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किसान आंदोलन: सड़क पर अन्नदाता, अनदेखा न करें सरकार
किसानों को मात्र एक आश्वासन चाहिए कि उनके उपज की खरीद एमएसपी से कम पर नहीं होगी। इसके लिए सरकार तैयार नहीं है। सच बात तो यह है कि किसानों को पुरातनकाल से छला और सिर्फ छला जा रहा है। किसान खेती इसलिए करता है क्योंकि वह नौकरी नहीं कर सकता।
रामकृष्ण वाजपेयी
संसद द्वारा पारित तीन कृषि बिलों के खिलाफ किसान आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों से होता हुआ दिल्ली में जारी है। किसानों की एक मांग है एमएसपी पर कृषि उपज की खरीद सुनिश्चित हो। लेकिन सरकार उनकी इस मांग की अनसुनी कर रही है। दूसरी बातों पर बात को आगे बढ़ाए जा रही है। दिल्ली में किसानों से बात करने के लिए आगे आने के बजाय यहां वहां , जहां तहां , सब कहीं किसानों के लिए क्या किया , क्यों किया , यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बता रहे हैं । पर एमएसपी पर कुछ नहीं बोल रहे।
किसानों को पुरातनकाल से छला और सिर्फ छला जा रहा है
जबकि किसानों को मात्र एक आश्वासन चाहिए कि उनके उपज की खरीद एमएसपी से कम पर नहीं होगी। इसके लिए सरकार तैयार नहीं है। सच बात तो यह है कि किसानों को पुरातनकाल से छला और सिर्फ छला जा रहा है। किसान खेती इसलिए करता है क्योंकि वह नौकरी नहीं कर सकता। सरकारें किसान की इसी मजबूरी का फायदा उठाती रही हैं।
मनरेगा मजदूरी के हिसाब से ही अगर किसान की मेहनत को आंकें तो 200 रुपये प्रति हेड के हिसाब से एक किसान परिवार की दिहाडी पांच आदमी के परिवार के हिसाब से एक हजार रुपये प्रतिदिन हो जाएगी। इसके अलावा खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई के खर्च को भी यदि जोड़ लिया जाए तो क्या किसान को उसकी तैयार उपज का आधा मेहनताना भी मिल पाता है।
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दलाल, औने पौने दाम पर फसल को खरीद लेते हैं
किसान जब अपनी उपज बेचने जाता है तो सरकारी कांटे पर तमाम कमियां निकालकर उसे लौटा दिया जाता है। वहीं मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के दलाल घात लगाए बैठे होते हैं, जो औने पौने दाम पर उसी उपज को खरीद लेते हैं । फिर यही उपज उसी सरकारी कांटे पर तुल जाती है । इसमें कोई कमी नहीं मिलती।
मोदी जी को पता नहीं है कि किसानों को कृषि कार्यों के लिए मिलने वाले ऋण की ब्याज दर सबसे ज्यादा है । जबकि बाकी कामों के लिए सस्ते ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध रहता है।
किसानों के बीच एक चिंता यह भी
ऐसे में किसान की चिंता जायज है कि प्रस्तावित किसान व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 (एफपीटीसी) , कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) मंडियों को अप्रासंगिक बना देगा। ये चिंताएं वैध हैं, उन राज्यों के अनुभव को देखते हुए जिन्होंने एपीएमसी मंडियों को कमजोर या समाप्त कर दिया है।
पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसानों के बीच एक चिंता यह भी है कि नए कानून से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) आधारित संचालन का दायरा और कम हो जाएगा। ऐसे में सरकार से एमएसपी खरीद की गारंटी देने की मांग में कुछ भी गलत नहीं है।
किसानों की आशंका एफसीआई द्वारा उन व्यापारियों से अनाज खरीदने से उपजी है, जिन्होंने इसे खुले बाजारों से सस्ता खरीदा होगा, जहां एपीएमसी मंडियों के विपरीत कमीशन और करों की कोई लेवी नहीं होगी। यह मांग उन राज्यों में जोर पकड़ रही जो एमएसपी-आधारित खरीद में शासन के सबसे बड़े लाभार्थी हैं।
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अपनी फसल दलालों को बेचने पर क्यों मजबूर है किसान?
तो एमएसपी आधारित खरीद की मांग कितनी उचित है? यह एक अलग सवाल है । यूपी का उदाहरण देखिये सरकारी फार्म हाउस से गन्ना की कीमत 360 रुपये है जबकि किसान के गन्ने की खरीद की कीमत 320 रुपये। हालांकि यह ठीक नहीं है । लेकिन इससे यही लगता है कि सरकार किसान को इतना भी नहीं देना चाहती।
यूपी में भी सरकारी कांटे पर किसान का गन्ना नहीं तुलता । उसे दलालों को बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। गन्ना किसानों को भुगतान न होना एक बड़ी समस्या अलग है।
एमएसपी खरीद ने किसानों को बेहतर कीमतों का एहसास करने में मदद की है, कम से कम उन फसलों के लिए जो सरकार द्वारा खरीदी जाती हैं। ये मुख्य रूप से गेहूं और चावल हैं, भले ही 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की गई है। अन्य फसलों की खरीद महत्वहीन हैं।
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जानबूझकर बाजार में कीमतें गिरा दी जाती हैं
गारंटीकृत एमएसपी की मांग तभी उपयोगी है जब इसी पर खरीद हो। अन्यथा, ऐसी गारंटी निरर्थक है। किसान की फसल जब तैयार होती है तो जानबूझकर बाजार में कीमतें गिरा दी जाती हैं। जिससे किसान के लिए उसकी फसल घाटे का सौदा बन जाती है। ऐसा लग रहा है कि सरकार जानबूझकर किसानों को खेती से हतोत्साहित कर रही है। यदि यही हालात चले तो आने वाले समय में किसान खेती से तौबा कर ले तो कोई आश्चर्य नहीं।
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