Nepal Election 2022: नेपाल में चुनाव, लोगों में गुस्सा और निराशा

Nepal Election 2022: नेपाल ने 1990 के बाद से लोकतांत्रिक अभ्यास के कई वर्षों में 32 सरकारों को देखा है। 2008 में राजशाही समाप्त के बाद 14 वर्षों में 10 सरकारें आई और गई हैं।

Written By :  Neel Mani Lal
Update:2022-11-19 11:21 IST

 नेपाल में चुनाव (photo: social media )

Nepal Election 2022: नेपाल में लोकतांत्रिक प्रयोग का भविष्य दाँव पर लगा हुआ है। 2008 के बाद से नेपाल में 10 बार आम चुनाव हो चुके हैं और अब 11वां चुनाव कल होने जा रहा है। राजशाही के बाद से देश में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता से लोगों में व्यापक आक्रोश और निराशा है। चूंकि नेपाल में भारत का भी बहुत कुछ दांव पर है सो वह भी करीब से निगाहें रखे हुए है और प्रतीक्षा कर रहा है।

नेपाल ने 1990 के बाद से लोकतांत्रिक अभ्यास के कई वर्षों में 32 सरकारों को देखा है। 2008 में राजशाही समाप्त के बाद 14 वर्षों में 10 सरकारें आई और गई हैं।

राजशाही जब खत्म हुई तब देश के नेताओं ने स्थिर सरकार, लोकतंत्र के समेकन, आर्थिक समृद्धि और भ्रष्टाचार मुक्त शासन के वादे किए थे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और बहुत से लोग अब नए चुनाव से भी स्थायी राजनीतिक स्थिरता लाने की उम्मीद नहीं करते।लगभग 1 करोड़ 80 लाख पात्र मतदाता नए संघीय और प्रांतीय विधानसभाओं का चुनाव करने के लिए रविवार को नेपाल में मतदान करेंगे। देश के विवादास्पद संविधान को 2015 में लागू किए जाने के बाद से यह दूसरा चुनाव है।

275 सदस्यीय संघीय संसद के एक सौ पैंसठ सदस्य फर्स्ट-पास्ट-द पोस्ट (एफपीटीपी) प्रणाली के माध्यम से चुने जाएंगे; शेष 110 सीटें आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (पीआर) द्वारा भरी जाएंगी। सात प्रांतीय सदनों की कुल 330 सीटों पर सीधे फैसला होगा; शेष 220 सीटें आनुपातिक प्रतिनिधित्व से भरी जाएंगी।प्रत्येक मतदाता चार मतपत्रों पर मुहर लगाएगा और उन्हें अलग-अलग बक्सों में डालेगा - संघीय संसद और प्रांतीय विधायिका के लिए प्रत्येक एफपीटीपी उम्मीदवारों के लिए एक; और केंद्र और प्रांतों में पार्टियों के लिए एक-एक। प्रत्येक पार्टी द्वारा मतदान की संख्या पीआर प्रणाली के तहत केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं में प्राप्त होने वाली सीटों की संख्या निर्धारित करेगी।

अर्थव्यवस्था और महंगाई

नेपाल की 3 करोड़ आबादी बीते छह सालों में सबसे ज्यादा महंगाई की समस्या से जूझ रही है। यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से पैदा हुए वैश्विक ऊर्जा संकट और खाने-पीने की चीजों के बढ़े दाम से देश में महंगाई की दर आठ फीसदी के ऊपर चली गई है। यह सारा संकट दो साल तक चले कोरोना की महामारी के बाद आया है। ऐसे में उनके लिए इस समय वही राजनेता काम का है, जो भोजन और दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों पर लगाम लगा सके।अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है।

