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जो रचतीं हैं एक सुनहरा संसार

आज सोकर उठने के बाद जब मोबाइल उठाया तो अचकचा सा गया। अख़बार खोला तो हतप्रभ रह गया। देखा समूचा मीडिया नारीमय हो गया है। सोशल मीडिया पर स्त्री की तारीफ़ में तमाम पोस्ट पड़ी है।

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Published on: 9 March 2021 7:05 PM IST
जो रचतीं हैं एक सुनहरा संसार
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फोटो— सोशल मीडिया

योगेश मिश्र

योगेश मिश्र (Yogesh Mishra)

आज सोकर उठने के बाद जब मोबाइल उठाया तो अचकचा सा गया। अख़बार खोला तो हतप्रभ रह गया। देखा समूचा मीडिया नारीमय हो गया है। सोशल मीडिया पर स्त्री की तारीफ़ में तमाम पोस्ट पड़ी है। कोई नारी के रूप में मां की महानता का बखान कर रहा था। कोई बहन के रूप का। कोई पत्नी के रूप का। कोई बेटी के रूप का। पर सब पोस्ट में यह बताने की कोशिश साफ़ दिख रही थी कि महिलाएं महान हैं। महिलाओं को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। अभी तक नहीं मिला है। महिलाएं उपेक्षा की शिकार है। उनका शोषण जारी है। कहीं तारीफ़ के पुल दिखते हैं। कहीं उनके त्याग की लोरी सुनाई जा रही है।

मसलन, दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुजर गई, रात की नींद बच्चे को सुलाने में गुजर गई, जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं, सारी उम्र उस घर को सजाने में गुजर गई। महिलाओं का दर्द कोई क्या समझें नोट बंदी में धरे रुपये बाहर आ गये और वैक्सीन में उम्र। बहुत जगहों पर निंदा फ़ाज़ली का यह शेर धूम मचाये है- बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां, याद आती है चौका-बासन चिमटा फुकनी जैसी मां। बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी—थोड़ी सी सब में। दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां। शायद ही कोई बच्चा हो ज़िसे उसकी मां न प्रिय हो।

"जब मैंने जन्म लिया, वहां एक नारी थी। जिसने मुझे थाम लिया-मेरी मां। बचपन में जैसे—जैसे मैं बड़ा होता गया एक नारी वहां मेरा ध्यान रखने और मेरे साथ खेलने के लिए मौजूद थी-मेरी बहन। जब मैं स्कूल गया एक नारी ने मुझे पढ़ने और सीखने में मदद की- मेरी शिक्षिका। जब भी मैं जीवन से निराश और हताश हुआ। जब भी हारा तब एक नारी ने मुझे संभाला। जब मुझे सहयोग, साथी और प्रेम की आवश्यकता हुई तब एक नारी हमेशा मेरे साथी थी-मेरी पत्नी। जब भी मैं जीवन में कठोर हुआ तब एक नारी ने मेरे व्यवहार को नरम कर दिया-मेरी बेटी। जब मैं मरूंगा तब भी नारी मुझे अपने गोद में समा लेगी। धरती व गंगा।''

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"फूलों की कोमल पंखुडियां, बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हो अपना, स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से, जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर, मन के उत्सव आनंद मनाते हों। उज्ज्वल वरदान चेतना का, सौंदर्य जिसे सब कहते हैं। जिसमें अनंत अभिलाषा के, सपने सब जगते रहते हैं। मैं उसी चपल की धात्री हूं, गौरव महिमा सिखलाती हूं। ठोकर जो लगने वाली है, उसको धीरे से समझाती। मैं देव-सृष्टि की रति-रानी, निज पंचबाण से वंचित हो। बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना, अपनी अतृप्ति-सी संचित हो। अवशिष्ट रह गई अनुभव में, अपनी अतीत असफलता-सी। लीला विलास की खेद-भरी, अवसादमयी श्रम-दलिता-सी। मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूं, मैं शालीनता सिखाती हूं। मतवाली सुंदरता पग में, नूपुर सी लिपट मनाती हूं। लाली बन सरल कपोलों में, आंखों में अंजन सी लगती।''

