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जिंदगी की भूलः बेल खुद को समझ बैठी पेड़, अहसास हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी
अभी तक वह अपने आपको मजबूत पेड़ समझ रही थी मगर अब उसे हकीकत पता चला कि वह एक बेल की भांति अपने पति से लिपटी हुई थी। पेड़ से लिपटी बेल अपने आपको पेड़ समझने की भूल अकसर कर जाती है।
संगीता कुमारी
हवाई अड्डे से निकलते हुए सुनीता ने चारों तरफ नजर दौड़ाई। सुरेश कहीं नहीं दिखा तो उसने तुरंत फोन करके सुरेश से पूछा कि वह कहाँ है। जवाब में सुरेश ने बताया कि वह किसी कारणवश नहीं आ सका। सुनीता टैक्सी लेकर तुरंत घर की ओर चल दी। सबकुछ होकर भी कुछ नहीं महसूस करना सबसे बड़ी कमी है। मनुष्य भरपायी करते करते थक जाता है और उसे पता भी नहीं चलता कि वह एक ही जगह खड़ा अपने गड्ढों में कैसे फंसता चला जाता है।
सुनीता जैसे ही गाड़ी से उतरकर कमरे में पहुँची, सुरेश ने नौकर से मैडम के लिये जूस लाने को कहा। सुनीता ने बीच में टोककर नौकर से ग्रीन टी लाने के लिये कहा और बच्चों के बारे में पूछा। सुनीता के गुस्से को भांपकर सुरेश ने धीरे से नौकर को वहाँ से जाने का इशारा किया और सुनीता की तरफ घूमकर पूछा, “बेटे का दाखिला सही से हो गया?”
सुनीता के सुर बदले बदले लग रहे रहे थे, आवाज में भी कड़कती बिजली चमक के समान रौद्र था। वैसे तो सुनीता के इस व्यवहार का पूरा घर पिछले कई वर्षों से आदि हो गया था मगर आज कुछ ज्यादा ही तेवर देखकर सुरेश शांति चाहता था।
सुनीता - "क्या काम आयी तुम्हारी इतनी सारी नॉलेज? आखिर हमारे बेटे का भविष्य मेरे कारण बना है, न कि तुम्हारे कारण।"
सुरेश - "हाँ...हाँ मान लिया तुम्हारी बात। तुम इस बात के लिये गर्व करो, न कि अभिमानी हो जाओ। आज वह समय आ गया है जब इस बात पर सोचना चाहिये कि हमारा बेटा इतने ज्यादा अंक लाकर भी बेशक सरकारी ही मगर निचले मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले पाया है, वह भी जाति सार्टिफिकेट लगाकर।"
सुनीता - -"वह भी मेरी जाति के कारण न कि तुम्हारे पुरोहित होने के कारण। तुम्हारे माँ बाप को तुम्हारे जीवन में मेरे होने की अहमियत अब तो समझ लेनी ही चाहिये; और तुम्हें भी अपना सर नेम बदलकर मेरा सर नेम रख लेना चाहिये।"
सुरेश - "क्या बेतुकी की बातें कर रही हो? हमारी शादी के इतने वर्षों बाद आखिर इन सब बातों को अब करने से क्या फायदा?"
सुनीता - "क्यों नहीं है फायदा? यह याद रखो कि जितना तुम कमाते हो उतना ही मैं भी कमाती हूँ। आज मेरे ही कारण हमारे बच्चों का भविष्य सुधरेगा; ना कि तुम्हारे कारण? क्या फायदा तुम्हारे टैलेंट के कारण उन सब मरीजों का इलाज करने का जो कभी भी मेरे पास नहीं आते! भूल गये वो दिन जब तुम्हारे केबिन के बाहर मरीजों की लम्बी लाईन लगी रहती थी और मैं खाली बैठी रहती थी क्योंकि..."
सुरेश - "तो? वह तो आज भी होता है। तुम्हें कितनी बार बताया है कि सोच समझकर दवा दिया करो और अगर शंका हो तो मुझसे पहले पूछ लिया करो...वैसे पुरानी बातों का आज की बातों से क्या लेना देना?"
