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जानिये सरकार के दबाव के आगे क्यों नतमस्तक हुआ रिजर्व बैंक

कुछ लोगों के दिमाग में आशंकाओं के बादल अभी भी तारी हैं कि इस साल तो रिजर्व बैंक ने सरकार को उबार लिया लेकिन अगले साल भी यदि यह दौर जारी रहा तब सरकार क्या करेगी। विपक्षी कांग्रेस ने भी सरकार को चेताते हुए कहा है कि देश को अर्जेंटीना से सबक़ लेना चाहिए।

SK Gautam
Published on: 1 Sep 2019 1:17 PM GMT
जानिये सरकार के दबाव के आगे क्यों नतमस्तक हुआ रिजर्व बैंक
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रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: आलोचक कह रहे हैं कि आखिरकार रिजर्व बैंक को केंद्र सरकार के आगे नतमस्तक होना ही पड़ गया। भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य, उर्जित पटेल, रघुराम राजन के इस्तीफों के बाद वही हुआ जो अवश्यंभावी था गवर्नर शक्तिकांत दास के कार्यकाल में सरकार के मन की हो गई। आर्थिक मंदी के इस दौर से उबरने के लिए रिजर्व बैंक से एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपए केंद्र सरकार को मिल गए।

हालांकि कुछ लोगों के दिमाग में आशंकाओं के बादल अभी भी तारी हैं कि इस साल तो रिजर्व बैंक ने सरकार को उबार लिया लेकिन अगले साल भी यदि यह दौर जारी रहा तब सरकार क्या करेगी। विपक्षी कांग्रेस ने भी सरकार को चेताते हुए कहा है कि देश को अर्जेंटीना से सबक़ लेना चाहिए।

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आरबीआई का इतिहास खंगालना होगा

हालांकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने इन सारी आशंकाओं को सिरे से नकारते हुए कहा है कि बर्बाद हो रहे अर्जेंटीना से भारत की तुलना क्यों की जा रही है। वह साफगोई से कहती हैं कि बैंकों के विलय से कोई छटनी नहीं होने जा रही है।मामले की गंभीरता को जानने के लिए हमें भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआई का इतिहास खंगालना होगा ताकि स्पष्ट हो सके कि एक अर्थशास्त्री और जनप्रिय सरकार के बीच सोच में क्या मूलभूत अंतर होता है। राजग सरकार के पहले कार्यकाल से लेकर केंद्र सरकार के इस दूसरे कार्यकाल तक आरबीआई व सरकार के बीच टकराव की खबरें लगातार आती रही हैं।

आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे के बाद सरकार के रिजर्व बैंक के साथ मतभेद खुलकर सामने आ गए थे। और शक्तिकांत दास के गवर्नर बनने के बाद तो एक तबके द्वारा यह कहा जा रहा था कि अब सरकार मनमानी कर सकेगी।

मोटे तौर पर देखा जाए तो देश के प्रमुख केंद्रीय बैंक और सरकार के टकराव का लंबा इतिहास रहा है। देश की आजादी से पहले से लेकर आजादी मिलने के बाद से आज तक तमाम ऐसे मौके आए हैं, जब दोनों की सोच का अंतर साफ दिखा है। अगर देखा जाए तो जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, नरसिंम्हा राव, मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तक के आरबीआई के साथ टकराव की खबरें आम रही हैं। इसलिए अगर इस बार यह खबरें आई हैं तो इसमें नया कुछ नहीं है।

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वित्त मंत्री टी. टी कृष्णामचारी पर आरबीआई के कार्यक्षेत्र में दखल का आरोप लगा

आजादी से काफी पहले 1935 में सर ऑस्बॉर्न स्मिथ भी एक्सचेंज रेट को लेकर तत्कालीन सरकार के फैसले से नाखुश हुए थे और अंत में उन्होंने आरबीआई गवर्नर के पद से इस्तीफा दे दिया था साथ ही किसी भी बैंक नोट पर साइन करने से मना कर दिया था।