कुंचित अलकों सी घुंघराली, मन की मरोर बनकर जगती। चंचल किशोर सुंदरता की, मैं करती रहती रखवाली। मैं वह हलकी सी मसलन हूं, जो बनती कानों की लाली। हां, ठीक, परंतु बताओगी, मेरे जीवन का पथ क्या है? इस निविड़ निशा में संसृति की, आलोकमयी रेखा क्या है? यह आज समझ तो पाई हूं, मैं दुर्बलता में नारी हूं। अवयव की सुंदर कोमलता, लेकर मैं सबसे हारी हूं। पर मन भी क्यों इतना ढीला, अपना ही होता जाता है। घनश्याम-खंड-सी आंखों में, क्यों सहसा जल भर आता है? सर्वस्व-समर्पण करने की, विश्वास-महा-तरू-छाया में। चुपचाप पड़ी रहने की क्यों, ममता जगती है माया में।छायापथ में तारक-द्युति सी, झिलमिल करने की मधु-लीला। अभिनय करती क्यों इस मन में, कोमल निरीहता श्रम-शीला?

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निस्संबल होकर तिरती हूं, इस मानस की गहराई में। चाहती नहीं जागरण कभी, सपने की इस सुधराई में। नारी जीवन का चित्र यही, क्या? विकल रंग भर देती हो। अस्फुट रेखा की सीमा में, आकार कला को देती हो। रूकती हूं और ठहरती हूं, पर सोच-विचार न कर सकती। पगली सी कोई अंतर में, बैठी जैसे अनुदिन बकती। मैं जब भी तोलने का करती, उपचार स्वयं तुल जाती हूं। भुजलता फंसा कर नर-तरु से, झूले सी झोंके खाती हूं। इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है। मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं, इतना ही सरल झलकता है। क्या कहती हो ठहरो नारी, संकल्प अश्रु-जल-से-अपने। तुम दान कर चुकी पहले ही, जीवन के सोने-से सपने। नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग पगतल में। पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में। देवों की विजय, दानवों की, हारों का होता-युद्ध रहा। संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित, रह नित्य-विरूद्ध रहा। आंसू से भींगे अंचल पर, मन का सब कुछ रखना होगा। तुमको अपनी स्मित रेखा से, यह संधिपत्र लिखना होगा।

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कभी—कभी तो लगता है कि औरत होना ही सजा है। कि न पढ़ें तो अनपढ़ जाहिल, पढ़ लिख लें तो पढ़ाई का घमंड। शादी न करें तो बदतमीज़, नकचढ़ी। शादी कर लें तो अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। सबसे मिलकर रहे तो चालाक हो गयी। मिलकर न रहे तो घमंडी हो गयी। पढ़ लिख कर घर व बच्चे संभाले तो इतने साल पढ़ लिख कर क्या हुआ। अगर कोई नौकरी कर ले तो देखो पर निकल गये। मिलने—जुलने लगें तो चलता पुर्ज़ा है। न मिले जुले तो छोटी सोच वाली है। बड़ी लंबी लिस्ट है साहब। लेकिन हमारे लिए और पूरे समाज के लिए, बड़ी शर्म की बात हैं। एक औरत के लिए हमने कितने पैमाने व मानदंड बना रखे हैं। जबकि औरत की ताक़त तो इतनी है कि उसे मकान दें तो घर बना देती है। अनाज दें तो खाना बना देती है। प्यार दो तो जान लुटा देती है। आंधी आबादी, पूरी बात। कोमल है कमजोर नहीं तू, शक्ति का नाम नारी है। जग को जीवन देने वाली, मौत भी तुमसे हारी है। औरत घर में करती ही क्या है? ख़ाली ही तो बैठती है। कौन सा पहाड़ तोड़ती है।

सच बात पूछती हूं बताओ न बाबू जी, छुपाओ न बाबूजी, क्या याद मेरी आती नहीं बाबूजी।

पैदा हुई तो घर में मातम सा छाया था, पापा तेरे खुश थे मुझे मां ने बताया था, ले ले के नाम प्यार जताते भी मुझे थे, आते थे कहीं से तो बुलाते भी मुझे थे, मैं हूं नहीं तो किसको बुलाते हो बाबू जी, क्या याद मेरी आती नहीं है बाबूजी। हर ज़िद मेरी पूरी हुई, हर बात मानते, बेटी थी, मगर बेटों से ज़्यादा थे जानते, घर में कभी होली, कभी दीपावली आई, सैंडिल भी मेरी आई, मेरी फ्राक भी आई, अपने लिए बंडी भी न लाते थे बाबूजी, क्या कमाते थे बाबूजी।

