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पराली जला रहे अन्नदाता की भी मजबूरी समझें
अरविंद राय
पर्यावरण प्रदूषण और पराली। ये दोनों आज के सबसे बड़े मुद्दे बन गए हैं। समाचार पत्र हो या टीवी चैनल। सब इन दोनों मुद्दों को जोर-शोर से उठा रहे हैं। उठाना भी चाहिए। ये मुद्दे हैं भी अहम क्योंकि यह जीवन से जुड़े मुद्दे हैं। पर्यावरण प्रदूषण लोगों की जिंदगियां निगल रहा है। जरूरी है कि इस पर पूरी तरह अंकुश लगाएं और पर्यावरण प्रदूषण को बेहतर बनाएं। पर क्या पराली जला रहे किसानों पर मुकदमा दर्ज करना या उनसे जुर्माना वसूल करना ही इसका उपाय है। क्या किसानों की मजबूरियों पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? क्या यह जानने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि जिंदगियां सलामत रखने के लिए जो किसान ठंडी-गर्मी और बरसात में खेतों में पसीना बहाता है वह आखिरकार जिंदगियों के लिए घातक बन रहे पर्यावरण प्रदूषण को खेतों में पराली जलाकर बढ़ाने का ‘पाप’ क्यों कर रहा है।
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मैने किसानों की बेबसी नजदीक से देखी है। खेतों में जाकर उनकी मजबूरियां भी महसूस की है। बड़े किसानों की नहीं छोटे किसानों ने कम्बाइन के लिए रात-दिन इंतजार किया। खेत के नजदीक कम्बाइन पहुंचा तो धान की फसल कटवा ली। धान तो घर उठा ले गए और पराली खेत में ही पड़ी हुई है। खेतों में पराली का ढेर लगा है। ट्रैक्टर से जुताई कराने के लिए वे ट्रैक्टर मालिकों-चालकों की गुहार लगा रहे हैं। ट्रैक्टर मालिक-चालक यह कहकर टाल जा रहे हैं कि धान का डंठल जब तक नहीं हटेगा तब तक उसमें कैल्टीवेटर चल पाना मुश्किल है। रोटावेटर भी पहली और दूसरी बार तक केवल पराली छोटा कर पाएगा, खेत की जुताई नहीं कर सकेगा।
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रबी की बुआई का समय सिर पर है। आलू-चना और मटर बोने का समय धीरे-धीरे जा रहा है। किसान खेत की जुटाई करेगा। खेत की पटकनी करेगा। उसके जोतने योग्य तैयार होने के बाद जुताई करेगा तब जाकर बुआई कर पाएगा। यह सबकुछ करने में समय लगेगा। जनशक्ति कम होने की वजह से ही किसानों ने धान की फसल कम्बाइन से कटवाई। अब पराली हटाने के लिए वही जनशक्ति की जरुरत है। कहां से ले आएं। खुद निपटाएं तो हफ्तों लग जाएगा। फिर वह जुताई कब कराएगा। खेत की पटाई कब करेगा। उसके जुताई योग्य होने का इंतजार कब तक करेगा और कब रबी की बुआई करेगा।
काश! जिम्मेदार लोग छोटे किसानों की इस गंभीर समस्या को समझ पाते। नजदीक से महसूस कर पाते और पराली खेतों में ही नष्ट करने का कोई उपाय सुझा पाते तो उनकी बेबसी खुशी में बदल जाती। किसान भी पर्यावरण प्रदूषण के सहयोगी नहीं, उसे कम करने में मददगार बनते। कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि अनुदान लेकर किसान रोटाबेटर खरीद ले और उससे जुताई कर पराली को खेत में ही काट-सड़ा दे। ऐसे लोगों से सिर्फ एक सवाल है। क्या उन्हें पता है कि किसान अपना धान किस कीमत पर बेचने को मजबूर हैं।
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महज 1200 रुपये कुंतल क्योंकि क्रय केंद्र पर उन्हें कहा जा रहा है कि पहले वह धान सुखाएं। दुबारा ओसवाएं और फिर बोरे में भरकर ले आएं। यह सबकुछ करके किसान क्रय केंद्रों पर ले भी जाए तो कम देखकर उसका नम्बर बाद में आएगा। महीनों लग जाएंगे धान बेचने में तो फिर खाद कहां से लाएगा। किसान जुताई की कीमत कहां से चुकाएगा। पटाई कराने के लिए डीजल कैसे खरीद पाएगा। सलाह देने वालों इसका उपाय भी तो बताइए। किसान की मजबूरी जो बिचौलियों की तिजोरी भर रही है, उसे कैसे दूर करेंगे। किसान कब अपनी उपज का सही कीमत पाएंगे। मैंने खेतों में जाकर देखा, महसूस किया और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचा। संभव है कि बहुतेरे इसे सिरे से खारिज कर दें, लेकिन खेत मे पसीना बहा रहे किसानों का यह दर्द है और बेबसी है। इसे दूर करने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)