वर्ष-1947-57 के बीच जब देश को आजादी मिल चुकी थी और बेंगाल रामा राव को आरबीआई गवर्नर थे। उस वक्त भी रामा राव और जवाहर लाल नेहरू की सरकार के बीच टकराव की खबरें आई थीं। उस वक्त तत्कालीन वित्त मंत्री टी. टी कृष्णामचारी पर आरबीआई के कार्यक्षेत्र में दखल का आरोप लगा। राव ने इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया था। बाद में उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।

गैर कांग्रेसी सरकार के साथ भी आरबीआई गवर्नर के रिश्ते अच्छे नहीं रहे

1975 में भारत सरकार और तत्कालीन आरबीआई गवर्नर एस जगन्नाथ के बीच क्रेडिट लिमिट को बढ़ाने को लेकर टकराव हुआ था। केंद्रीय बैंक ने क्रेडिट लिमिट को बढ़ाने से इनकार कर दिया था। इसके बाद केंद्रीय बैंक के गवर्नर एस. जगन्नाथ को इस्तीफा देना पड़ा था। उन्होंने 19 मई 1975 को अपना इस्तीफा सौंप दिया। 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार जब सत्ता में आई थी। उसके रिश्ते भी आरबीआई गवर्नर के साथ अच्छे नहीं रहे थे। पुरी पर इस्तीफा देने का दबाव बनाया। पुरी ने भी बाद में इस्तीफा दे दिया था।

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1982-1985 के दौरान मनमोहन सिंह ने प्रणव मुखर्जी के वित्त मंत्री रहने के दौरान विवाद होने पर इस्तीफा देने की इच्छा जाहिर की थी। लेकिन इंदिरा गांधी की कहने पर उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया था। लेकिन राजीव गांधी ने उन्हें प्लानिंग कमीशन भेज दिया था।

इसके बाद 1985 में राम नारायण राव ने मनमोहन सिंह की जगह ली। लेकिन बढ़े डिविडेंट पेआउट की वजह से उनका भी टकराव हुआ। ऐसे में उन्होंने भी 1990 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। 2003-2004 में वाई वी रेड्डी प्राइवेट बैंक में एफडीआई लिमिट को कंट्रोल करना चाहते थे। लेकिन केंद्र सरकार ने उसे अपना अधिकार क्षेत्र बताया था। साथ ही इंटरेस्ट रेट को लेकर उनका तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के साथ मतभेद रहा था।

2008-2013 डी सुबाराव आरबीआई गवर्नर थे उनके भी केंद्र सरकार के साथ रिश्ते सामान्य नहीं रहे। उन्होंने कई मुद्दों पर विरोध दर्ज कराया। इंटरेस्ट रेट को लेकर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के साथ साथ भी उनका मतभेद रहा।

सरकार उपभोग को बढ़ावा देने पर जोर देकर मार्केट की मंदी को कंट्रोल करने का प्रयास करेगी

2013-2016 में रघुराम राजन का ब्याज दरों में कटौती समेत कई मुद्दों पर सरकार के साथ मतभेद रहा। वित्त मंत्री अरुण जेटली की ओर से ब्याज दरों मे कटौती को लेकर दबाव बनाया गया। अंत में गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे के बाद शक्तिकांत दास के कार्यकाल में हुआ यह काम निसंदेह सरकार को राहत देने वाला है।

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हाल के दिनों में अर्थव्यवस्था में आई मंदी के चलते सरकार सांसत में थी रिजर्व बैंक से इस फंड का सकारात्मक इस्तेमाल कर सरकार मंदी के दौर में तमाम कंपनियों को राहत दे सकती है। विकासपरक तमाम कार्यों को शुरू करा सकती है।

वित्त मंत्री घोषणाओं से स्पष्ट है कि सरकार उपभोग को बढ़ावा देने पर जोर देकर मार्केट की मंदी को कंट्रोल करने का प्रयास करेगी। अवसंरचना पर व्यय बढ़ाने प्राथमिकता में शामिल करना सरकार का एक सही कदम है। अर्थव्यवस्था में सुधार को लेकर सरकार ने कई कदम उठाए हैं। बड़े कर्ज पर निगरानी संकेत समिति बनाई गई है। सरकार का दावा है कि एनपीए में कमी आई है। आने वाले दिनों में कई बड़ी घोषणाएं और सामने आ सकती हैं।

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