सारी उमर खर्चे में, कमाई में लगा दी, दादी बीमार थी तो दवाई में लगा दी। पढ़ने लगे हम सब को पढ़ाई में लगा दी, बाक़ी बचा तो मेरी सगाई में लगा दी। अब किसके लिए इतना कमाते हो बाबू जी, बचाते हो बाबूजी।

कहते थे मेरा मन कहीं, एक पल न लगेगा, बिटिया विदा हुई तो घर—घर न लगेगा। कपड़े कभी, गहने कभी, कभी सामान सजाते, तैयारियां भी करते, थे छुप—छुप कर भी रोते, कर—कर के याद अब तो ना रोते हो बाबूजी। कैसी ये परंपरा है, ये कैसा विधान है, पापा बताना कौन सा मेरा जहान है। आधा यहां, आधा वहां, जीवन है अधूरा, पीहर मेरा पूरा है, न ससुराल है पूरा। क्या आपका भी प्यार अधूरा है बाबूजी।

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भैया मुझसे ऊपर नहीं चढ़ा जाएगा बोलकर ट्रेन में लोअर बर्थ हथिया लेने वाली महिलाओं को भी, भैया मुझे बस में उल्टी आती है बोल के बहाने से विंडो सीट हथिया लेने वाली महिलाओं को भी, घर में, अपनी मां के आने पर खुश और सास के आते ही बीमारी का बहाना बना लेने वाली महिलाओं को भी, पड़ोसन को देखते ही, ठीक वैसा नेकलेस और साड़ी दिलवाने के लिए पति का खून पी जाने वाली महिलाओं को भी, विदाई में साड़ी मिलने पर अरे इसकी क्या जरूरत थी और घर आकर ऐसी साड़ी तो हमारी नौकरानी भी ना पहने... बोलने वाली महिलाओं को भी, तीन घण्टे लगातार पड़ोस की बहू को कोसने के बाद यह बोलना कि भाड़ में जाये हमें क्या करना वाली महिलाओं को भी, ब्रेक दबाने के बजाए जमीन पर पैर रख के, स्कूटी रोकने की कोशिश करने वाली महिलाओं को भी, अपनी स्कूटी का राईट इंडिकेटर देकर लेफ्ट में मुड़ने वाली सभी महिलाओं को भी, एक गोलगप्पा छोटा निकल जाने पर बैंडिट क्वीन की तरह गोलगप्पे वाले को धमकाने वाली लड़कियों को भी, महिला दिवस की बधाई।

उन लड़कियों को भी महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं जिनके पेट में कोई बात नहीं पचती। आज अंतर्राष्ट्रीय पुरुष मौन दिवस हैं। चुप रहें। खुश रहें। मेरे शेर जैसे दोस्तों को जन्म देने वाली मां, और उन्हीं शेरों को बिल्ली बनाने वाली भाभीयों को महिला दिवस की शुभकामनाएं।

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महिलाएं सिर्फ शक्ल और ज़िस्म से ही खूबसूरत नहीं होती,बल्कि वो इसलिए भी खूबसूरत होती हैं। क्योंकि प्यार में ठुकराने के बाद भी किसी लड़के पर तेजाब नहीं फेंकती। उनकी वज़ह से कोई लड़का दहेज़ में प्रताड़ित हो कर फांसी नहीं लगाता। वो इसलिए भी खूबरसूरत होती हैं, कि उनकी वजह से किसी लड़के को रास्ता नहीं बदलना पड़ता। वो राह चलते लड़कों पर

अभद्र टिप्पड़ियां नहीं करती। वो इसलिए भी खूबसूरत होती हैं, कि देर से घर आने वाले पति पर शक नहीं करती, बल्कि फ़िक्र करती है। वो छोटी—छोटी बातों पर गुस्सा नहीं होती, सामान नहीं पटकती, हाथ नहीं उठाती, बल्कि पार्टनर को समझाने की, भरपूर कोशिश करती हैं।

