Russia Ukraine Crisis: यूक्रेन के बाद अब दूसरों की बारी, सोवियत गौरव को बहाल करना चाहते हैं पुतिन

Russia Ukraine Crisis: यूक्रेन उन 15 गणराज्यों में से एक था जो 1991 में सोवियत संघ से अलग हो गये थे। 21 साल पहले रूस के राष्ट्रपति बनने पर व्लादिमीर पुतिन ने रूसी महानता को बहाल करने के अपने इरादे की घोषणा की थी।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Deepak Kumar
Update:2022-02-27 20:49 IST

व्लदीमिर पुतिन (तस्वीर साभार : सोशल मीडिया)

Russia Ukraine Crisis: रूस का यूक्रेन पर हमला (Russia Attack on Ukraine) दरअसल प्रेसिडेंट पुतिन (Russian President Vladimir Putin) की सोवियत गौरव को बहाल करने और पुनर्जीवित करने की पुरानी इच्छा का हिस्सा है। यूक्रेन (Ukraine) उन 15 गणराज्यों में से एक था जो 1991 में सोवियत संघ (Soviet Union) से अलग हो गये थे। लेकिन यूक्रेन को पुतिन ने कभी अलग देश माना ही नहीं था।

दरअसल, 21 साल पहले रूस के राष्ट्रपति बनने पर व्लादिमीर पुतिन ने रूसी महानता को बहाल करने के अपने इरादे की घोषणा की थी। सोवियत संघ के पतन को 20वीं शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी बताते हुए, पुतिन ने यूरोप और यूरेशिया में एक रूसी साम्राज्य को फिर से स्थापित करने के लिए एक प्रोजेक्ट पर धीरे धीरे आगे बढ़ना शुरू किया था।

पूर्व रूसी साम्राज्य की धरती पर सोवियत संघ (Soviet Union) की स्थापना की सौंवीं वर्षगांठ दिसंबर 2022 में पड़ रही है। जैसे हालात हैं उससे संकेत मिलता है कि पुतिन इस वर्षगाँठ को एक नए रूसी साम्राज्य की स्थापना के साथ मनाना चाहते हैं और इसके लिए उनके पीछे मिलिट्री की ताकत है।

दरअसल, रूसी साम्राज्य या सोवियत संघ की पुनर्स्थापना के अपने प्रोजेक्ट के तहत पुतिन ने रूसी सेना का पुनर्निर्माण, रूस के परमाणु शस्त्रागार का आधुनिकीकरण और विस्तार, रूसी खुफिया सेवाओं और गतिविधियों की मजबूती और विस्तार, रूसी मीडिया आउटलेट्स पर नियंत्रण, सरकारी उद्योगों की मजबूती पर फोकस किया गया। इसके अलावा पुतिन ने अपनी संयुक्त रूस पार्टी के किसी भी राजनीतिक विरोध को दबाना शुरू कर दिया। पुतिन ने रूस पर पूरी मजबूती से अपना कण्ट्रोल बनाया हुआ है। अब वह अपनी सीमाओं से परे जा कर अपने इरादे को मूर्त रूप देने में जुट गए हैं।

म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन और सशस्त्र बल संधि

शीत युद्ध के अंतिम वर्षों के दौरान यूरोप में पारंपरिक सशस्त्र बल (सीएफई) संधि को लागू किया गया। इस संधि को "यूरोपीय सुरक्षा की आधारशिला" के रूप में भी जाना जाता है। इस संधि का उद्देश्य तत्कालीन सोवियत संघ को नियंत्रण में रखना था ताकि वह अपनी भारीभरकम मौजूदगी से से यूरोप के अन्य देशों को हड़प न कर सके। 19 नवंबर, 1990 को हस्ताक्षरित संधि ने टैंकों, बख्तरबंद लड़ाकू वाहनों, भारी तोपखाने, लड़ाकू विमानों और हमले के हेलीकाप्टरों की संख्या पर एक समान सीमा निर्धारित कर दी। इससे यूरोप में पारंपरिक हथियारों में सोवियत संघ का पलड़ा बराबरी पर ला दिया गया। इसमें कहा गया था कि नाटो और वारसॉ संधि जो भी सेना और साजोसामान अटलांटिक महासागर और यूराल पर्वत के बीच तैनात कर सकते हैं उनकी संख्या सीमित रहेगी। हालांकि इस तरह के हमले का खतरा शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खत्म हो गया था लेकिन संधि के सदस्य देश चाहते थे कि रूस पर नियंत्रण बना रहे।

