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भयानक रात: चीखने के लिए नहीं बची सांसे, सिर्फ दिखीं लाशें और सबसे बड़ी त्रासदी

गैस हादसे के शिकार जिंदा लोगों में से अधिकतर लोग आज तक सांस की बीमारियों और कैंसर के चलते दम तोड़ रहे हैं। इस हादसे के बाद बड़ी संख्या में लोग अंधे भी हो गए थे।

Shivani
Published on: 3 Dec 2020 10:55 AM IST
भयानक रात: चीखने के लिए नहीं बची सांसे, सिर्फ दिखीं लाशें और सबसे बड़ी त्रासदी
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नीलमणि लाल

लखनऊ- 2 दिसंबर 1984 की आधी रात होने को थी, लोग अपने घरों में सो रहे थे या सोने की तैयारी में थे। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी सब सामान्य ही था हालाँकि महीना भर पहले देशभर में सिख विरोधी दंगों की त्रासदी की दहशत अब भी थी। रात 12 बजे के आस पास लोगों को कुछ घुटन जैसी महसूस हुई। तुरंत ही आंखें जलने लगीं। सबको समझ आ गया कि कुछ गड़बड़ हो गई है। ये कोई छोटी गड़बड़ नहीं थी। ये एक भयानक गड़बड़ी का नतीजा था जो भोपाल के सैकड़ों लोगों को नौकरी देने वाले यूनियन कार्बाइड के कारखाने में हुई थी।

भोपाल गैस त्रासदी

ऐसी गड़बड़ी जिसका खामियाजा आज तक लोग भुगत रहे हैं। अगले दिन की सुबह हुई तो शहर के एक हिस्से में लाशों का ढेर लगा था। अस्पतालों से लेकर सड़क तक पर मरीज ही मरीज थे। इस त्रासदी में इंसानों के साथ बड़ी संख्या में जानवर और पक्षी मारे गए। गैस हादसे के शिकार जिंदा लोगों में से अधिकतर लोग आज तक सांस की बीमारियों और कैंसर के चलते दम तोड़ रहे हैं। इस हादसे के बाद बड़ी संख्या में लोग अंधे भी हो गए थे।

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77 में शुरू हुआ था कारखाना

यूनियन कार्बाइड का कारखाना 1977 में भोपाल में शुरू हुआ था। इसमें भारत सरकार और अमेरिकी कंपनी की साझेदारी थी। 51 फीसदी हिस्सेदारी यूनियन कार्बाइड की थी तो सैद्धांतिक रूप से मिल्कियत इसी कंपनी की हुई। इस फैक्टरी में ‘सेविन’ नाम का एक कीटनाशक बनाया जाता था जो मूलत: कार्बारिल नामक कीटनाशक था जिसका नाम यूनियन कार्बाइड ने सेविन रखा था।

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फैक्टरी सालभर में 2500 टन सेविन का उत्पादन कर रही थी। इसकी क्षमता 5000 टन के उत्पादन की थी। 1980 का दशक आते आते सेविन की मांग कम होने लगी सो बिक्री बढ़ाने के लिए इसे सस्ता करने की योजना बनाई गयी और उत्पादन लागत को कम करना शुरू किया गया। फैक्टरी में स्टाफ कम किया गया, रखरखाव कम किया गया और कंपनी के कलपुर्जे कम लागत वाले खरीदे गए जैसे स्टेनलैस स्टील की जगह सामान्य स्टील का इस्तेमाल किया गया।

‘सेविन’ की बिक्री ज्यादा बढ़ी नहीं और फैक्टरी में स्टॉक अभी भी बना हुआ था इसलिए फैक्टरी में नया उत्पादन रुका था। सिर्फ रखरखाव और जांच का काम चल रहा था। इस फैक्टरी के प्लांट सी के टैंक नंबर 610 में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस भरी हुई थी। ये एक बेहद जहरीली गैस है और हवा में इसकी 21 पीपीएम मात्रा किसी की जान लेने के लिए काफी होती है। बताया जाता है कि रखरखाव में कटौती की वजह से इस टैंक पर ध्यान नहीं दिया गया। टैंक की कूलिंग के लिए लगाए गए पानी के पाइप से पानी टैंक में चला गया।

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मिथाइल आइसोसाइनेट और पानी के मिक्सचर से रिएक्शन हुआ और भारी मात्रा में मेथिलएमीन और कार्बन डाई ऑक्साइड बनाना शुरू हो गया। इन दोनों गैसों की डेंसिटी बेहद ज्यादा थी। माना जाता है इस टैंक में करीब 25 से 40 टन मिथाइल आइसोसाइनेट भरी थी जिसने पानी से रियेक्ट कर हवा में जहर घोल दिया। ये गैस वातावरण में हवा के साथ मिल गई और लोगों की सांस में जाने लगी।

