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नए अंदाज में रेलवे
मोदी कैबिनेट ने हाल ही में भारतीय रेलवे को कंट्रोल करने वाले रेलवे बोर्ड को 'स्लिम' करने को मंजूरी दी है जिसके बाद अब रेलवे बोर्ड में नौ की जगह सिर्फ पांच सदस्य होंगे। कैबिनेट ने एक और बड़ा फैसला किया है कि रेलवे अधिकारियों के समस्त केंद्रीय सेवा कैडरों का विलय करके सिर्फ एक कैडर कर दिया जायेगा।
नीलमणि लाल
लखनऊ: मोदी कैबिनेट ने हाल ही में भारतीय रेलवे को कंट्रोल करने वाले रेलवे बोर्ड को 'स्लिम' करने को मंजूरी दी है जिसके बाद अब रेलवे बोर्ड में नौ की जगह सिर्फ पांच सदस्य होंगे। कैबिनेट ने एक और बड़ा फैसला किया है कि रेलवे अधिकारियों के समस्त केंद्रीय सेवा कैडरों का विलय करके सिर्फ एक कैडर कर दिया जायेगा जिसका नाम होगा इंडियन रेलवे मैनेजमेंट सर्विस (आईआरएमएस)। अब कोई भी योग्य अधिकारी रेलवे बोर्ड के सदस्य समेत किसी भी पद पर पोस्ट किया जा सकेगा। चूंकि सब अधिकारी आईआरएमएस के अधीन होंगे सो किसी भी तरह की ट्रेनिंग या विशेषज्ञता का कोई पैमाना नहीं रहेगा।
पांच सदस्यीय बोर्ड
रेलरे बोर्ड के पांच सदस्य और एक चेयरमैन या सीईओ होगा। ये सदस्य इन्फ्रास्ट्रक्चर, फाइनेंस, रोलिंग स्टॉक, ट्रैक एंड ऑपरेशंस तथा बिजेनस डेवलेपमेंट का काम देखेंगे। संबंधित इंडस्ट्री के विशेषज्ञों को बतौर स्वतंत्र सदस्य रखा जायेगा। ऐसे स्वतंत्र सदस्य कम से कम 30 साल के अनुभव वाले होंगे। बोर्ड में ये गैर-कार्यकारी सदस्य होंगे और सिर्फ बैठकों में ही हिस्सा लेंगे। आईआरएमएस बनाने के फैसले का रेलवे अधिकारियों का एक वर्ग विरोध कर रहा है। इनका कहना है कि इससे उनके करिअर चौपट हो जाएंगे।
क्या है वर्तमान व्यवस्था
भारतीय रेलवे का प्रशासन अधिकारियों के समूह द्वारा संचालित होता है। इन अधिकारियों में इंजीनियर और गैर इंजीनियर, दोनों होते हैं। इंजीनियरों की नियुक्ति इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस परीक्षा के जरिए होती है और गैर इंजीनियर अधिकारी सिविल सेवा परीक्षा के जरिए आते हैं। भारतीय रेलवे में गैर इंजीनियर अधिकारी इंडियन रेलवे ट्रैफिक सर्विस (आईआरटीएस), इंडियन रेलवे एकाउंट्स सर्विस (आईआरएएस) और इंडियन रेलवे पर्सनल सर्विस (आईआरपीएस) में तैनात होते हैं। जबकि इंजीनियर अधिकारी पांच तकनीकी सेवा कैडरों में रखे जाते हैं-इंडियन रेलवे सर्विस ऑफ इंजीनियर्स (आईआरएसई), इंडियन रेलवे सर्विस ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर्स (आईआरएसएमई), इंडियन रेलवे सर्विस ऑफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर्स (आईआरएसईई), इंडियन रेलवे सर्विस ऑफ सिग्नल इंजीनियर्स (आईआरएसएसई) और इंडियन रेलवे स्टोर्स सर्विस (आईआरएसएस)।
1950 तक रेलवे का सिस्टम सिर्फ तीन मुख्य धाराओं- ट्रैफिक, सिविल इंजीनियरिंग और मैकेनिकल से आए अधिकारियों द्वारा संचालित होता था। अन्य स्ट्रीम कालांतर में जुड़ती गईं।
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बदलाव की जरूरत क्यों?