सुनीता - "क्यों नहीं लेना? तब सभी तुम्हारी काबिलियत के पुलीते कसते थे जो कि अब भी कसते ही हैं। हम दोनों की तुलना करते हैं। मुझ पर कोई मरीज विश्वास नहीं करता है!"
सुरेश - "अरे बाबा, मैंने कभी कहा है तुम्हें कि तुम कम टेलेंटिड हो। मैंने तो सारी दुनिया के खिलाफ होकर तुमसे विवाह किया। दुनिया के कही कि सजा मुझे क्यों देती हो? यह दुनिया है जिसे हमारी अच्छी आमदनी खटकती है। समझ लो वो जलन से ऐसा बोलते हैं। वैसे मैंने सभी को बोल दिया है कि जो मेरी पत्नी की इज्जत नहीं करेगा मैं उससे नाता तोड़ दूँगा। इसलिये अब तो कोई तुम्हारा मजाक नहीं बनाता?"
सुनीता - "अब इसलिये मेरा मजाक नहीं बनाते क्योंकि मैं स्वयं सख्त हो गयी हूँ। ध्यान रहे कि मैं हॉस्पिटल में अकेली नहीं हूँ; मेरे जैसे अब और भी कई डॉक्टर हो गये हैं जिनके पास कोई इलाज के लिये नहीं आता जाता।"
सुरेश - "चलो एक बात तो सही रही कि तुम मुझे टैलेंटेड मानती हो।"
सुनीता गर्व का अहसास कराते हुए अपने हाथों को लहराते हुए तेज आवाज में कहती है, "मानती हूँ। मगर मैं भी किसी से कम नहीं हूँ यह भी जानती हूँ। आज तुम्हारी या मेरी काबिलियत का नहीं, सिर्फ और सिर्फ मेरा जाति लाभ मिलना ही हमारे बच्चे को डॉक्टर बना पायेगा। यह याद रखना तुम। समझे..."
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दोनों कब एक दूसरे के पूरक हो गये
डॉ सुरेश शर्मा व डॉ सुनीता बोशा ने प्रेम विवाह किया था जिसका विरोध सुरेश के माता पिता ने पुरजोर किया था। कारण था एक पुरोहित परिवार का सम्बंध आदिवासी जाति समुदाय में होना। सुरेश और सुनीता अलग अलग राज्यों के गाँवों से हैदराबाद शहर में मेडिकल की पढ़ायी के लिये आये थे। सुरेश की स्थिति सुनीता से थोड़ी बेहतर थी जिसके कारण वो सुनीता की सदैव सहायता करता था।
सुरेश और सुनीता का एक दूसरे के करीब आने की वजह कुछ आर्थिक भी थी। मेडिकल की पढ़ायी व प्रैक्टिस साथ साथ करते हुए दोनों कब एक दूसरे के पूरक हो गये दोनों को पता ही नहीं चला। प्रेम होता ही कुछ ऐसा है।
गोरा रंग, सुंदर दमकता चेहरा, ऊँचे कद का सुरेश दिखने में हष्ट पुष्ट नौजवान था। सुनीता गहरे साँवले रंग की औसत से भी कम सामान्य नैन नक्श लिये पतली दुबली लम्बी महिला थी। प्रत्येक स्त्री को अपने रूप रंग का अहसास पुरुषों की उठती निगाहों से स्वत: हो जाता है।
हीन भावना से ग्रस्त सुनीता हमेशा सुरेश पर शक की सूई चलाती रहती थी। सुनीता में हमेशा असुरक्षा की भावना बनी रहती थी। तीन बच्चे होने के बाद सुनीता में सुरेश के प्रति थोड़ी लापरवाही आयी थी या उसमें काम की व्यस्तता के कारण सोच में परिवर्तन आया था कहना मुश्किल था।
अपने इकलौते बेटे का मन दुखाना नहीं चाहते थे
गुणवत्ता की दृष्टि से नि:संदेह सुरेश बहुत होशियार था। मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी वह उच्च अंकों के साथ सामान्य वर्ग की श्रेणी से प्रथम आया था। वहीं सुनीता जन जाति वर्ग से मिले फायदे के कारण मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में बहुत कम अंकों से प्रवेश ले पायी थी। सुरेश के साथ रहने से सुनीता के ज्ञान में विकास हुआ था मगर हीन भावना कम नहीं हुई थी।
