अंत तक सामाजिक कार्यों के प्रति समर्पित रहे नानाजी देशमुख

Update:2019-02-02 13:51 IST

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: मैं अपने लिए नहीं, अपनों के लिए हूं। अपने वे हैं जो सदियों से पीडि़त एवं उपेक्षित हैं। यह कथन है युगदृष्टा चिंतक नानाजी देशमुख का। वे कहने में कम उसे कार्यरूप में परिवर्तित करने में अधिक विश्वास रखते थे। आधुनिक युग के इस समाजसेवी संत का पूरा जीवन ही एक प्रेरक कथा है। नानाजी ने अपनी कर्मभूमि भगवान राम के गायों की गोचर भूमि गोनर्द(गोंडा) और भगवान राम की तपोभूमि चित्रकूट को बनाया।

नानाजी ने पं.दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद की पहली प्रयोगशाला के रूप में गोंडा जिले को चुना और गोंडा ग्रामोदय प्रकल्प नाम देकर जो सेवा कार्य किया उसे मॉडल के रूप में लेते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने देश भर में चलाया। गांव और गरीबों को स्वावलम्बन की प्रेरणा प्रदान करने वाले राष्ट्र ऋषि नानाजी देशमुख को भारत रत्न मिलने पर गोंडा-बलरामपुर जिले में खुशी का माहौल है। नानाजी ने साठ साल की उम्र में उस समय राजनीति छोड़ी जब वे कॅरियर के शिखर पर थे। उसके बाद उन्होंने खुद को सामाजिक कार्यों की ओर मोड़ लिया जिसके प्रति वह जीवन के अंत काल तक समर्पित रहे।

1999 में मिला पद्म विभूषण सम्मान

वर्ष 1999 में नानाजी को राज्यसभा को सदस्य मनोनीत किया गया और 1999 में ही नानाजी को भारत सरकार ने सामाजिक कार्यों के लिए पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया था। उन्हें महात्मा गांधी सम्मान, एकात्मता पुरस्कार, श्रेष्ठ नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण, वरिष्ठ नागरिक सम्मान, मानस हंस, जीवन गौरव, संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। अजमेर, मेरठ, झांसी, पूना एवं चित्रकूट विश्वविद्यालय द्वारा डीलिट की मानद उपाधि दी गयी। नानाजी ने अमेरिका, इंग्लैंड, क्यूबा, जर्मनी, कनाडा, दक्षिण कोरिया, जापान, डेनमार्क, थाईलैण्ड, केन्या इत्यादि देशों में भारतीय जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए प्रवास किया।

प्रयोगवादी थे नानाजी

नानाजी के प्रयोगवादी रचनात्मक कार्यों का एक उदाहरण है सरस्वती शिशु मंदिर। सरस्वती शिशु मंदिर आज भारत की सबसे बड़ी स्कूलों की श्रृंखला बन चुकी है। इसकी नींव नानाजी ने ही 1950 में गोरखपुर में रखी थी। इतना ही नहीं वे संस्कार भारती के संस्थापक सदस्यों में एक रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राष्ट्रधर्म का प्रकाशन करने का निर्णय लिया तो पंडित दीनदयाल को मार्गदर्शक, अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादक व नानाजी को प्रबन्ध निदेशक का दायित्व दिया गया।

नानाजी ने अपनी कार्यकुशलता का परिचय देते हुए राष्ट्रधर्म के साथ-साथ पांचजन्य व दैनिक स्वदेश का प्रकाशन प्रारम्भ कर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई। 1951 में उन्हें पंडित दीनदयाल के साथ भारतीय जनसंघ का कार्य करने को कहा गया। राजनीति में संघर्ष नहीं समन्वय, सत्ता नहीं, अन्तिम व्यक्ति की सेवा आदि वाक्यों को नानाजी ने स्थापित करने की कोशिश की।

साठ साल की उम्र में छोड़ दी राजनीति

नानाजी देशमुख की केंद्र में 1977 में जनता पार्टी की सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने 1974 में जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का समर्थन कर भारतीय जनसंघ की राजनीतिक अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करने तथा अन्य घटनाओं के बाद जनता पार्टी का गठन किया गया जिसने कांग्रेस से सत्ता छीन ली। इस काम में नानाजी देशमुख की महत्वपूर्ण भूमिका थी। बलरामपुर से चुनाव जीतने के बाद नानाजी जनता पार्टी के महासचिव बनाए गए। साठ साल के होने के बाद नानाजी ने उस समय राजनीति छोड़ दी जब उनका राजनीतिक कॅरियर शिखर पर था। उन्होंने खुद को सामाजिक कार्यों की ओर मोड़ लिया जिसके प्रति वह जीवन के अंत काल तक समर्पित रहे।

