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Independence Day: हमारी स्वतंत्रता अमर रहे
Independence Day: आज का यह शुभ दिन हमें जिन वीर, शहीद बलिदानी पूर्वजों के परम त्याग, बलिदान और उत्सर्ग के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुआ है, उन सभी का कोटि कोटि नमन और वंदन।
Independence Day: आज का यह शुभ दिन हमें जिन वीर, शहीद बलिदानी पूर्वजों के परम त्याग, बलिदान और उत्सर्ग के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुआ है, उन सभी का कोटि कोटि नमन और वंदन। उनके प्रति हमारी अपार और अगाध श्रद्धा भी उनके त्याग बलिदान और उत्सर्ग का मोल नहीं चुका सकती है।
ये वह लोग थे जिन्होंने हमारे लिए अपने वर्तमान और भविष्य की चिंता किए बिना अंग्रेज शासन की जनविरोधी, शोषक और घातक नीतियों का प्राण-पण से विरोध किया। और जब विरोध से बात न बनी तो विद्रोह भी किया। उनके उत्सर्ग के फल के रूप में हम सक्षम और समर्थ भारत की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की पहली गोली चलाने वाले मंगल पांडे से लेकर पूरी क्रांति में शहीद हुए हजारों लाखों क्रांतिकारी अपने आन बान शान को बनाए रखने और ईस्ट इंडिया कंपनी के अपमानजनक व्यवहार का बदला लेने के लिए सशस्त्र विद्रोह किया। परंतु सभी हिंदुस्तानियों के एकजुट ना होने के कारण एक-एक कर अंग्रेज अंततः अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल रहे। 1857 से 15 अगस्त 1947 के मध्य लाखों क्रांतिकारियों ने अपनी पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
15 अगस्त, 1947 को सत्ता परिवर्तन
यह उनके जुनून का ही परिणाम था कि हम 15 अगस्त, 1947 को सत्ता परिवर्तन कर कम से कम राजनीतिक रूप से आजाद हुए। मतदान में सभी को समानता प्राप्त होने के बावजूद अन्य समानताएं आज भी दिवा-स्वप्न सी ही हैं। सामाजिक और आर्थिक आजादी,समानता पाने की जद्दोजहद आज भी देश की अधिकांश जनसंख्या कर रही है।
शक्ति का विकृत रूप निरंकुशता और जनता की अवहेलना ही होती है। हमारे पूर्वज शायद केवल आजादी शब्द की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे, वरन संपूर्ण आजादी की चाहत में उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर किया था।
आज विचारणीय है कि स्वाधीनता का स्वप्न देखने वाले तपस्वियों, मनीषियों के सपनों की आजादी क्या हम 77 वर्ष बाद भी प्राप्त कर पाए हैं? समाज में व्याप्त घोर अज्ञान, अशिक्षा, शिक्षित युवाओं की बेरोजगारी, गरीबी, बीमारी, अक्षमता, परस्पर घृणा सहित अनेक विकृतियों में से कुछ में संभवतः हमारा समाज और व्यवस्था , तत्कालीन समाज से अधिक कुरूप हो गया है। इसकी कुरूपता कम करने का कोई उपाय भी कारगर नहीं हो पा रहा है। बल्कि इसमें लगातार वृद्धि ही हो रही है।
गरीब अमीर के बीच की खाई पहले से कई गुना बढ़ी है। समाजवाद और समाजवाद की अवधारणा केवल संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा बनकर रह गई है। समृद्धि की अट्टालिकाओं के सन्निकट ही विपन्नता का क्रूर अट्टहास अपने कुरूपतम रूप में नजर आ जाता है। इसे समाप्त करने या कम करने के प्रयास अब तक सफल नहीं हो पाये है।
शोषण की परंपरा का अंत
समाज का समर्थ वर्ग इस कुरूपता को देखना ही नहीं चाहता। नागरिकों के मध्य संपत्तियों का घोर असमान वितरण किसी को भी चिंतित नहीं करता। शोषक वर्ग की दिन दूनी रात चौगुनी नहीं हज़ार गुनी तरक्की पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं होता। तथाकथित जिम्मेदार विचारको की टोली अब शायद यह नहीं मानती है कि "poverty anywhere is a threat to prosperity everywhere. सम्भवतः प्रखर सामाजिक चिंतकों ने विचार पर वैभव को वरेण्य समझ लिया है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि शोषण की परंपरा का अंत जनता की चेतना के बिना संभव नहीं है। स्वाधीनता के इस पावन पर्व पर मेरी यही आकांक्षा है कि देश की 140 करोड़ जनता अपने स्वयं के हित का वरण करने में सक्षम बने और अपने भाग्य की विधाता स्वयं बने।
( प्रमोद शुक्ल- लेखक स्तंभकार हैं।)