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मज़दूरों को कहीं का नहीं छोड़ा लाल परचम ने

मज़दूरों की हालत में गिरावट आई भी तो उस लाल झंडे की वजह से ज़िसे मई दिवस के अवसर पर पहली बार लहराया गया। फिर दस्तूर के तौर पर हर मई दिवस पर फहराया जाता है।

Shivani Awasthi
Published on: 6 Jan 2021 9:29 AM IST
मज़दूरों को कहीं का नहीं छोड़ा लाल परचम ने
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योगेश मिश्र

कार्ल मार्क्स ने अपना सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा था कि पूँजीवादी का पतन निश्चित है। यह भी कहा था कि पूंजीवाद के पतन के कारक उसी में निहित हैं। उनके सिद्धांत का विचित्र पक्ष यह कहना है कि पूंजीवाद का विनाश उसके विकास में निहित होगा। यह बात दूसरी है कि मार्क्सवाद की विचारधारा का बड़ा हिस्सा पूंजीवाद के इसी विकास से जुड़ा हुआ है। मार्क्स हर वस्तु मेंअतिरिक्त मूल्य की जो बात कहते हैं। वह भी सुनने में ही सही नहीं लगती है। क्योंकि उनके मुताबिक़ अतिरिक्त मूल्य के नाते मालिकों की हैसियत अच्छी होती जायेगी । मज़दूरों की हैसियत बदतर होने लगेगी। पर पूंजीवाद के विकास के साथ ही साथ मज़दूरों की हालत सुधरी।

मई दिवस के मौके पर लहराए गए लाल झंडे से आई मज़दूरों की हालत में गिरावट

मज़दूरों की हालत में गिरावट आई भी तो उस लाल झंडे की वजह से ज़िसे मई दिवस के अवसर पर पहली बार लहराया गया। फिर दस्तूर के तौर पर हर मई दिवस पर फहराया जाता है। जिसे मार्क्सवाद, वामपंथ ने मज़दूरों को शोषण से बचाने के लिए गढ़ा था। इन परचमों , इन्हें लेकर यूनियन चलाने वालों ने मज़दूरों को कहीं का नहीं छोड़ा। मिलों पर इनके उत्पात से मालिकों ने ताला डाल दिया।

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मिल मालिक आज पहले से शानदार गाड़ियों में घूमते हैं । उन्होंने अहमदाबाद में कारख़ाने खोल दिए। कानपुर की मिल बंद होकर ज़मीन जंगल हो गई। मिल मालिकों को कोई फर्क नहीं पड़ा । क्योंकि मिल मालिक कम्युनिस्टों के झांसे में नहीं आए।

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8 घंटे काम वाला मज़दूर 12 घंटे रिक्शा चलाने पर विवश

कानपुर में 8 घंटे यूनिफॉर्म में काम करने वाला मज़दूर 12 घंटे रिक्शा चलाने और दिहाड़ी करने पर विवश हो उठा। कम्युनिस्टों के शासनकाल में बंगाल पूरी तरह बर्बाद हो गया। बंगाल के तमाम कारखानों में यूनियनबाजी , कामचोरी, हड़ताल आम बात हो गई। मिल मालिकों के साथ गाली-गलौज मारपीट आए दिन होने लगे।बंगाल में कम्युनिस्टों ने नारा दिया “दिते होबे, दिते होबे, चोलबे ना, चोलबे ना।” नतीजा यह हुआ सभी कंपनियों में ताले लटक गए। अधिकांश कंपनियां अपने व्यवसाय को बंगाल से हटाकर गुजरात एवं महाराष्ट्र में शिफ्ट हो गयीं।

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मजदूरों के बच्चे कबाड़ बीनने लगे। जिन कम्युनिस्टों की आँखों में मज़दूर को काम करता देख खून उतरता था। वे तो सियासत में फ़िट हो गये। पर अधिसंख्य को जीवन में दुबारा कोई नौकरी नहीं मिल पाई । एक बड़ी जनसंख्या ने अपना जीवन बेरोज़गार रहते हुए डिप्रेशन में काटा।

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कम्युनिस्ट अफ़ीम बहुत घातक

कम्युनिस्ट अफ़ीम बहुत घातक होती है। उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं..! इनका आघारभूत सिद्धांत यह है कि

दो क्लास के बीच पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना। फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना।