पुतिन ने नाटो की मिसाइल रक्षा प्रणाली का किया विरोध

2007 के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में राष्ट्रपति पुतिन ने अपने भाषण में घोषणा की थी कि रूस को मौजूदा यूरोपीय सुरक्षा ढांचा स्वीकार नहीं है। रूस पहले ही घोषणा कर चुका था कि वह यूरोप में 'पारंपरिक सशस्त्र बल संधि' (सीएफई) का पालन नहीं करेगा। उन्होंने नाटो की मिसाइल रक्षा प्रणाली का भी जोरदार विरोध किया जिसे पहले रूस के साथ साझेदारी में विकसित किया गया था। रूस ने जॉर्जिया और मोल्दोवा में अपनी सैन्य उपस्थिति के लिए मेजबान राष्ट्र की सहमति के सिद्धांत का सम्मान करने से इनकार कर दिया। यही नहीं, सेना के जमावड़े, सैन्य अभ्यास और पारदर्शिता पर वियना कन्वेंशन के नियमों की अनदेखी करना शुरू कर दिया। इसके बाद में रूस ने माध्यम रेंज और शॉर्टर-रेंज मिसाइल संधि का उल्लंघन किया।

विस्तार शुरू

रूस की क्षमताओं को बढ़ाने और पश्चिम की तुलना में एक मजबूत सैन्य उपस्थिति स्थापित करने के बाद पुतिन ने पूर्व सोवियत क्षेत्रों को समेटना शुरू किया है। पिछले दो वर्षों के भीतर उन्होंने कजाकिस्तान और बेलारूस की सुरक्षा और मीडिया पर कंट्रोल जमाया है। नागोर्नो-कराबाख में रूसी शांति सैनिकों की तैनाती की है, 2014 में क्रीमिया पर कब्जा जमाया है, 2008 में अबकाज़िया और दक्षिण ओसेशिया पर कब्ज़ा किया है जबकि ट्रांसनिस्ट्रिया में रूस की उपस्थिति पहले से बनी हुई थी। अब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है और यूक्रेन के भीतर दो क्षेत्रों को अलग राज्य की मान्यता दे दी है।

पिछले साल दिसंबर में रूस ने अमेरिका के समक्ष एक मसौदा संधि रखी है जिससे लगता है कि रूस 1975 में हुई हेलसिंकी संधि को ख़त्म करना चाहता है। हेलसिंकी संधि दरअसल, यूरोपियन सुरक्षा ढांचे के बारे में है। स्पष्ट है कि रूस हेलसिंकी संधि की बजाये यूरोप में एक ऐसी व्यवस्था चाहता है जिसमें पश्चिमी देशों और रूस के प्रभाव वाले क्षेत्र बाँट दिए जाएँ। रूस ने हेलसिंकी संधि के कई तत्वों को चुनौती दी है। मिसाल के तौर पर रूस नहीं चाहता कि देश अपने सुरक्षा गठबन्धनों के बारे में स्वतंत्र निर्णय लें, किसी के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न हो, ताकत का इस्तेमाल न करने का वादा न किया जाए, आदि। ये सब ऐसी बातें हैं जिनको अमेरिका और यूरोप साफ़ ठुकरा देंगे लेकिन सवाल ये है कि क्या पुतिन को इससे कोई फर्क पड़ता है? आने वाले महीनों और वर्षों में नाटो नेताओं के लिए इस नई वास्तविकता से निपटना एक बड़ी चुनौती होगी।

सोवियत संघ के 15 गणराज्य

1917 में रूस की बोल्शेविक क्रांति और तीन साल के गृहयुद्ध के बाद 15 गणराज्यों ने 1920 में यूएसएसआर (संयुक्त राज्य सोवियत गणराज्य) का गठन करने के लिए हाथ मिलाया था। ये 15 गणराज्य थे - अर्मेनिया अजरबैजान, बेलोरूसिया, एस्टोनिया, जॉर्जिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, मोल्दोवा, लातविया, लिथुआनिया, रूस, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान और यूक्रेन।

