पूर्व पीएम समेत इन दिग्गज नेताओं के मौत की फिर नहीं होगी जांच

केंद्र की मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत की जांच के लिए फिलहाल किसी आयोग का गठन नहीं करेगी। सरकार का कहना है कि इन नेताओं की संदिग्ध मौत की जांच के लिए अभी किसी आयोग के गठन करने का प्रस्ताव नहीं है।

Dharmendra kumar
Published on: 24 July 2019 9:10 AM GMT
पूर्व पीएम समेत इन दिग्गज नेताओं के मौत की फिर नहीं होगी जांच
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नई दिल्ली: केंद्र की मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत की जांच के लिए फिलहाल किसी आयोग का गठन नहीं करेगी। सरकार का कहना है कि इन नेताओं की संदिग्ध मौत की जांच के लिए अभी किसी आयोग के गठन करने का प्रस्ताव नहीं है।

पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री की 11 जनवरी 1966 में तासकंद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 23 जून 1953 में श्रीनगर और दीनदयाल उपध्याय की 11 फरवरी 1968 में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई थी।

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लाल बहादुर शास्त्री की मौत 10 जनवरी 1966 को रूस के ताशकंद में हुई थी। उनकी मौत पाकिस्तान के साथ शांति समझौते के महज 12 घंटे बाद ही 11 जनवरी को अचानक हो गई। शास्त्री की मौत की गुत्थी आज भी अनसुलझी ही है। पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री ने 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया था। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया था। वह 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में जन्मे थे। उनके पिता का नाम 'मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव' था, जो प्राथमिक विद्यालय में एक अध्यापक थे।

दीनदयाल उपाध्याय की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी। उनका शव 11 फरवरी 1968 को दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन जिसे पहले मुगल सराय रेलवे स्टेशन के नाम से जाता था के पास मिला था। उनके मौत की वजह भी अभी तक साफ नहीं हो पाई है।

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मुखर्जी अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को स्वायत्ता देने को लेकर मतभेद की वजह नेहरू मंत्रिमंडल से अलग हो गए थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से 1951 में उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी, जिसके एक हिस्से के रूप में बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी।

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मुखर्जी शुरू से ही जम्मू कश्मीर से जुड़ी नीतियों पर नेहरू के रुख से सहमत नहीं थे और उन्होंने संसद के भीतर व बाहर इसका विरोध किया था। 1951 में जनसंघ बनाने के बाद भी मुखर्जी इस नीति के खिलाफ बोलते रहे और 1953 में कश्मीर में ही मुखर्जी की मौत संदेहास्पद स्थितियों में हुई।

Dharmendra kumar

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