मजदूरों के पलायन पर यही वामपंथी लोग सबसे ज्यादा दुखी रहे, जिनके कारण मजदूरों का अपने वतन से गुजरात, महाराष्ट्र की ओर पलायन हुआ। सबसे ज्यादा मजदूर बिहार उत्तर प्रदेश एवं बंगाल के ही हैं। बिहार के मजदूरों का पलायन करने का एक बड़ा कारण लंबे समय तक जंगलराज होना एवं वामपंथी नक्सली हिंसा ग्रसित प्रदेश होना भी रहा है।

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लाकडाउन में मजदूरों के लिए बढ़ी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जिम्मेदारी

लाकडाउन में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जिम्मेदारी थी कि मजदूरों को उचित सहायता प्रदान करें।कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने वाकई सराहनीय कार्य किए।अपना सर्वत्र लुटा कर गांव पहुंचे मजदूर घरवालों और गांव वालों दोनों के लिए उपेक्षा के पात्र हैं।

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हम 70% ज़्यादा रॉयल्टी देकर शराब पी सकते हैं । मगर प्याज का दाम पाँच रूपये बढ़ जाए तो सरकार को कोसते हैं। यही काम मजदूरों से कराया गया। संकट की इस घड़ी में वह अपने और अपने परिवार को पोसने की बजाय सरकारों को कोसने लगे। मजदूर वर्ग कल भी झांसे में थे। आज भी झांसे में हैं। इन्हीं वामपंथियों द्वारा तमाम तरह की अफवाहें फैलाकर उन्हें घर जाने के लिए बीवी बच्चों के साथ कड़ी धूप में सड़कों पर ढकेल दिया गया। गांव में इनकी इतनी बड़ी जमींदारी होती तो यह लोग मजदूरी करने दिल्ली, महाराष्ट्र और गुजरात क्यों गए होते?

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कोरोना से मजदूर का सब कुछ लुटा

यकीन मानिए करोना भी खत्म होगा। उस समय यह मजदूर जो अपना सब कुछ लुटा कर अपने गांव पहुंचे हैं, उनके हाथ में कुछ भी नहीं है। वे जहां नौकरी कर रहे थे, वहां उनकी जगह बांग्लादेशी रोहिंग्या नौकरी करते हुए मिलेंगे।

प्रवासी मज़दूर गरीबों की नई जाति के रूप में उभरे हैं। ये लंबे समय से शहरी भारत में उपेक्षित रहे हैं। अब ये राजनीति का एजेंडा बनेंगे। भारतीय लोकतंत्र में सब आल्टर्न अर्थात शोषित वंचित केंद्रित राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होगा । यह चुनाव एजेंडा भी होगा । ई गवर्नेंस की तरह अब ई पॉलिटिक्स का भी दौर आ सकता है।

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प्रवासी मज़दूर बेसहाय और रोज़गार से पिछड़े लोगों को समाज ने सहायता दोनों हाथों से दी । इसमें हमने बाज़ार से ख़ुद को मुक्त कर दिखाया है। 2020 में हमें स्वार्थ को , मार्केट की , ग़ुलामी को भारत छोड़ो कहना है । महामारी और लॉक डाउन के बाद यदि हम यही विवेक दिखाएंगे तभी धन्य बनेंगे। हमने ये बुनियादी सत्य समझा की महामारी इतिहास में या मेडिकल पुस्तकों में नहीं हमारे बीच रहती है और अमीर ग़रीब को नहीं पहचानती।

विश्व में अनुमानित 20 लाख लोगों पर भीषण गरीबी का खतरा

पिछले दो दशक में जो उपलब्धियां हासिल की थी, कोरोना वायरस ने कुछ महीनों में उन्हें मटियामेट कर दिया है । जिस कारण विश्व में अनुमानित 20 लाख लोगों की भीषण ग़रीबी के चंगुल में फँस जाने का ख़तरा है। यह वायरस अपने फैलाव में भले ही भेदभाव न करता हो लेकिन इसने बार बार साबित किया है कि इसका मारक असर सबसे कमज़ोर और टूट जाने वाले समुदायों पर पड़ता है । वर्ष 1998 के बाद पहली बार विश्व बैंक ने कहा है कि वैश्विक ग़रीबी दर बढ़ने वाली है।

पचास लाख लोग ग़रीबी के दुष्चक्र में फँस सकते हैं

संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि इस महामारी के कारण साल के अंत तक वैश्विक आबादी का फ़ीसदी यानी क़रीब पचास लाख लोग ग़रीबी के दुष्चक्र में फँस सकते हैं । खातून दक्षिण एशिया की उन हज़ारों महिलाओं में हैं , जिन्होंने फैक्ट्रियों में नौकरी कर दुनिया को ग़रीबी से मुक्त कराने में योगदान किया है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के प्रोफ़ेसर और 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाने वाले अभिजीत बनर्जी कहते हैं क़रीब 10 लाख कामगारों की जो कि देश की पूरी आबादी का सात प्रतिशत है , नौकरी चली गई है । अंडे और उबले आलू का प्रबंध करने के लिए उन्हें और स्थानीय दुकानदारों के कर्ज़ तले दबना पड़ रहा है।