सरकार का कहना है कि विभागों के बीच की प्रतिद्वंदिता के कारण दशकों से रेलवे के विकास में बाधा आ रही है। सरकार इस प्रतिद्वंदिता को खत्म करना चाहती है। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि रेलवे में विभाग 'खलिहान' की तरह काम करते हैं। 2015 में बिबेक देबरॉय कमेटी समेत अनेक कमेटियों ने अपनी राय जाहिर की है कि रेलवे के सिस्टम में सबसे बड़ी समस्या 'विभागवाद' की है। ज्यादातर कमेटियों ने कहा है कि अलग अलग कैडर या सेवाओं के विलय से इस समस्या का समाधान हो सकता है। देबरॉय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सभी सेवाओं का विलय कर दो सेवाएं- तकनीकी और लॉजिस्टक्स बनाने की अनुशंसा की थी। रिपोर्ट में ये नहीं बताया गया था कि वर्तमान अधिकारियों का विलय कैसे किया जाए।
अब आईआरएमएस अधिकारियों के चयन के लिए संघ लोक सेवा आयोग के तहत 2021 में अलग परीक्षा आयोजित करने का प्रस्ताव है। यानी अगले साल से रेलवे अधिकारियों की भर्ती के लिए सिविल सेवा परीक्षा से एकदम अलग परीक्षा होगी। जिनको लेवे में जाना है वह अभ्यर्थी इसमें बैठेंगे।
अधिकारियों का विरोध
रेलवे के वर्तमान अधिकारियों का विरोध इस प्रस्ताव के बाद शुरू हुआ कि आठ सेवाओं (पांच तकनीकी और तीन गैर तकनीकी) के समस्त 8400 अधिकारियों को एक सेवा में विलय करके एक कॉमन वरिष्ठता सूची बनेगी, सभी पदों का एक जनरल पूल, खासकर प्रबंधन के उच्चपदों के लिए, बनेगा। केंद्रीय कैबिनेट ने तय किया है कि सचिवों का एक समूह फिर मंत्रियों का एक समूह ये देखेगा कि इस काम को कैसे सबसे बढिय़ा तरीके से किया जाए। इस काम में एक साल तक लग सकता है।
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सरकार के फैसले का विरोध करने वाले अधिकारियों का कहना है कि कैडरों का विलय अवैज्ञानिक ही नहीं बल्कि स्थापित परंपरा के खिलाफ है, क्योंकि इसमें तो विपरीत धाराओं को एक में कर दिया गया है।
गैर तकनीकी अधिकारी सिविल सेवा परीक्षा पास करने के बाद रेलवे में आते हैं। जबकि इंजीनियर अभ्यर्थी आमतौर पर इंजीनियरिंग सर्विस परीक्षा में बैठते हैं। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि इंजीनियर आम तौर रेलवे की सेवा में 22-23 वर्ष की उम्र में आते हैं जबकि गैर इंजीनियर या सिविल सर्वेंट्स 26 वर्ष की उम्र के आसपास आते हैं। उम्र का ये फर्क अधिकारियों के करिअर में बाद में शीर्ष पोजीशनों के समय महसूस होता है। रेलवे में सिविल सर्वेंट्स से ज्यादा इंजीनियर हैं।
क्या है असलियत
रेलवे में सिस्टम बना हुआ है जिसके तहत कोई भी अधिकारी सामान्य प्रबंधन के शीर्ष पदों के लिए योग्य माना जाता है। इन पदों में सबसे महत्वपूर्ण जनरल मैनेजर का पद होता है जो जोन और प्रोडक्शन यूनिट का मुखिया होता है। किसी भी कोई भी अधिकारी जिसकी सर्विस कम से कम दो साल बची हो वह जीएम के पद की योग्यता रखता है। अपने बैच में वरिष्ठता और विशेषज्ञता इसमें आड़े नहीं आती। अभी भारतीय रेलवे में जीएम के 27 पद हैं।
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जीएम के पद के लिए किसी भी कैडर का कोई भी अधिकारी योग्यता तो रखता है लेकिन सिविल सर्वेंट्स इसमें थोड़ा पिछड़ जाते हैं, क्योंकि उनके पास जरूरी सेवा काल बचा नहीं होता। इसका कारण है कि सिविल सेवा से आए अधिकारी देर से नौकरी शुरू करते हैं सो पदों की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते कार्यकाल समाप्ति पर आ जाता है। भारतीय रेलवे में जीएम के 27 पदों में सिर्फ दो पर सिविल सर्वेंट आसीन हैं। जुलाई 2013 से रेलवे बोर्ड चैयरमैन का पद सिर्फ इंजीनियरों के पास रहा है।
