य में सबसे कम और किनारे पर सबसे ज्यादा होता है।

थेम्स व राइन से नहीं की जा सकती तुलना

लंदन की थेम्स और जर्मनी की राइन नदी से तुलना करने वाले सरकारी अधिकारियों ने शायद इस बात पर गौर नहीं किया कि इन विदेशी नदियों की प्रवृत्ति पथरीली है। यानी ये रॉक कैरेक्टरस्टिक की नदियां हैं जबकि गंगा बलुवा मिट्टी के दुनिया के सबसे ज्यादा उपजाऊ बेसिन में बहती है। ऐसे कटान और जमाव में गंगा का इन नदियों से कोई मुकाबला नहीं है। इन नदियों से कटान और जमाव की समस्या गंगा के मुकाबले बहुत कम है। डॉ यू.सी.चौधरी का दावा है कि बनारस में गंगा के तीन ढाल का इस्तेमाल कर पूरी गंगा को निर्मल बनाया जा सकता है। केवल पैसा खर्च करने से गंगा साफ नहीं होगी। लेकिन सवाल यह है कि सरकार ने गंगा पर योजनाएं तो बना लीं पर गंगा के मिजाज पर कितना अध्ययन किया है। शायद यही वजह है कि हर बार इलाज करने पर गंगा का मर्ज बढ़ा है।

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