Rani Lakshmibai History: जंग-ए -आजादी के वो दो बच्चे जिन्हें हमने भुला दिया, देखें Y-Factor...

इन पर एन केलकर ने एक किताब लिखी है- इतिहासाच्‍य सहली।

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2021-08-09 19:47 IST

Rani Lakshmibai History: आजादी के दिनों की दो बच्‍चों की तस्‍वीरें जरूर हर उस शख्‍स को याद होगी, जिसे जंग-ए-आजादी की थोड़ी बहुत भी जानकारी होगी। एक तस्‍वीर है नमक सत्‍याग्रह के समय राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी की लाठी पकड़कर चलने वाले लड़के की। दूसरी तस्‍वीर है युद्ध के समय वीरांगना लक्ष्‍मीबाई की पीठ पर बंधे बच्‍चे की।

पहली तस्‍वीर वाला बच्‍चे कनु रामदास गांधी ने अपने अंतिम दिन बेहद मुफलिसी में गुजारे। दूसरी तस्‍वीर वाला बच्‍चा दामोदर राव भी मुफलिसी और गुमनामी में जीता हुआ खत्‍म हो गया। कनु रामदास गांधी ने नवंबर 2016 में अंतिम सांस ली। राधाकृष्‍ण मंदिर की सहायता से उन्‍हें इलाज के लिए ज्‍योति अस्‍पताल में भर्ती कराया गया। उन्‍हें बचाया नहीं जा सका। कनु गांधी ने 25 साल तक नासा में सेवा की। इनके कोई संतान नहीं है। 2014 में स्‍वदेश लौटे। भारत लौटने के बाद कनु गांधी अपनी पत्‍नी शिवा लक्ष्‍मी गांधी को लेकर भटकते रहे। क्‍योंकि उनके पास भारत में कोई ठिकाना नहीं था। शिवा लक्ष्‍मी ने इंग्‍लैंड से पीएचडी की थी। उनके पास अमरीकी नागरिकता थी। फिर भी अंतिम दिनों के लिए भारत को चुना। आश्रम और धर्मशालाओं में अभी भी उनकी जिंदगी की बसर हो रही है।

कुछ दिन उन्‍होंने जरूर दिल्‍ली के एक गांव कादीपुर में हरपाल राणा के घर गुजारे। कनु गांधी के बचपन के मित्र धीमंत बधिया हैं। जो इस दंपति से शुरू से जुड़े हैं। वह अहमदाबाद के रहने वाले हैं। 90 साल की शिवा लक्ष्‍मी सुन नहीं सकतीं। आधा शरीर लकवा ग्रस्‍त हो गया है। वृद्धावस्‍था की तमाम बीमारियों से ग्रसित हैं। हम महात्‍मा गांधी के बकरी के रस्‍सी, धोती, लाठी और आश्रमों को संजों कर रखे हुए हैं। लेकिन उनकी जीवंत चीजें हमें नहीं भा रही हैं। कनु गांधी और शिवा लक्ष्‍मी के बुरे दिनों में कोई भी नेता उन्‍हें देखने, मिलने नहीं गया। किसी ने उनकी सुध नहीं ली।