राजनीतिक स्थिरता

यह गरीब देश बीते दशकों में राजनीतिक स्थिरता के लिए बहुत तरसा है।नेपाल की तीन प्रमुख पार्टियों- नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी (यूएमएल) पार्टी और माओवादी केंद्र, इन सबने अलग-अलग गठबंधन सरकारों का नेतृत्व किया है। लेकिन कोई भी सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। आपसी खींचतान और सत्ता के संघर्ष ने हर सरकार को समय से पहले ही अपना शिकार बना लिया। करीब एक दशक तक सरकार से लड़ने के बाद माओवादी विद्रोही 2006 में संघर्षविराम पर रजामंद हुए और मुख्यधारा में शामिल हो गए। नेपाल में हाल की आर्थिक मुश्किलें और राजनीतिक स्थिरता चुनाव में मतदाताओं के लिए सबसे बड़े मुद्दे हैं। वैसे, स्थिरता के मामले में नेपाली कांग्रेस का रिकॉर्ड बाकी पार्टियों की तुलना में बेहतर है। इस बार भी जिस तरीके से वो अपनी सरकार चला पाने में सफल हुए हैं, वह उनकी वापसी के लिए उम्मीद जगाती है।

मुख्य मुकाबला

मुकाबला मुख्य रूप से नेपाली कांग्रेस पार्टी और यूएमएल पार्टी के बीच है। नेपाली कांग्रेस फिलहाल चार पार्टियों के गठबंधन का नेतृत्व कर सरकार चला रही है। पिछले तीन दशकों में नेपाली कांग्रेस ही ज्यादातर समय सत्ता में रही है। नेपाली कांग्रेस की कमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के हाथ में है और उन्होंने माओइस्ट सेंटर पार्टी के साथ गठबंधन किया है। यह पार्टी मुख्य रूप से पूर्व विद्रोहियों का दल है। 76 साल के देउबा इस चुनाव से छठी बार सत्ता में लौटने की उम्मीद कर रहे हैं। नेपाली कांग्रेस पार्टी को भारत का करीबी माना जाता है। यूएमएल की कमान 70 साल के केपी शर्मा ओली के हाथ में है, जिन्होंने शाही परिवार के समर्थक दल के साथ एक कमजोर गठबंधन किया है। ओली अपने पहले के कार्यकाल में चीन समर्थक रुख के लिए जाने जाते हैं। अगर उनका गठबंधन जीत जाता है, तो फिर प्रधानमंत्री पद के वही दावेदार होंगे। इससे पहले भी वह दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं।माओइस्ट सेंटर पार्टी की कमान प्रचंड के हाथ में है, जो किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में किंगमेकर बन सकते हैं। कभी विद्रोही रह चुके प्रचंड आज भी अपने नाम जैसे रुख के लिए जाने जाते हैं और देश का प्रधान बनने की ख्वाहिश रखते हैं। चुनाव से पहले नेपाल में कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि किसकी स्थिति मजबूत है।

चीन और भारत

पड़ोसी देश चीन और भारत के नेपाल से रणनीतिक और आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। बीते सालों में नेपाल के आम लोगों का भारत से जुड़ाव थोड़ा कम हुआ है। अब ये लोग इन इलाकों की बजाय दक्षिण भारत की ओर जाने लगे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि नेपाल से सटे इलाकों में इन लोगों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। जिस तरह यूपी, बिहार के लोग बेंगलुरू जा रहे हैं, वैसे ही नेपाल के लोग भी अगर भारत जाते हैं, तो इन्हीं जगहों की ओर।नेपाल के लोगों ने अब खाड़ी के देशों और दूसरे देशों में जाने को ज्यादा बेहतर विकल्प मानना शुरू कर दिया है। हालांकि फिर भी भारत-नेपाल के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंधों का तानाबाना बना हुआ है।

उधर चीन ने अपनी बेल्ट ऐंड रोड परियोजना के तहत नेपाल के साथ बुनियादी ढांचे के विकास की परियोजनाओं के लिए करार किया हुआ है। वह काठमांडू से लेकर ल्हासा तक रेल नेटवर्क खड़ी करने की तैयारी में है। मौजूदा सरकार वामपंथी सरकारों के मुकाबले भारत से ज्यादा संतुलन बना कर चलती है। मधेस लोगों के बीच भी नेपाली कांग्रेस की अच्छी पैठ रही है। इस साल की शुरुआत में नेपाल ने 50 करोड़ डॉलर की अमेरिकी सहायता को मंजूरी दी थी। इस पैसे से सड़कों को बेहतर बनाया जाएगा और बिजली की लाइन बिछाई जाएगी। नेपाल में इस फैसले को लेकर काफी विवाद हुआ क्योंकि चीन को आशंका है कि अमेरिका नेपाल में अपनी पहुंच बनाने की कोशिश कर सकता है।

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