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सिंधु घाटी सभ्यता का ऐतिहासिक दस्तावेज रोपड़

कहते हैं कि सभ्यता और संस्कृति कभी मरती नहीं है। पर इतना जरूर है कि वक्त की मोटी परत के नीचे जरूर दब जाती है और उसके उपर एक के बाद एक नई सभ्यता व संस्कृति जन्म लेती है, लेकिन जब वक्त के गर्त में दबी सदियों पुरानी सभ्यता और संस्कृति से धूल धूसरीत चादर हटती है तो दुनिया उसे कौतुहल भरी नजरों से देखती है।

Roshni Khan
Published on: 17 Feb 2020 10:40 AM IST
सिंधु घाटी सभ्यता का ऐतिहासिक दस्तावेज रोपड़
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सिंधु घाटी सभ्यता का ऐतिहासिक दस्तावेज रोपड़

दुर्गेश पार्थसारथी

रोपड़ (पंजाब): कहते हैं कि सभ्यता और संस्कृति कभी मरती नहीं है। पर इतना जरूर है कि वक्त की मोटी परत के नीचे जरूर दब जाती है और उसके उपर एक के बाद एक नई सभ्यता व संस्कृति जन्म लेती है, लेकिन जब वक्त के गर्त में दबी सदियों पुरानी सभ्यता और संस्कृति से धूल धूसरीत चादर हटती है तो दुनिया उसे कौतुहल भरी नजरों से देखती है। जो आगे चल कर अनुसंधान व अन्वेषण का केंद्र बनती है। जी हां हम बात कर रहे हैं रोपड यानी वर्तमान के रूप नगर की।

चंडीगढ. से लगभग 40 किमी अमृतसर हाईवे पर सतलुज दरिया के किनारे प्राकृतिक सुंदरता से अछादित शिवालिक पर्वतमाला की तलहटी में बसा रूपनगर अपनी सुंदरता के साथ-साथ अपनी आंचल में सदियों पुराना इतिहास समेटे हुए है।

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रोपड़ में हुआ था सिख- एग्‍लो समझौता

इस नगर का संबंध जहां शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह और तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम वैटिंक के बीच अक्‍टूबर 1831 में हुए ऐतिहासिक समझौते के साथ रहा है, वहीं यह हड.प्पा कालीन संस्कृति का केंद्र रहा है। यहां सिथत पुरातात्विक महत्व के तीन टिलों की खोज 1950 ई में प्रो. बृजवासी लाल ने की थी। इसके दो साल बाद 1952-55 के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के डा. यज्ञदत्त शर्मा के तत्वावधान में उत्खनन कार्य किया गया। कहा जाता है कि स्वतंत्र भारत की यह पहली पुरातात्वीक खुदाई थी।

खुदाई से प्राप्त अवशेषों के आधार पर यहां से महत्वपूर्ण सांस्कृतिक काल प्रकाश में आए, जिन्‍हें पुरातत्ववेत्ताओं ने छह कालों में विभक्त किया है। पहला हड़प्पा कालीन संस्कृति लगभग 2000-1400, दूसरा चित्रित धूसर मृद्भांडीय संस्कृति ई.पूर्व 1100 से 700, उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभांडीय संस्कृति, भगभग ई.र्पू.600-200, चैथा काल प्रारंभिक ऐतिहासिक काल लगभग 200 ई.पूर्व से 600, पांचवा काल प्रारंभिक मध्यकाल लगभग 700 से 1200 ई. व छठवां मध्यकाल 1200 से 1700 ई. तक।

2000 ईसा पूर्व बसी थी पहली मानव बस्‍ती

रोपड के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं का मानाना है कि रूपनगर में पहली बस्ती हड़प्पा संस्कृति के लोगों द्वारा 2000 ई पूर्व में बसाई गई थी। यहां की खुदाई से संस्कृति के चार आवासीय चरण के साक्ष्य मिले हैं, जिनके निर्माण में कच्ची ईटों, कंकड., पत्थर तथा मिट्टी के गारे का प्रयोग किया गया है। कुछ पक्की ईटों के प्रामण भी मिले हैं।