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दक्षिण एशिया और चीन में हुई प्रगति को सर्वाधिक श्रेय

90 में दुनिया की 36% आबादी जो लगभग एक दशक नौ अरब के बराबर है रोज़ 1.90 डॉलर की आय कमाती थी। 2016 तक 1.90 डॉलर रोज पर निर्वाह करने वाले लोग घटकर 73.4 करोड़ या वैश्विक आबादी का 10 प्रतिशत रह गए । इसका सर्वाधिक श्रेय दक्षिण एशिया और चीन में हुई प्रगति को जाता है । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ भारत ने भी इस क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है । और 2006-2016 के बीच वह 21 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर लाया गया है ।

असंगठित क्षेत्र के 40 करोड़ लोग ग़रीबी के दायरे में आ जायेंगीं। इनका अस्तित्व बचाने के लिए सरकार को 10 लाख करोड़ रूपये का बजट आवंटित करना पड़ेगा।

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अमेरिका में एक-1 वादा पर काम करने वाले भारतीयों का भी रोज़गार छिन जायेगा। क्योंकि इस वीज़ा के नवीकरण की कम ही संभावना है, जो कृषि क्षेत्र 50 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है, उसमें 2011-2012 से 2017-2018 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश जीडीपी का 0.3 से 0.4 फ़ीसदी रहा।

फसलों का उचित मूल्य न पाने से भारतीय किसानों का नुकसान

ओईसीडी( आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) का एक अध्ययन बताता है कि अपने फसलों का उचित मूल्य न पाने से भारतीय किसानों ने 2000 से 2016-2017 सत्र के बीच 45 लाख करोड़ रुपये खोये हैं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने आशंका जतायी है कि इसके चलते भारत में असंगठित क्षेत्र के तक़रीबन 40 करोड़ कामगार ग़रीबी से दुष्चक्र में फँस जाएंगे। इसके लिए कृषि को बड़ा सहारा दिया जाना चाहिए। उदार नीतियां बनायी जानी चाहिए। कृषि उत्पादों की ख़रीद सुनिश्चित की जानी चाहिए।

कृषि को ज़्यादा तवज्जो देने की जरुरत

कृषि को ज़्यादा तवज्जो देना होगा। गाँव के निकट से संबंधित ज़्यादा उद्योगों की स्थापना करनी होगी। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योगों को स्थानांतरित करने के साथ श्रमिकों के लिए एक कार्य स्थल के पास सुविधा देनी होगी। पोषण, स्वास्थ्य , सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा जैसे बुनियादी सवाल प्राथमिकता में आएंगे।

वैश्विक जीडीपी में 2.1 से 3.9 प्रतिशत तक की गिरावट की संभावना

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस साल अंतरराष्ट्रीय व्यापार 13 से 32 प्रतिशत तक सिकुड़ सकता है। विश्व बैंक के मुताबिक़ वैश्विक जीडीपी में 2.1 से 3.9 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है ।

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हमारे प्रवास पर भी असर डालने वाली है यह महामारी। हम कैसे सामाजिक बनते हैं। कितने सामाजिक रह जाते हैं यह भी प्रभावित होगा ।कृषि को ज़्यादा तवज्जो देना होगा।गाँव के निकट से संबंधित ज़्यादा उद्योगों की स्थापना करनी होगी। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योगों को स्थानांतरित करने के साथ श्रमिकों के लिए एक कार्य स्थल के पास सुविधा देनी होगी।

पोषण, स्वास्थ्य , सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा जैसे बुनियादी सवाल प्राथमिकता में लाने होंगे। यह महामारी जिन्हें संक्रमित करेगी। उन्हें ज़िंदगी देगी या मौत। पर जिन्हें संक्रमित नहीं करेगी। उन्हें ग़रीबी देगी, बेरोज़गारी देगी, भूख देगी। यानी भय व भूख भी इसके प्रभाव होंगे। इनसे निपटने के लिए सरकार ही नहीं हर किसी को आगे आना होगा। वसुधैव कुटंबकम का मंत्र पीढ़ियों से दोहराते आ रहे हैं। उस पर अमल करना होगा।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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