पेट्रोल-डीजल पर दादागिरी: ये चला रहे वसूली का खेल, जानें कौन-कौन से देश शामिल
अमेरिका भी एक बहुत बड़ा तेल उत्पादक देश है लेकिन वह इस संगठन के गोरखधंधे में शामिल नहीं है। पहले रूस भी इसमें नहीं था लेकिन अब वह अप्रत्यक्ष तरीके से इसी गुट का सहयोगी बन चुका है।
नई दिल्ली: दुनिया के मुट्ठी भर देश पेट्रोल-डीजल और गैस का खेल चला रहे हैं। इन देशों की इकॉनमी कच्चे तेल और नेचुरल गैस पर चलती है सो ये देश इनके दम पर दुनिया को नचाते हैं। इन देशों के एक संगठन बना रखा है जिसका नाम है ओपेक। ओपेक यानी आर्गेनाइजेशन ऑफ़ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कन्ट्रीज का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि तेल के दामों में सौदेबाजी की जा सके और प्रोडक्शन को ऐसे रखा जाए ताकि दाम पर नियंत्रण बना रहे।
ये देश हैं संगठन के मेंबर
ओपेक संगठन के 13 मेंबर देश हैं - अल्जीरिया, अंगोला, कांगो, इक्वेटोरियल गिनी, गैबन, ईरान, ईराक, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया, सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात और वेनेज़ुएला। अमेरिका भी एक बहुत बड़ा तेल उत्पादक देश है लेकिन वह इस संगठन के गोरखधंधे में शामिल नहीं है। पहले रूस भी इसमें नहीं था लेकिन अब वह अप्रत्यक्ष तरीके से इसी गुट का सहयोगी बन चुका है।
OPEC की दादागिरी आई सामने
ओपेक की दादागिरी 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के समय खुल कर सामने आई जब ओपेक के अरब सदस्यों ने इजरायल की मदद करने पर अमेरिका के खिलाफ तेल प्रतिबन्ध लगा दिए और अमेरिका को तेल की सप्लाई रोक दी। सन 73 की इसी कदम ने ओपेक का पलड़ा हमेशा के लिए भारी कर दिया। उसने दिखा दिया था उसके पास तेल रूपी ब्रह्मास्त्र है जिसके सामने सभी को झुकना पड़ेगा।
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ओपेक प्राइसिंग ओवर वॉल्यूम की रणनीति पर चलता है जिसका मतलब है जितना तेल निकलेगा उसी के हिसाब से दाम तय होंगे। यानी ज्यादा प्रोडक्शन तो कम दाम और कम प्रोडक्शन मायने ज्यादा दाम। इस व्यवस्था में में तेल उत्पादन से उसके दाम लिंक्ड रहते हैं।
तेल प्रतिबन्ध का असर
1973 के तेल प्रतिबन्ध का असर ये हुआ कि तेल बाजार पर खरीदार की बजाये विक्रेता का पूर्ण कंट्रोल हो गया। 73 के पहले तेल मार्केट को सेवेन सिस्टर्स कंट्रोल करते थे। ये कोई बहनें नहीं तेने बल्कि पशिमी देशों की सात तेल कम्पनियाँ थीं जो अधिकाँश तेल मैदानों को ऑपरेट करती थीं। 1973 के बाद शक्ति संतुलन इन सात कंपनियों की बजाये ओपेक देशों की ओर झुक गया।
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बाद में विश्व की अनेक घटनाओं ने ओपेक को तेल के दामों पर कंट्रोल बनाये रखने में मदद की जिसमें सोवियत संघ का विघटन शामिल है। सोवियत संघ के टूटने के अनेक प्रभाव रहे थे, कई साल तक रूस का तेल प्रोडक्शन बाधित रहा, कई देशों की मुद्राएँ अवमूल्यित हो गयीं और इन सबका असर तेल की डिमांड पर पड़ा। लेकिन ओपेक के देश तेल का प्रोडक्शन सामान लेवल पर बनाये रहे, उनको सोवियत संघ के टूटने और उसके प्रभावों का कोई असर नहीं हुआ।
ओपेक प्लस का उदय
तेल उत्पादक देशों में एक नया गुट बना 2016 में जिसे ओपेक प्लस का नाम दिया गया। पोएक प्लस में ओपेक के सदस्यों के अलावा रूस और कजाकस्तान जैसे दस अन्य तेल निर्यातक देश शामिल हैं। चूँकि पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स का कोई सस्ता और सुलभ विकल्प नहीं है सो ओपेक प्लस का तेल के दामों पर प्रभाव बना हुआ है।
जब दुनिया में तेल की डिमांड कम हो जाती है तो ओपेक के देश अपना प्रोडक्शन कोटा घटा देते हैं नतीजा ये होता है कि बाजार में तेल कम पहुंचता है और दाम चढ़ जाते हैं जिससे उत्पादक देशों को कोई नुकसान नहीं होता। कोरोना काल में ही तेल के दाम क्रैश कर गए थे क्योंकि आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गयीं थीं, आवागमन बंद था और आर्थिक मंदी आ गयी थी।
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ऐसे में ओपेक और उनके सहयोगी देशों ने तेल उत्पादन में ऐतिहासिक कटौती कर दी लेकिन फिर भी कच्चे तेल के दाम बीस साल के सबसे निचले स्तर पर आ गए।
सबसे ख़राब उदहारण वेनेज़ुएला
तेल की राजनीति करने वाले देशों में एक सबसे ख़राब उदहारण वेनेज़ुएला का है। ये देश ओपेक का सदस्य है और दुनिया में सबसे सस्ता तेल यहीं पर बिकता है। आज की तारीख में वेनेज़ुएला में एल लीटर पेट्रोल 1 रुपये 45 पैसे का है। लेकिन इस देश की इकॉनमी का ये हाल है कि एक लीटर पेट्रोल खरीदना भी दूभर है।
बहरहाल, समझने वाली बात ये है कि पेट्रोल-डीजल के प्रोडक्शन और दाम से आम आदमी ताउम्र मुकाबला नहीं पायेगा। इसका एक ही समाधान है – पेट्रोल और डीजल का विकल्प जल्दी से जल्दी अपना लेना। यही करके तेल की ब्लैकमेलिंग से छुटकारा पाया जा सकता है।
नीलमणि लाल
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