Taliban Government: अफगान में तालिबानी युग, जानिए कौन से देश दे सकते हैं तालिबान को समर्थन

Taliban Government: अफगानिस्तान पूरी तरह से तालिबान के हाथों में चले जाने के बाद अब तालिबानी सरकार को मान्यता को लेकर दुनियाभर के कई देशों ने प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है|

Newstrack :  Network
Update:2021-08-16 12:45 IST

तालिबान लड़ाके(Google)

Taliban Government: अफगानिस्तान में तालिबान का पूरी तरह से कंट्रोल हो गया है| इसके बाद बड़ा सवाल यह है कि क्या तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलेगी। वहीं, अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बनने से पहले ही दुनियाभर के कई देशों ने प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है, लेकिन सवाल तालिबान सरकार को मान्यता देने को लेकर उठ रहे हैं। ऐसे में कौन सा देश किस तरफ होगा, इसको जानने की कोशिश करते हैं।

अफगानिस्तान में तालिबानी युग का हो गया आगाज

पूरी दुनिया मौन होकर देखती रह गई और तालिबान ने काबुल पर भी शिकंजा कस लिया। अब अफगानिस्तान पूरी तरह से तालिबान के हाथों में चला गया है। राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करने के बाद तालिबान ने महल पर अपना झंडा भी फहरा दिया है। इसी के साथ मुल्क में तालिबानी युग का आगाज हो गया है, लेकिन अब बस औपचारिक एलान और तालिबानी सरकार बनना बाकी रह गया है।

तालिबान के पक्ष में ये इस्लामिक देश

पाकिस्तान

पाकिस्तान की ओर से अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बनने पर उसे मान्यता दी जा सकती है। तालिबान को मान्यता देने को लेकर पाकिस्तान आज बैठक करने जा रहा है। पाकिस्तान का कहना है कि तालिबान शांति से सत्ता में आया तो मान्यता देंगे। आपको यह भी बता दें कि तालिबान के साथ पाकिस्तान के काफी नजदीकी संबंध रहे हैं। पाकिस्तान तालिबान का सबसे अहम सहयोगी देश माना जाता है। अमेरिका से 'डील' करने में पाकिस्तान इन रिश्तों को इस्तेमाल करता रहा है। हालांकि तालिबान कई बार अपने ऊपर पाकिस्तान के प्रभाव को नकारता रहा है।

ईरान

वैसे तो शिया बहुल देश ईरान कट्टर सुन्नी तालिबान को लेकर हमेशा से चिंचित रहा है, मगर बीते महीनों में ईरान की ओर से तालिबान के साथ संबंध बेहतर करने की कोशिश की भी गई। पिछले महीने ही तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल तेहरान में ईरान के विदेश मंत्री से मिला था।

सऊदी अरब

इस्लामी दुनिया का बड़ा सुन्नी देश सऊदी अरब अफगानिस्तान को लेकर रणनीतिक खामोशी अख्तियार किए हुए है। मगर सऊदी अरब के अफगानिस्तान और पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक संबंध हैं। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, तालिबान के साथ सऊदी अरब ने संबंध बनाए रखे हैं। हालांकि 2018 में कतर में अफगान शांति वार्ता के बाद से सऊदी अरब दूरी बनाए हुए हैं। ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो 1980 के दशक में सऊदी ने सोवियत यूनियन के खिलाफ अफगान मुजाहिदीनों की खुलकर मदद की थी। लेकिन मौजूदा समय में सऊदी अरब ने इससे अपने आप को अलग रखा है।

कतर

मुस्लिम दुनिया का छोटा देश कतर तालिबान का गढ़ कहा जा सकता है। तालिबान का राजनीतिक दफ्तर कतर में ही है। अफगानिस्तान संकट में कतर की बड़ी भूमिका मानी जाती है। कतर ने ही तालिबान को पहली बार दुनिया से संपर्क करने के लिए जगह दी थी कतर ने अपनी जमीन पर तालिबान को अमेरिका से बातचीत करने के लिए ठिकाना उपलब्ध करवाया और सभी सहूलियतें दी थीं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो 2020 में कतर में तालिबान के साथ समझौते के तहत ही अमेरिका ने अफगानिस्तान से वापसी की है।

तुर्की

तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन इस समय पूरी दुनिया में इस्लामिक देशों के नेता बनने की जुगत में लगे हैं। रेसेप तैयप एर्दोगन एक सुन्नी मुसलमान हैं और तालिबान द्वारा भी इसी को मान्यता दी जाती है। इस समय पाकिस्तान के साथ तुर्की के नजदीकी संबंध हैं और पाकिस्तान के तालिबान के साथ हैं। ऐसे में तुर्की की भूमिका अफगानिस्तान में अहम हो सकती है।

ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान

इसके अलावा मध्य एशिया के देश उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान लगातार अपने पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान के हालात से प्रभावित होते रहे हैं। हाल ही में तुर्कमेनिस्तान ने तालिबान से संबंध मजबूत करने की कोशिश की। सीमा पर तालिबान का नियंत्रण मजबूत होने के बाद तुर्कमेनिस्तान ने उसके प्रतिनिधिमंडल को बातचीत के लिए बुलाया था। हालांकि अभी तक मध्य एशिया के इन देशों ने तालिबान को लेकर कोई टिप्पणी भी नहीं की।

ये अन्य देश किस तरफ

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने पर उसे मान्यता देने के इनकार किया है। अमेरिका का कहना है कि वह ताकत के दम पर बनी सरकार को मान्यता नहीं देगा। अफगानिस्तान को लेकर ब्रिटेन ने अभी तक अपना पत्ता नहीं खोला है। चीन की तरफ से अभी कोई बयान नहीं आया है, लेकिन ताबिलान के साथ उनकी बैठक के बाद ऐसा कहा जा सकता है कि ड्रैगन की झुकाव तालिबान की ओर रह सकता है। रूस ने भी तालिबान सरकार को मान्यता पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है और न ही हमारे देश भारत ने इस पर कुछ भी कहा है।

कब हुई तालिबान की शुरूआत

पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था| उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ| माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की| इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था|  जल्दी ही तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पश्तून इलाके में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया कानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे थे| इसी दौरान दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव तेजी से बढ़ा| सितंबर, 1995 में उन्होंने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा किया| इसके ठीक एक साल बाद तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा जमाया|

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