खुदाई से मिले मिट्टी और कांसे के बर्तन व अस्थिपिंजर

मृदभांडीय परंपरा के आधार पर इस काल को दो उप कालों में बांटा गया है। निचले स्तर के जमाव से पूर्व हड़प्पा काल के मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) मिले हैं जो कालीबांगा से मिले अवशेषों से मिलते हैं। यहां से घड़े जिनकी गर्दन पर चौड़ी काली पटृटी का चिऋण है, बहुतायत में मिलते हैं। सफेद चित्र वाले काले और लाल मिट्टी के बर्तनों के भी कुछ टुकड़े भी यहां की खुदाई से मिले हैं।

इसके अतिरिक्त यहां से जो प्रमुख रूप से अवशेष मिले हैं उनमें कांसे का बर्तन व कुल्‍हाड़ी, चूडि.यां, सेलखड़ी व उपरत्नों के मनके आदि शामिल हैं। हड़प्पा काल के मृदभांड, बाड़ा मृदभांड के साथ मिलते हैं, इनके मुख्य आकार गोबलेट, तश्तरी, संग्रह-पात्र, घुंडीवाले ढक्कन, छेद वाले बर्तन हैं। इन सबके उपर ज्यामिति आकृतियां, फूल-पत्ती, पशु-पक्षियों के चित्र बने हैं।

कांसे के भाले, तीर और कब्र भी मिली खुदाई से

उल्लेखनीय पुरावशेषों में सेलखड़ी की मुद्रा, कांसे के भाले का सिरा, तीर का सिरा तथा उस्तरा आदि शामिल है। रोपड़ के उत्तरी टीले के पश्चिम में छोटे टीले पर हड़प्पा काल की कब्रें मिलती हैं। इन कब्रों में मानव कंकाल सीधे, उत्तर-दक्षिण की दिशा में षवाधान की वस्तुओं का मिट्टी के साथ मिलते हैं।

दूसरे काल की खुदाई से मिले अवशेषों के आधार पर इतिहासकारों का मानना है कि एक लंबे अंतराल के बाद चित्रित धूसर मृदभांडीय परंपरा के संवाहक यहां आकर बसे होंगे।

इतिहासकारों का अनुमान, पशुपालन रहा होगा व्‍यवसाय

इतिहासकारों का मानना है कि यहां के लोगों का जिविकोपार्जन का मुख्य साधन खेती और पशुपालन रहा होगा। इसके आलावा खुदाई से मिली महत्वपूर्ण वस्तुओं में मिट्टी की दीवों के अवशेष, बांस की खपचियों के निशानयुक्त जली मिट्टी के टुकड़े हैं जो घासफूस की झोपडियां बनाए जाने की ओर इंगित करती हैं। इस संस्कृति की विशिष्ट मृदभांडीय परंपरा उल्लेखनीय है। जिससे इस संस्कृति को नामांकित किया गया है। इन विशिष्ट मृदभांडों को बनाने के लिए बारीक व गंथी मिटृटी को एक समान आंच पर इस तरह पकाया जाता था कि वे धूसर रंग के हो जाते थे। मुख्य आकारों में उथली थाली व कटोरे हैं।

स्‍वास्तिक के आकार वाले बर्तन भी मिले पुरातत्‍ववेत्‍ताओं को

इन बर्तनों पर विभिन्न आकृतियों के अलावा स्वास्तिक बना हुआ है। ऐसे ही स्वास्तिक के निशान हड.प्पा व मोहजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। इस काल में सबसे पहले लोहे का प्रयोग प्रकाश में आया जिनमें बाणाग्र, कील आदि मुख्य हैं। जबकि ताबें व कांसे का प्रयोग पहले की तरह होता रहा। अन्य पुरावशेषों में उपरत्नों मृड़मय, शंख, शीशे और हडि्डयों की माला, चुडि़यां, मिट्टी के खिलौने आदि मुख्य हैं। यह उल्लेख करने योग्य है कि चित्रित धूसर मिट्टी के बर्तन महाभारत से संबंधित विभिन्न स्थलों जैसे पानीपत, सोनीपत, तिलपत, बागपत व इंद्रप्रस्थ से प्राप्त हुए हैं। चित्रित धूसर मृदभांड परंपरा से संबंधित अन्य स्थल हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, संकिशा आदि से भी जुड़ा है।