फील्ड के स्तर पर, जहां रेलवे का रोज काम होता है, वहां जूनियर से लेकर मिडिल लेवल तक सिविल सेवा अधिकारियों की संख्या 40 फीसदी से भी ज्यादा है लेकिन शीर्ष प्रबंधन में ये मात्र 16-17 फीसदी ही है।
अंतर-विभागीय वरिष्ठता में समस्या तब खड़ी होती है जब विभिन्न सेवाओं के अधिकारी डीआरएम, जीएम और अंतत: चैयरमैन रेलवे बोर्ड के पदों के लिए दौड़ में होते हैं। नए बदलाव के बारे में सिविल अधिकारियों का कहना है कि अगर सभी वर्तमान कैडरों का विलय कर दिया गया और विभागों के शीर्ष पद सबसे लिए खोल दिए गए तो ज्यादातर पर इंजीनियर काबिज हो जाएंगे क्यों उनकी तादाद ज्यादा है और उम्र भी उनके साथ है।
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समस्या की जड़
मस्या तब आती है जब एक विभाग में चंद पदों के लिए ढेर सारे अधिकारी अर्हता रखते हैं। वरिष्ठों को प्रमोशन देते रहने के लिए जरूरी है कि विभाग में ऊंचे ग्रेड में पदों की लगातार आपूर्ति होती रहे। इस तरह जूनियर अधिकारी भी प्रमोशन की सीढ़ी चढ़ते रह सकते हैं। रेलवे में यह सिस्टम तभी चल पाता है जब सरकार कैडरों को रिस्ट्रक्चर करती रहे और कुछ वर्षों के अंतराल पर नए पदों का सृजन करती रहे। इसमें नए प्रोजक्ट आते रहने से काम बनता रहता है।
रेलवे में प्रत्येक विभाग प्रोजेक्टों पर खर्च करने के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधन पाने की जुगत में रहता है। हाल तक होता ये था कि हर प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए विभाग अस्थाई पदों का सृजन करते थे जिन्हें 'वर्क चार्ज' पद कहा जाता था। इन पदों की फंडिंग प्रजेक्ट के लिए आए पैसे से होती थी। विभाग ज्यादा से ज्यादा प्रोजेक्ट चाहते थे क्योंकि इसके परिणामस्वरूप ज्यादा 'वर्क चार्ज' पद बनाए जा सकते थे। इसका मतलब ये था कि विभागीय अधिकारियों के लिए प्रमोशन के अधिकाधिक रास्ते खुलते थे। प्रोजेक्टों के पूरा होने के बावजूद 'अस्थाई' पद कभी भी सरेंडर नहीं किए गए बल्कि कालांतर में इन्हें नियमित कर दिया गया। ये स्थिति तकनीकी विभागों में ज्यादा रही। इसके अलावा काफी हद तक एकाउंट्स में भी यही हाल रहा।
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कैबिनेट और कैबिनेट सचिव की देखरेख में जब भी रेलवे में कैडर रिस्ट्रक्चरिंग हुई तब वर्क चार्ज पद बैन कर दिए गए, लेकिन अधिकांश अस्थाई पद नियमित कैडर में समाहित कर दिए गए।
2015 में सरकार ने इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल का विलय करके रोलिंग स्टॉक और ट्रैक्शन विभाग बना दिए। इलेक्ट्रिकल को इंजनों का काम सौंप दिया गया जबकि मैकेनिकल को कोच, वैगन और एयरकंडीशनिंग का कम दे दिया गया। इससे हुआ ये कि एक फील्ड में काम कर रहे अधिकारी दूसरी विशेषज्ञता के अधिकारियों को रिपोर्ट करने लगे और कईयों का अपने क्षेत्र के विषय पर प्रभुत्व खत्म हो गया।
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अब क्या होगा
धिकारियों की मांग है कि एक की बजाए दो अलग अलग कैडर बनाए जाएं। एक सिविल सेवाओं का और दूसरा सभी इंजीनियरिंग विशेषज्ञताओं का। तर्क है कि कामकाजी तौर पर सभी विभाग तकनीकी और गैर तकनीकी विशेषज्ञताओं के जरिए ही काम करेंगे सो कैडर विलय से विभागवाद का खात्मा नहीं होगा।
सरकार आश्वासन दे रही है कि किसी भी अधिकारी की वरिष्ठता प्रभावित नहीं होगी और सभी के प्रमोशन के अवसर सुरक्षित रहेंगे।