मिटने के करीब है राज परिवार के प्रेम की निशानी, बनवाया था काल्पनिक वृंदावन

Update:2017-08-11 18:27 IST

तेज प्रताप सिंह

गोंडा। मुगल बादशाह शाहजहां ने मुमताज की याद में आगरा में ताजमहल बनवाया था तो यहां 18वीं शताब्दी में तत्कालीन गोंडा नरेश गुमान सिंह की पत्नी रानी भगवंत कुंवरि ने राजा को रिझााने के लिए मथुरा वृंदावन की तर्ज पर सागर तालाब के बीचों-बीच टापू पर काल्पनिक वृंदावन बनवा डाला।

राज परिवार की यह बेहतरीन निशानी खंडहर में तब्दील हो गई है। नगर स्थित सागर तालाब का निर्माण 17वीं शताब्दी में गोंडा नरेश शिव प्रसाद सिंह ने कराया था। वह कृष्ण के अनन्य भक्त थे और तालाब के समीप भव्य मंदिरों का भी निर्माण कराया था। बाद में राजा गुमान सिंह की पत्नी रानी भगवंत कुंवरि ने इसे काल्पनिक वृंदावन का रूप दे दिया।

बताया जाता है, कि राजा गुमान सिंह मथुरा वृंदावन दर्शन के लिए गए थे। वहां का मनमोहक दृश्य उन्हें भा गया और वह वहीं अपने गुरु और सखी के पास रुक कर गुरु की सेवा करते रहे। जब वह लौटने को तैयार नहीं हुये तब रानी भगवंत कुंवरि ने गोंडा में भी मथुरा-वृंदावन जैसा एक वृंदावन स्थापित करने का वचन दिया। बाद में रानी भगवंत कुंवरि ने सागर तालाब के बीच में एक टापू पर गोर्वधन पर्वत, कृष्ण कुंज, श्याम सदन, गोपाल बरसाना आदि का निर्माण कराया। ये सब आज भी सागर तालाब के बीचों बीच खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं।

मिट रही प्रेम की निशानी

गोंडा नरेश महाराजा देवी बख्श सिंह के शासनकाल तक सागर तालाब और काल्पनिक वृंदावन दर्शनीय स्थल रहा किन्तु उनके नेपाल जाने के बाद इस अद्भुत निर्माण की दुर्गति शुरू हो गई और देखरेख के अभाव में धीरे-धीरे यह खण्डहर में तब्दील होता गया। आजादी के बाद भी इसके संरक्षण का कोई खास प्रयास नहीं किया गया।

बेनतीजा रही सुन्दरीकरण की पहल

काल्पनिक वृंदावन और सागर तालाब के सुन्दरीकरण के लिए वर्ष 1999-2000 में तत्कालीन जिलाधिकारी मार्कण्डेय सिंह ने पहल की थी। इसके बाद 16 लाख 40 हजार की लागत से एक विस्तृत कार्ययोजना तैयार की गयी। तालाब के उत्तर की ओर एक प्लेटफार्म का निर्माण शुरू भी कराया गया किन्तु इसी बीच उनका स्थानांतरण हो जाने से योजना ठप हो गई। कई साल बाद जिलाधिकारी डा. रोशन जैकब ने सागर तालाब को अतिक्रमण से मुक्त कराकर चारों ओर मार्ग का निर्माण कराया।

उन्होंने टापू की सफाई तो करा दिया किन्तु गोवर्धन पर्वत, श्याम सदन, मंदिर और कृष्ण कुंज की मरम्मत पर जोर नहीं दिया। इसका परिणाम रहा कि ये सब आज भी वैसे ही उपेक्षित पड़े हुये हैं। इक्वेरियम और पैडल बोट, पार्क आदि कुछ माह तक तो ठीक ठाक चला लेकिन आय न होने के कारण रखरखाव के अभाव में नष्ट होते गए।

संस्कृति जागरण समिति ने उठाई मांग

महाराजा देवी बख्श सिंह के पूर्वजों द्वारा स्थापित भवनों, वृंदावन, सागर ताल और जिगना कोट स्थित राजा के महल आदि के संरक्षण के लिए राजा देवी बख्श सिंह साहित्य एवं संस्कृति जागरण समिति के मंत्री और महाराजा देवी बख्श सिंह के वंशज माधवराज सिंह ने अनेक बार मांग की। लेकिन शासन, प्राासन और जनप्रतिनिधियों द्वारा अनसुनी किए जाने से उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई है। माधवराज सिंह कहते हैं कि आजादी लड़ाई और की जनता की सेवा में राजा देवी बख्श सिंह जितना बड़ा योगदान किसी का नहीं है। फिर भी शासन प्राासन और जन प्रतिनिधि मौन हैं।

वहीँ महज औपचारिकता बन गया है छोटी अयोध्या का सावन झूला मेला

छोटी अयोघ्या के नाम से मशहूर कर्नलगंज का सावन झूला मेला सैकड़ों साल पुराना है। लेकिन अब यह अब महज औपचारिकता बनकर रह गया है। दर्जनों मंदिरों के कारण छोटी अयोध्या के नाम से मशहूर गोंडा जिले का कर्नलगंज कस्बा कभी पांच दिवसीय सावन झूला मेले के लिए जाना जाता था। जानकारों के अनुसार सन 1900 के पहले से यहां रामलीला का संचालन शुरू हुआ तो सावन मेला भी शुरू किया गया।

मन्दिरों में सावन मेले के दौरान लाखों लोगों की भीड़ जुटने लगी। मन्दिरों में रक्षाबन्धन से पांच दिन पूर्व रात्रिकालीन झूला व नृत्य का आयोजन किया जाता था। समाजसेवी और वयोवृद्घ पत्रकार संतराम विश्वकर्मा बताते हैं कि यह कस्बा सोने चांदी के जेवर, अनाज, सन(जिससे रस्सी बनती है) और देशी घी के व्यापार के लिए प्रसिद्घ था। नब्बे के दशक में सावन मेले में लगने वाली नौटंकी आदि को अश्लीलता बताते हुए कुछ लोगों ने पुलिस व न्यायालय का सहारा लेकर मन्दिरों में सावन झूले को बन्द कराने की मुहिम छेड़ दी।

प्रशासन ने भी मन्दिरों के अन्दर बैठने की परम्परा पर रोक के साथ बाहर नाच गाने पर भी रोक लगा दी गयी। सावन मेले पर वर्ष 2000 से बिल्कुल रोक ही लग गयी। धीरे-धीरे कर्नलगंज के मन्दिरों के बाहर रौनक भी समाप्त होने लगी। सावन झूला मेला कर्नलगंज में बन्द होने के कारण इसका प्रसार कटरा बाजार मार्ग पर पहाड़ापुर में पण्डा पुरवा, गोराबाबू भटठा पर कादीपुर में गोनवा में चौरी में व आसपास गांवों में शुरू हुआ, लेकिन यहां के वीरान मन्दिरों में भरपाई कभी नहीं हो पायी।

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