1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक सोवियत संघ की हैसियत अमेरिका के बराबर की एक ग्लोबल सुपर पावर की थी। दोनों दो सैन्य गठबंधनों का नेतृत्व कर रहे थे। अमेरिका के पास नाटो था जबकि रूस के पास वारसॉ संधि की ताकत थी। लेकिन अमेरिका के साथ लम्बे शीत युद्ध के बाद सोवियत सुप्रीमो गोर्बाचेव ने 1991 में सोवियत संघ को 15 मूल गणराज्यों में तोड़ने का काम कर दिया। ये कट्टर सोवियत समर्थकों को बहुत नागवार गुजरा जिसमें व्लादिमीर पुतिन भी शामिल थे।

केजीबी छोड़ने के बाद व्लादिमीर पुतिन ने एक पूर्व रूसी ताकतवर व्यक्ति बोरिस येल्तसिन से हाथ मिलाया और धीरे-धीरे सीधी चढ़ते हुए 1999 में प्रधानमंत्री बने। तब से वह रूस में शीर्ष पद पर हैं। इस सदी की शुरुआत में उन्होंने तत्कालीन सोवियत गणराज्यों के सीआईएस (कामनवेल्थ ऑफ़ इंडिपेंडेंट स्टेट्स) का गठन किया। लेकिन तीन बाल्टिक राज्य - लातविया, लिथुआनिया और एस्टोनिया इसमें शामिल नहीं हुए। यहां तक कि तुर्कमेनिस्तान और यूक्रेन ने भी ऐसा करने से इनकार कर दिया। अब आशंका बन रही है कि पुतिन का अगला निशाना एस्टोनिया, लाटविया और लिथुआनिया हो सकते हैं।

उदाहरण बेलारूस का

रूस के विस्तारवादी प्लान में बेलारूस का उदहारण भी देखा जाना चाहिए। सोवियत संघ से अलग हुए बेलारूस अब रूस का सबसे ख़ास करीबी है। यूक्रेन के खिलाफ रूस की चढ़ाई बेलारूस के खुले सहयोग से हुई है। दरअसल, बेलारूस के प्रेसिडेंट लुकाशेंको पर पुतिन ने बड़े एहसान किये हैं और उनको निजी संकट से बचाया है।

पुतिन और बेलारूस प्रेसिडेंट अलेक्जेंडर लुकाशेंको ने बीते 9 सितंबर को मास्को में मुलाकात की थी और 28 पॉइंट वाले एक समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते का उद्देश्य रूस और बेलारूस के विलय का मार्ग प्रशस्त करना। दरअसल, ये समझौता 1999 के प्लान का हिस्सा है जब लुकाशेंको और पूर्व रूसी प्रेसिडेंट बोरिस येल्तसिन ने बेलारूस और रूस का इस तरह विलय करने का समझौता किया था जिसके अनुसार, दोनों देशों का एक ध्वज, एक मुद्रा, एक न्यायपालिका, एक एकीकृत अर्थव्यवस्था और एक सेना का होना था। समझौते पर हस्ताक्षर तो हुए लेकिन उसे लागू नहीं किया गया और लुकाशेंको ने हाथ खींच लिए। उन्होंने रूस के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध के बावजूद विभिन्न यूरोपीय देशों और अमेरिका के साथ भी कामकाजी संबंध भी बनाए रखे।

लेकिन बेलारूस में अगस्त 2020 हुए चुनाव में लुकाशेंको पर व्यापक धांधली के आरोप लगे और लोग अभूतपूर्व रूप से सड़कों पर उतर आये। ऐसे में लुकाशेंको के बचाव में न यूरोपीय देश आये और न अमेरिका। सिर्फ रूस ही लुकाशेंको के समर्थन में आया। पुतिन ने घोषणा की कि वह बेलारूस में सेना भेजने को तैयार हैं। पुतिन ने लुकाशेंको की पूरी मदद दी और उसी का नतीजा था कि सितम्बर 2021 में दोनों नेताओं ने नए समझौते पर हस्ताक्षर किये। यानी अब बेलारूस पूरी तरह पुतिन की गिरफ्त में है। इसी तरह कजाकिस्तान में पिछले साल तेल और गैस की कीमतों को लेकर दंगे हुए। व्यापक हिंसा पर कण्ट्रोल करने के लिए पुतिन ने अपनी सेनायें वहां भेज दीं जो अभी तक वहां मौजूद हैं।

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