महाजनपदों के उदय के साक्ष्‍य भी मिले रोपड़ की खुदाई से

खुदाई से मिले कृष्ण मार्जित मृद्भांडों का प्रारंभ व अंत तीसरे काल की सीमा को बांधता है। दूसरे शहरीकरण का यह काल महाजनपदों के उदय का साक्षी है, जिनमें व्यापर व वाणिज्य के क्षेत्र में व्यापक उन्नति दिखाई देती है।

चांदी और तांबे के सिक्‍के थे चलन में

खुदाई से मिले तथ्यों के आधार पर यह पता चलता है कि लेनदेन के क्षेत्र में चांदी व तांबे के ढलुवे आहत सिक्कों का प्रयोग मिलता है। जबकि मकानों के निर्माण में कंकड़ पत्थर, कच्ची और पकी ईंटों का प्रयोग मिलता है। पकी ईंटों से बने अंडाकरार तालाब के प्रमाण उल्लेखनीय हैं। उत्तरी कृष्णमार्जित मिट्टी के बर्तनों के मुख्य आकार थाली, कटोरे, अंदर की ओर झुके किनारे वाले गोबलेट, ढक्कन, बिना किनारे की हांडियों का भी प्रयोग इस काल के लोग बहुतायत में करते थे।

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हड्डी एवं हाथी दांत की बनी वस्‍तुओं का होता था प्रयोग

तीसरे काल खुदाई से मिले सबसे महत्वपूर्ण पुरावशेषों में एक पत्थर का चक्र मिला है, जिसमें मानव आकृतियां बनी हुई हैं। इसके अलावा इस काल की हड्डी एवं हाथी दांत से बने प्रसाधन सामान जैसे कंघी, हेयर-पिन, अंजन-षलाका और उत्र्कीर्ण हत्था शामिल है। हाथी दांत की एक मुद्रा में मौर्य कालीन ब्राह्मी लिपि कुछ लिखा हुआ है। सेलखड़ी की एक मंजूषा भी मिली है। इसके अलावा खुदाई से प्राप्त अन्य पुरावशेशों में गाडि.यां, पशु, पक्षी एवं मानव मूर्तियां, मनके आदि शामिल हैं।

मूर्ती बनाने के सांचे व इंडो-ग्रीक सिक्‍के भी मिले खुदाई

चैथे काल की संस्कृति यानि ईपूर्व 200 के मिले अवशेष बताते हैं कि काल में कलां एवं उद्योग के क्षेत्र में एक नये परिवर्तन की शुरुआत हुई; लगभग 800 साल के इस काल को इतिहासकार चार उपकालों क्रमः शुंग, शक-कुषाण, गुप्त व गुप्तोत्तर काल में बांटते हैं। इस युग की शुरुआत शुंगकाल से होती है। यक्ष-यक्षणियों की मिट्टी की मूर्तियां उनके धार्मिक विश्वास के विषय में प्रामण प्रस्तुत करती हैं। रोपड. के इस टीले की खुदाई से मूर्ति बनाने वाला एक मिट्टी का सांचा भी मिला है। यहां से मिले महत्वपूर्ण अवशेषों में इंडिको-ग्रीक सिक्के और एटियाल सिजस तथा सोटर मेगास एवं अपोलोदोतस द्वितिय के सिक्कों के सांचों का मिलना तत्कालीन भारतीय शासकों के विदेशी संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।