बलरामपुर से पहली बार जीतकर पहुंचे संसद

1977 के फरवरी माह में लोकसभा के आम चुनाव की घोषणा हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेल से सभी नेताओं को छुट्टी दी किन्तु नानाजी को जेल में ही बंदी बनाये रखा। नानाजी को छोडऩे के लिए कहा गया तो इंदिरा गांधी ने कहा कि नानाजी तो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, उनको छोडऩे की क्या जरूरत है। सभी नेताओं ने नानाजी से चुनाव लडऩे का आग्रह किया, लेकिन नानाजी ने कहा कि मुझे चुनाव नहीं लडऩा है। इसलिए मैं जेल में पड़ा रहूंगा। तब रामनाथ गोयनका ने जयप्रकाश नारायण से कहा कि आपके कहे बिना नानाजी चुनाव लडऩे को तैयार नहीं होंगे। जयप्रकाश नारायण ने नानाजी के पास अपना संदेशवाहक भेजकर उन्हें चुनाव लडऩे के लिए राजी किया।

नानाजी जेल से छूटे। छूटने के बाद उन्हें बलरामपुर से चुनाव लडऩे को कहा गया। वे चुनाव लड़े और पौने दो लाख से अधिक वोटों से जीते। मोरारजी देसाई की सरकार बनी और नानाजी से पूछे बिना उन्हें मोरारजी ने अपनी कैबिनेट में उद्योग मंत्री बनाने की घोषणा कर दी, किन्तु नानाजी ने मंत्री पद स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि वे देहातों में समाजसेवा का कार्य करेंगे। 60 वर्ष की आयु पूर्ण होने के साथ ही सक्रिय राजनीति से मुक्त होने के अपने विचार को उन्होंने खुद पर लागू भी किया। अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में नानाजी ने यह अनुभव कर लिया था कि केवल राजनीति से समाज कल्याण नहीं हो सकता है। उनका विश्वास था कि आर्थिक आत्मनिर्भरता व सामाजिक पुनर्रचना से ही सार्थक सामाजिक बदलाव संभव है। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यों को विस्तार देना प्रारंभ किया। संस्थान का काम देश के विभिन्न भागों में शुरू हुआ। संस्थान गोंडा के अलावा बलरामपुर, बीड, नागपुर, अहमदाबाद, सिंहभूम, दिल्ली और चित्रकूट में कई साल से काम कर रहा है।

एकात्म मानववाद की पहली प्रयोगशाला गोंडा ग्रामोदय प्रकल्प

1978 में नानाजी देशमुख ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर स्वयं को ग्राम विकास के लिए समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने गोंडा जिले से पं.दीनदयाल के एकात्ममानव वाद को साकार रूप देने के लिए सर्वप्रथम ग्रामोदय प्रकल्प की शुरुआत की। उन्होंने सबसे पहले प्रकल्प का नाम रखा गोंडा ग्रामोदय प्रकल्प। इसका शुभारंभ तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने किया था। गोंडा में बलरामपुर के पास जमीन लेकर जयप्रभा ग्राम नाम से ग्राम विकास, गोसंवर्धन, शिक्षा और कृषि तंत्र में सुधार के लिए काम करना प्रारम्भ किया।

तत्काल ही 25 हजार से भी अधिक बांस के नलकूपों का नया प्रयोग कर अलाभकर जोत को लाभकर बनाया व कर्ज से लदे भुखमरी का सामना कर रहे किसानों को स्वावलंबी बनाया। इसकी सफलता को देखते हुए गोंडा में जिला मुख्यालय पर विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक ट्रेडों में प्रशिक्षण के साथ बलरामपुर के इमिलियि कोंडर में भी ग्रामोत्थान प्रकल्प और गोंडा के गोपाल ग्राम में कृषि विज्ञान केन्द्र शुरू किया गया। दीन दयाल शोध संस्थान के द्वारा शुरू किए गए गोंडा ग्रामोदय प्रकल्प के प्रथम सह निदेशक रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वर्तमान सह संघ चालक राम प्रकाश गुप्ता बताते हैं कि उनके द्वारा किए गए ग्रामोत्थान के प्रयोग और कृषि में चमत्कारिक काम देशभर में चर्चा का विषय बना और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इसे देश भर में चलाया।

नौवीं कक्षा में हुई डा. हेगडेवार से मुलाकात

ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के शिल्पकार और युगदृष्टा चंडिकादास अमृतराव देशमुख यानी नानाजी देशमुख का जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में 11 अक्तूबर 1916 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख था तथा माता का नाम राजाबाई था। नानाजी के दो भाई एवं तीन बहने थीं। नानाजी जब छोटे थे तभी इनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभाव में बीता। वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दैनिक शाखा में जाया करते थे। जब वे 9वीं कक्षा में अध्ययनरत थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। डा.साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए।

मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डा. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया तथा कुछ आर्थिक मदद की भी पेशकश की मगर स्वाभिमानी नाना को आर्थिक मदद लेना स्वीकार्य न था। वे किसी से भी किसी तरह की सहायता नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने डेढ़ साल तक मेहनत कर पैसा इक_ा किया और उसके बाद 1937 में पिलानी गये। पढ़ाई के साथ-साथ निरंतर संघ कार्य में लगे रहे। कई बार आर्थिक अभाव से मुश्किलें पैदा होती थीं परन्तु नानाजी कठोर श्रम करते ताकि उन्हें किसी से मदद न लेनी पड़े। 1940 में उन्होंने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा किया। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के बलबूते उन्होंने राजनीति और समाज सेवा के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। उन्होंने 27 फरवरी 2010 को उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में अंतिम सांस ली।

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