सुरेश उच्च विचारों का सुलझा हुआ व्यक्ति था। अपना प्रेम ‘सुनीता’ को पाने के लिये अनेक तर्कों के साथ उसने अपने माता पिता को भी मना लिया था। ऐसा वह सोचता था परंतु हकीकत तो यह थी कि उसके माता पिता अपने इकलौते बेटे का मन दुखाना नहीं चाहते थे। इस कारण उन्होंने सुरेश का विवाह सुनीता के साथ करने की सहमति दे दी थी।
सुरेश और सुनीता एक जगह एक साथ नौकरी करने लगे। सुनीता ने अपना सर नेम नहीं बदला था। ना ही कभी सुरेश ने उससे बदलने के लिये कहा। सुनीता एक स्वाभिमानी महिला थी जिसे अपने गाँव में अकेले उसके एक डॉक्टर होने पर गर्व था। सुरेश भी अपने गाँव का इकलौता डॉक्टर था।
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सुनीता का स्वाभिमान अभिमान में बदल गया
बेटे को सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला दिलाने के बाद सुनीता को अपने आप में गर्व महसूस हो रहा है यह सोचकर कि वह सुरेश और अपने बच्चों की जिंदगी में बहुत उपयोगी है, वहीं सुरेश को सिस्टम पर दुख हो रहा है कि उसका देश आगे जा रहा है या पीछे आ रहा है। पढ़ी लिखी सुनीता अपनी कुण्ठा दूर करने के लिये जहाँ सिमट रही थी वहीं सुरेश और अधिक खुल रहा था।
जिंदगी में उसका आना वरदान साबित रहा
अब सुनीता के सार्टिफिकेट के सहारे उसके तीनों बच्चों का दाखिला मेडिकल में हो गया था जिससे सुनीता का स्वाभिमान अभिमान में बदल गया था। आये दिनों वह अपने पति को इस बात का अहसास कराने से नहीं चूकती थी कि उसकी जिंदगी में उसका आना वरदान साबित रहा।
दो दशकों में बहुत कुछ बदल गया। तीनों बच्चे विदेश चले गये। सुरेश और सुनीता दोनों को रिटायर हुए सात वर्ष हो गये हैं। पूर्वी यूपी के एक कस्बे में अपने पुश्तैनी घर में ही सुरेश ने क्लीनिक खोलकर समाज सेवा करने का फैसला किया। दोनों दाम्पत्य मिलकर इलाज करते और चैन सकून की जिंदगी बिता रहे थे कि एक दिन सुरेश की सड़क दुर्घटना में मौत होने के कारण विपत्तियों ने सुनीता को घेर लिया।
अभी तक वह अपने आपको मजबूत पेड़ समझ रही थी
अभी तक वह अपने आपको मजबूत पेड़ समझ रही थी मगर अब उसे हकीकत पता चला कि वह एक बेल की भांति अपने पति से लिपटी हुई थी। पेड़ से लिपटी बेल अपने आपको पेड़ समझने की भूल अकसर कर जाती है।
आसपास के गाँव वालों का अकेले इलाज करने में उसे आत्मविश्वास नहीं आ पाता था। मरीज बार बार उसके क्लीनिक शिकायत लेकर आते थे। धीरे धीरे लोगों ने सुरेश की कमी का अहसास करना शुरू कर दिया। अब सुनीता के सहयोगियों ने भी रिस्क लेने की बजाय नौकरी छोड़ने का फैसला ले लिया।
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आर्थिक मजबूती एकाकीपन को कभी भी दूर नहीं कर सकती
उसे समझ में आ गया कि वह अकेले यह क्लीनिक सम्भाल नहीं पायेगी। उसके बच्चों ने सलाह दी कि वो विदेश चली आये। मगर वह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि तीनों बेटों में से किसके पास जाये? अंतत: उसने सारी संपत्ति बेचकर साउथ दिल्ली के पॉश इलाके में एक विला खरीद लिया जहाँ वह अकेली मगर किरायदारों के साथ रहती है। जमा पूँजी की हर माह एक किस्त और सरकार से पेंशन भी पाती है। मगर आर्थिक मजबूती एकाकीपन को कभी भी दूर नहीं कर सकती!...
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