दूसरे बच्‍चे दामोदर राव की गति ऐसी ही रही। दामोदर राव का असली नाम आनंद राव था। इन पर एन केलकर ने एक किताब लिखी है- इतिहासाच्‍य सहली। इसे हिंदी में इतिहास की सैर कहेंगे। इस किताब में दामोदर राव की कहानी उनकी जुबानी दर्ज है। नेवलकर राजपरिवार में पैदा दामोदर राव को ज्‍योति‍षी ने बताया कि उनकी कुंडली में राजयोग है। वह राजा बनेंगे। पर यह बात उनकी जिंदगी में बहुत दुर्भाग्‍यपूर्ण ढंग से सच साबित हुई। तीन साल की उम्र में महाराजा ने उन्‍हें गोद लिया। गोद लेने की औपचारिक स्‍वीकृति से पहले वह चल बसे। मां साहेब महारानी लक्ष्‍मीबाई ने कलकत्‍ता में लार्ड डलहौजी को यह संदेश भेजा कि दामोदर राव को वारिस मान लिया जाए। पर डलहौजी ने अस्‍वीकार कर दिया। डलहौजी का आदेश था कि झांसी को ब्रिटिश राज्‍य में मिला लिया जाए। महारानी को पांच हजार सालाना पेंशन दी जाए। महारानी के बाद दामोदर राव का हक खजाने पर होगा। पर झांसी का राज नहीं मिलेगा। अंग्रेजों के खजाने में झांसी के महाराज के सात लाख रूपये जमा थे। जो बालिग होने के बाद दामोदर राव को मिलने थे। झांसी की रानी के शहीद होने के बाद साठ विश्‍वासपात्र लोग बच गए थे। इसमें नन्‍हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने उनकी जिम्‍मेदारी उठाई। बाइस घोड़े और साठ ऊंटों के साथ झांसी से बुंदेलखंड के चंदेरी की ओर चल पड़े। उन्‍हें किसी गांव में शरण नहीं मिली। जंगलों में रहे। बारिश में गांव के मुखिया ने खाना दिया। ग्‍वालियर छोड़ते समय उन लोगों के पास साठ हजार रुपये थे, जो खत्‍म हो गए थे। इस गांव में दामोदर राव की तबियत ऐसी खराब हुई कि किसी तरह बच सके।

ग्‍वालियर रियासत के सिपरी गांव के लोगों ने उन्‍हें पहचान लिया। यह सिपरी गांव आज शिवपुरी है। गांव के लोगों ने उनहें बंद रखा। तथा झालर पाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेजा। उनके साथ के कई लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया। नन्‍हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट मिस्‍टर फ्लिंक से बात की। उन्‍होंने इंदौर में कर्नल सर रिचर्ड शेक्‍सपीयर से मिलने भेजा। नतीजतन 5 मई, 1860 को दामोदर राव को इंदौर में दस हजार सालाना की पेंशन ब्रिटिश हुकूमत ने मान ली। लेकिन केवल सात लोग उनके साथ रह सकते थे। ब्रिटिश सरकार ने उनके पिता के सात लाख रूपये भी नहीं लौटाए।

पांच मई 1860 को इंदौर पहुंचे दामोदर राव नेवालकर की परवरिश उनकी असली मां ने की। विवाह हुआ, कुछ ही दिन बाद पत्‍नी का देहांत हुआ। दूसरी शादी हुई,‍ जिससे एक बेटा हुआ। 28 मई 1906 को दामोदर राव ने इंदौर में अंतिम सांस ली। दामोदर राव चित्रकार थे। अपनी मां की याद में कई चित्र बनाए। उनका बेटा लक्ष्‍मण राव और कृष्‍ण राव इंदौर न्‍यायालय में टाइपिस्‍ट रहे। उनके वंशज इंदौर के धन्‍वंतरि नगर में रहते हैं, जो नाम के साथ झांसी वाले लिखा करते हैं। लेकिन इनसे भी मिलने कोई नेता, कोई नामचीन नहीं जाता।

रानी झांसी की स्‍मृतियों को भी सहेजने में हम लगातार जुटे रहते हैं। लेकिन अगर दामोदर राव और उनके वंशजों, महात्‍मा गांधी और उनके वंशजों को हम वह सम्‍मान, सुरक्षा और संरक्षा मुहैया करा पाते, तो उन्‍हें अपने पूर्वजों की शहादत और चारित्रिक ताकत पता चलती। अगर ये लोग भारत की जनता में जाकर अपने पुरखों की बात करते तो शायद हम एक नई संस्‍कृति को स्‍थापित करने की दिशा में कदम बढ़ा सकते थे। पर हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं क्‍योंकि हमारे पूर्वज से हम कटे जा रहे हैं।

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