वो जुर्म सह कर भी रिश्ते इसलिए निभा जाती हैं, क्योंकि वो अपने बूढ़े मां—बाप का दिल नहीं तोड़ना चाहती। वो हालात से समझौता इसलिए भी कर जाती हैं, क्योंकि उन्हें अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की फ़िक्र होती है। वो रिश्तों में जीना चाहती हैं। रिश्ते निभाना चाहती हैं। रिश्तों को अपनाना चाहती हैं। दिलों को जीतना चाहती हैं। प्यार पाना चाहती हैं। प्यार देना चाहती हैं। हमसफ़र, हमकदम बनाना चाहती हैं।

युधिष्ठिर को महाभारत के समय एक अर्ध सत्य बोलने का दंड स्वर्ग तक न पहुंचने से भोगना पड़ा। हम सोशल मीडिया के पोस्ट पर लगातार झूठ बोल रहे हैं। जिस तरह वर्चुअल वर्ड में आभासी संसार में मदर्स—डे, डाटर्स—डे, फादर्स—डे पर भावनाएं बहती हैं। उससे गुजरा जाये तो कहा जा सकता है कि समूची दुनिया में कितने सच्चे व अच्छे लोग हैं। दुनिया में कोई दुख नहीं होना चाहिए। कोई दुखी नहीं होना चाहिए। जो खबरें इन विशेष दिनों के अलावा प्रकाश में आती हैं। वह यह पूर्णतया असत्य हैं। पर सच्चाई यह है कि हम पश्चिममुखापेक्षी हो गये है। अतीत की ओर देखने को तैयार नहीं हैं। हमारे यहां महिला—पुरुष से आगे रही हैं। ऊपर रही है। धन, विद्या व शक्ति सब देवियों के पास है। देवताओं के पास नहीं है। देवता भी देवियों से प्रार्थना करके ही इन्हें हासिल करते है। रावण को पराजित करने के लिए श्रीराम ने यज्ञ पूजा करके मां से शक्ति हासिल की थी। हमारे यहां राधा—कृष्ण हैं। सीता—राम है। भारतीय साहित्य में शायद ही कोई ऐसा लेखक, शायर या कवि होगा जिसने मां पर कलम न चलाई हो। इन सबको पहचान दिलाने वाली रचनाओं का सीधा रिश्ता किसी न किसी महिला से न हो। वह मां, बेटी, पत्नी, बहन या प्रेयसी कुछ भी हो सकती है। जयशंकर प्रसाद कहते हैं- नारी तुम केवल श्रद्धा हो। महात्मा बुद्ध के पास भी पत्नी यशोधरा के सवाल का जवाब नहीं था।

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स्त्री प्रेम न करे ऐसा संभव नहीं, जरूरी नहीं वो प्रेम किसी पुरुष से किया जाए। स्त्री प्रेम करने के लिए बनी है, दुनिया में ही प्रेम बचा है। स्त्रियों के कारण पुरुषों के पास प्रेम की व्याख्याएं है और स्त्रियों के पास प्रेम की मूल पांडुलिपि। प्रेम व जनन पर एकाधिकार है स्त्रियों का। यही दोनों संसार के मौलिक तत्व हैं। हमारे आदि ग्रंथ वेद इन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं। देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं। वेदों में स्त्री यज्ञीय है। अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय है।

भारत सदैव ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ सिद्धान्त का अुनगामी है। अथर्व वेद में नारी के सम्मान में लिखा है- अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता भवतु सम्मनाः। जाया परये मतुमतीं वाचं यददु शान्तिवाम्॥ ऋग्वेद के दशम मण्डल के 102वें सूक्त में राजा मुद्गल एवं मुद्गालानी की कथा वर्णित है, जो उसे युद्ध में विजय दिलाती है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 39, 40वें सूक्त ब्रह्मवादिनी घोषा के हैं। ऋग्वेद के 1.27.7 वे मंत्र की ऋषि रोमशा हैं। 1.5.29 वें मंत्र की विश्वारा, 1.10.45 वें मंत्र की दृष्टा इन्द्राणी, 1.10.159 वें मंत्र की ऋषि अपाला हैं। अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा ने पति के साथ ही सूक्त का दर्शन किया था। सूर्या भी एक ऋषिका थीं।