जनेऊ पहने ब्राह्मण की मूर्ती भी बताती है रोपड़ की प्राचीनता

इसके अतिरिक्त जनेऊ पहने एक ब्राह्मण के कांसे मूर्ति, कडफिसिस, कनिष्‍क, हुविष्‍क, वासुदेव तथा उत्तर कुषाण कालीन शासकों के सिक्के कुषाण काल के प्राप्त महत्वपूर्ण पुरावशेषों में से एक हैं, यही नहीं यहां से मथुरा आदि के स्थानीय शासकों के सिक्के भी मिले हैं, जो यह बताते हैं कि यहां के लोगों का संबंध स्थानिय लोगों के अलावा विदेशों से भी रहा है।

चादी की तस्‍तरी और 660 सोने के सिक्‍के भी मिले खुदाई से

रोपड़ की खुदाई से इतिहासकारों को मिले पुरावशेषों में कला और संस्कृति का स्वर्णयुग कहे जाने वाले गुप्तकालीन अवशेषों में पत्थर के फलक, पशु व पक्षी के मिश्रित अंकन वाली तांबे तश्तरी, धार्मिक प्रयोजन में प्रयोग होने वाले चांदी के तीन पात्र और कला वं सौंदर्य की दृष्टि से उत्कृष्ट, वीणा बजाती महिला की मिट्टी की मूर्ति महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त चंद्रगुप्त-कुमार देवी प्रकार के 660 सोने के सिक्कों से भारा एक पात्र भी इतिहासकारों को मिला था। इनमें कुषाण शासकों से गुप्तोत्तरकालीन शासकों के सिक्के शामिल हैं।

हुणों के आक्रमण में नष्‍ट हो गया हड़प्‍पाकालीन नगर

रोपड़ के चिन्हित टिले की खुदाई के दौरान इतिहासकारों को पांचवे काले के जो अवशेष मिले हैं उनके आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि चीनी आक्रमणकारी हूणों के आक्रमण के दौरान यह लगभग पूरी तरह से उजड़ गया। लगभग एक शताब्दी तक वीरान रहने के बाद यह एक बार फिर आबाद हुआ। और इस बार सतलुज दरिया के किनारे स्थित नगर के दक्षिणि भाग को चुना गया। इस नगर का अधिकांश भाग वर्तमान में आबद रोपड़ नगर के नीचे दबा हुआ है। यहां के उत्खनन से आठवीं व 10वीं शती की पकी ईंटों की संरचनाओं के अलावा इस काल के महत्वपूर्ण पुरावशेष प्रकाश में आए हैं।

1320 ये 1526ई.वी.के मुगल शासकों के सिक्‍के भी मिले खुदाई में

खुदाई का पहले चरण में मिले अवशेष यानि आठवां काल के अवशेषों में बहुरंगी चमकदार मिट्टी के बर्तन, लखोरी ईंटों की संरचनाएं मिली हैं, उपरी स्तर से मुस्लिम शासकों, जिनमें मुबारक शाह 1316 से 1320 ई. व इब्राहिम लोधी द्वितीय 1517-1526 ई. के सिक्के मिले हैं।

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पर्यटकों व इतिहाकारों को लुभाता है रोपड़ की प्राकृतिक संपदा

ऐतिहासिक व प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण रोपड पर्यटकों व इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण व कौतुहल का केंद्र है। यहां आने से जहां मन को शांति मिलती हैं वहीं आगंतुकों को अपने गौरवमयी इतिहास के रू-ब-रू होने का मौका भी। एक तरह से कहें तो रोपड़ नगर के पास से सतलुज दरिया इस तरह बहती है जैसे भगवान शंकर की नगरी काशी की पांव पखारती गंगा। कलकल और निश्छल बहती सतलुज रोपड़ की सदियों पुरानी सभ्यता की गवाह रही है। मनचले हवाओं के चुंबन से इठलाती सतलुज की जलधारा ऐसे लगती है जैसे बाहें पसारे सैलानियों को अपनी ओर बुला रही हो।



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