सरकार की कवायद

सरकार ने डॉक्टरों की टीम को भोपाल भेजना शुरू किया। गैस के असर को कम करने के लिए विशेष दवाएं लाने की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन कल तक कई परिवारों को रोजी रोटी के सहारे जीवन दे रही यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी आज उस जीवन को लील चुकी थी। इस हादसे के लिए जिम्मेदार कंपनी के लोग कहीं नहीं दिख रहे थे। हादसे के चार दिन बाद यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वॉरेन एंडरसन भोपाल पहुंचे।

एंडरसन को भोपाल एयरपोर्ट पर गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन उनको कुछ ही घंटों के बाद जमानत दे दी गई। एंडरसन को मध्य प्रदेश सरकार के हवाई जहाज से दिल्ली भेजा गया। दिल्ली पहुंचते ही एंडरसन ने अमेरिका की फ्लाइट पकड़ी और फरार हो गए। इसके बाद वो कभी भारत नहीं आये और 2014 में उनकी मौत हो गयी। अर्जुन सिंह पर आरोप लगे थे कि केंद्र सरकार के दबाव में उन्होंने एंडरसन को भगाया।

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राज्यसभा की एक बहस में इसका जवाब देते हुए अर्जुन सिंह ने कहा था कि तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने उनसे कभी इस बारे में कोई बात नहीं की। अर्जुन सिंह ने कहा कि उन्होंने खुद एंडरसन को गिरफ्तार करने के लिखित निर्देश दिए लेकिन उनकी जमानत के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय से फोन आया और उन्होंने जमानत का फैसला राज्य के मुख्य सचिव पर छोड़ दिया था। उस समय पीवी नरसिंहा राव गृह मंत्री हुआ करते थे।

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जिम्मेदारों को सजा नहीं

गैस त्रासदी का असर सिर्फ उन्हीं तीन चार दिन में नहीं हुआ बल्कि आज तक लोग इस त्रासदी के असर से जूझ रहे हैं। गैस त्रासदी के पीड़ितों को सरकार की तरफ से पर्याप्त सहायता नहीं मिली। इन पीड़ितों ने अब्दुल जब्बार के नेतृत्व में एक संगठन बनाया जिसने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। 2006 में सुप्रीम कोर्ट में इनकी याचिका के चलते सरकार को मानना पड़ा कि त्रासदी में तीन हजार ना होकर 15,274 लोगों की मौत हुई और 5,74,000 लोग बीमार हुए थे। सुप्रीम कोर्ट ने मृतकों को 10 लाख और बीमार लोगों को 50,000 रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया।

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2010 में इस मामले में आठ लोगों को दो-दो साल के कारावास की सजा सुनाई गयी थी। भारत सरकार ने इस मामले में यूनियन कार्बाइड से हर्जाने के रूप में तीन बिलियन डॉलर की मांग की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए 470 मिलियन डॉलर में समझौता करवाया दिया था।

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यूनियन कार्बाइड को 2001 में डाउ केमिकल्स ने खरीद लिया। भोपाल में उसका कारखाना आज बंद पड़ा हुआ है। वहां एक चौकीदार तैनात रहता है। फैक्टरी के सामने एक मूर्ति लगी है जिसमें एक महिला एक छोटे बच्चे को गोदी में लिए हुए है। फैक्टरी के आसपास की जमीन आजतक प्रदूषित है। इस जमीन का प्रदूषण भूजल में भी पहुंच गया। आबादी बढ़ी तो लोग इस प्रदूषित जमीन पर भी रहने लग गए। आज भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर लोग इस हादसे की वजह से मारे जा रहे हैं।

अमेरिका के गल्फ ऑफ मैक्सिको में ब्रिटिश कंपनी में तेल रिसाव की घटना

एक तुलना करें तो वर्ष 2010 में अमेरिका के गल्फ ऑफ मैक्सिको में ब्रिटिश की कंपनी में तेल रिसाव की बड़ी घटना हुई थी जिसमें मारे गए 11 लोगों के लिए अमेरिका ने ब्रिटिश कंपनी से 58 करोड़ रुपये प्रति मौत का मुआवजा लिया था। फरवरी 1989 में यूनियन कार्बाइड और केंद्र सरकार के बीच हुए मुआवजा समझौते का विरोध हुआ।

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3 दिसंबर 2010 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुधार याचिका लगाकर अतिरिक्त मुआवजा 7,844 करोड़ रुपये की मांग की। सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपी गई। जिस पर जनवरी 2020 के बाद सुनवाई नहीं हुई। यूनियन कार्बाइड की उत्तराधिकारी कंपनी डाउ केमिकल्स केंद्र की इस मांग पर राजी नहीं है कि वो पीड़ित परिवारों के पुनर्वास के लिए आगे कोई मुआवजा दे। केंद्र ने अपनी याचिका में हादसे से हुए पर्यावरण को नुकसान की भरपाई के साथ पीड़ितों के पुनर्वास के लिए अतिरिक्त मुआवजे की मांग की है।

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