इसी प्रकार के उदाहरण बुहदारण्यक उपनिषद् में हैं। विदेह के राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य ऋषि से जहां अन्य ऋषिगण शास्त्रार्थ में पराजित हो रहे थे, वहीं सबसे तीक्ष्ण प्रश्न वाचक्रवी गार्गी, जो ऋषि वचक्रु की पुत्री थीं, के बारे में याज्ञवल्क्य को भी कहना पड़ा– “यह तो अतिप्रश्न है। गार्गी! यह उत्तर की सीमा है, अब इसके आगे प्रश्न नहीं हो सकता।” ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी स्वयं विदुषी थी। उस काल में पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी थी। स्मृति युग में महिलाओं का सम्मान केवल माता के रूप में होता था। राम चरित मानस की ये लाइनें मां के महत्व को बहुत सुंदर ढंग से रखती हैं- “जौ केवल पितु आयुस ताता/तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।” लेकिन यदि मां ने भी कहा है, तब- “जौ पितु मातु कहेहू वन जाना/तौ कानन सत अवध समाना।”

अफ्रीका की हिम्बा प्रजाति में बच्चे का जन्म जिस दिन स्त्री गर्भधारण का निर्णय करती है, उसी दिन से माना जाता है। स्त्री अकेले कहीं बैठती है। खुद ही एक गाना रचती है-गुनती है। फिर जाकर 'वह गीत' उस आदमी को सुनाती है, जिसे वह अपने होने वाले शिशु के पिता की तरह देखती है। फिर दोनों मिल कर वह गीत गाते है। संसर्ग के बाद भी दोनों वही गीत गाते हैं। जब स्त्री गर्भवती हो जाती है तो वही गीत वो अपने घर-पड़ोस-गांव की औरतों को सिखाती है, ताकि प्रसव पीड़ा के दौरान सब उसी गीत को गायें। शिशु के जन्म का स्वागत करें।

'वह गाना' बच्चे के ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाता है। हर ज़रूरी अवसर पर गाया जाता है। जब उसे चोट लगती है, तब भी। यहां तक कि जब कोई हिम्बा स्त्री—पुरुष अपराध करता है, तब सबसे पहले उन्हें बीच गांव में ले जाया जाता है। लोग हाथ पकड़ के एक गोल घेरा बनाते हैं। फिर वही गीत उसको सुनाते हैं, जो उसकी मां ने उसके जन्म से पहले ही उसके लिए गुना था। हिम्बा जनजाति सुधार के लिए दंड को महत्व नहीं देती, बल्कि व्यक्ति को फिर से, उसकी पहचान से, अपनी जड़ों से जोड़ देने को ज़रूरी मानती है। ऐसा करके वे याद दिलाते हैं कि तुम्हारा असल गीत तो यह है कि तुम कितने निर्दोष थे-निष्पाप थे, यह क्या करने लगे हो तुम।

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हिम्बा लोग गलती पर पश्चाताप कराने को प्रमुखता देते हैं, इंसान को उसकी इनोसेंस भूलने नहीं देते, पुनः स्मरण कराते हैं। जब वो मनुष्य मरता है, तब भी-जो लोग उसका गीत जानते हैं, वो सब उसे दफनाते वक़्त भी वही गीत गाते हैं। आखिरी बार। वही गीत जो उसकी 'मां' ने गुनगुनाया था, उसके आने से भी बहुत पहले। इससे साफ़ है कि स्त्री रचती है, हमेशा एक सुंदर संसार। हमें कुछ भी मनाने, सेलिब्रेट करने से पहले अपने अतीत को देखना चाहिए। जानना चाहिए। जहां से हमारे पूर्वजों ने छोड़ा है, हमें वहां से शुरू करना चाहिए। वहां से आगे बढ़ना चाहिए। पर हम पश्चिम ज़िसे पीछे छोड़ आया है हमेशा वहां से शुरू करने की गलती करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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