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देश में परदेश, देश में भदेश

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने का राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना सरकारी काग़ज़ से बाहर नहीं निकल पाया। लेकिन हमारी संस्कृति ने आत्मनिर्भर गाँव की न केवल नींव रखी बल्कि उसे सच कर दिखाया।

Shreya
Published on: 12 Jan 2021 5:34 PM IST
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Yogesh Mishra

हमी मुलुक हैं। जब हम अपनी सरल जुबान में गांव को मुलुक और शहर को परदेस बोलते हैं तो तकलीफ होना लाज़िमी है - एक ही देश में दो देश कैसे ? पर यहाँ तो कई देश हैं। लोगों के स्तर पर भी, समाज के स्तर पर भी, जीवन यापन के स्तर पर भी, विकास के स्तर पर भी। हैरतअंगेज़ है कि शहरों का विकास गाँव की क़ीमत पर होता है। शहर की कोई भी ऐसी बहुमंज़िलीय इमारत नहीं होती जिसमें किसी गाँव वाले का खून पसीना न लगा हो। यह बात दीगर है कि इमारत के तामीर हो जाने के बाद खून पसीना खपा देने वाले के लिए वहाँ कोई जगह नहीं होती है। बाज़ार में सुस्ती के कारण नियोक्ता रोज़गार में कटौती कर चुके हैं। ऐसे में गाँव के इन मेहनतकश लोगों के लिए शहर में जगह ही नहीं रह गयी है।

अर्थव्यवस्था के लिए श्रमिक बहुत महत्वपूर्ण

हमारी अर्थव्यवस्था के लिए श्रमिक बहुत महत्वपूर्ण हैं। पर इनके लिए अर्थव्यवस्था को गति देने वाले ठीहे नहीं है। गाँव में उनके परिवार का जीवन यापन उसी पैसे पर निर्भर है जो पेट काटकर शहर में रोज़गार कर रहे उनके परिजन भेजते रहे हैं। सिर्फ़ बिहार का आंकड़ा बताता है कि प्रवासी मज़दूरों ने राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 35.6 फ़ीसदी के बराबर की धन राशि भेजी। पर अब यह भी बंद है। क़रीब 12.5 करोड़ प्रवासी कामगार दिन रात भारत के निर्माण में योगदान दे रहे थे।

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ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने का राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना सरकारी काग़ज़ से बाहर नहीं निकल पाया। लेकिन हमारी संस्कृति ने आत्मनिर्भर गाँव की न केवल नींव रखी बल्कि उसे सच कर दिखाया। हमें बचपन के दिन याद हैं। हमारे गाँव में हज्जाम रहते थे। धोबी रहते थे। दर्ज़ी रहते थे। कहार रहते थे। लोहार रहते थे। यादव रहते थे। काछी, निषाद और मौर्या रहते थे। दलित रहते थे। डोम भी रहते थे। चूडीहार व मुसलमान रहते थे। सभी जातियाँ या तो हर गाँव में रहती थीं। या फिर वह दो तीन गाँव के क्लस्टर में बसाई जाती थीं।

PM मोदी का लोकल के लिए वोकल का नारा

इन्हें अपने पेशे के हिसाब से गाँव के सभी लोगों के काम करने होते थे। जिसके एवज़ में उन्हें खेत दिये गये थे या अनाज दिये जाते थे। बाद में पैसे भी दिये जाने लगे। गांव में हफ़्ते में दो दिन हाट या बाज़ार लगता था। जहां ज़रूरत की चीजें बेचने दुकानदार आते थे। हर चार पाँच गाँव के बीच में हर साल एक दो बड़े मेले लगते थे। इतने ही में गाँव के लोगों की ज़रूरत पूरी हो जाती थी। मेले में बिकने के लिए लाई गयी सभी चीज़ें लोकल होती थी। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी लोकल के लिए वोकल होने का नारा कोरोना काल से उपजी दिक़्क़तों से निपटने के मद्देनज़र देते नहीं थक रहे हैं।

सोचिये! पहले हमने इस ढाँचे को सामन्तवाद कह कर ख़ारिज किया। अब वकालत कर रहे हैं। गाँव में तक़रीबन वही ‘वोकल फॉर लोकल’ है। "लोकल फॉर वोकल अथवा आत्मनिर्भर” होने की बात में यह संदेश होना चाहिए कि हमें स्वावलंबी होना है। राष्ट्रीय स्वाभिमान को ज़िंदा रखना है।

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नीय उत्पादों के पीछे स्थानीय विचार भी जरूरी

जब हम लोकल की बात करते हैं तो हमें केवल यह नहीं समझना चाहिए कि किसी वस्तु के उत्पादन की बात है। बल्कि ज़रूरी है कि स्थानीय उत्पादों के पीछे स्थानीय विचार भी हों। इन विचारों को हमें विज्ञान, शोध, संस्कृति और समकालीन समय की ज़मीनी ज़रूरत और जीवन शैली के हिसाब से विकसित करना होगा। आधुनिकता ने हमारे देश के विचार को जितना नुक़सान पहुंचाया है । हमें उससे दोगुनी ताक़त से देशज विचार को स्थापित करना होगा। लोक ज्ञान और लोक मेधा में तमाम देशज तत्व होते हैं। लोकल के लिए वोकल सिर्फ़ आर्थिक ही नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान में भी मदद करेगा।

कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़, लेकिन...

गाँव इस दौर में लुटे पिटे और बदरंग हो गये। छोटे और मझोले किसानों ने खेती छोड़कर दिहाड़ी करने का फ़ैसला कर लिया। कृषि को भले ही अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है पर किसानों की क्रयशक्ति इतनी कमज़ोर है कि इस के आधार पर वोकल फार लोकल की दिशा में बढ़ने की कल्पना नहीं की जा सकती है। किसान के माल की क़ीमत सरकार तय करती है ,यही फ़ॉर्मूला किसानों को ग़रीब बनाता है।

किसानों के मज़दूर बनने का सिलसिला आज़ादी के बाद से शुरू हुआ। 2011 की जनगणना के मुताबिक़ पिछले एक दशक में किसानों की कुल तादाद में नब्बे लाख की कमी आयी है। यानी हर रोज 2460 किसानों ने खेती को अलविदा कहा है।

हरित क्रांति के अगुआ रहे पंजाब में भी किसान खेती छोड़ रहा है। दरअसल, सकल घरेलू उत्पादन में खेती के घटते अनुपात के कारण गाँव और शहरों के बीच खाई बढ़ी है। 2008 में औसत आमदनी की दृष्टि से ग्रामीण शहरी खाई जहाँ चीन और इंडोनेशिया में दस फ़ीसदी थी, वहीं भारत में यह 45 फ़ीसदी थी।

2011-2012 में गांवों में प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च 1430 रुपया था। जो 2017-18 में घटकर 1304 रूपये हो गया।इस दौरान शहरी क्षेत्र मेंऔसत मासिक ख़र्च 2630 रुपये से बढ़कर 3155 रुपया हो गया। किसान गीता के निष्काम कर्म पर पूरी तरह अमल करता है। लेकिन उसे अपने श्रम का मूल्य तय करने का अधिकार नहीं है। खेती से उसकी आमदनी बाज़ार, बिचौलियों और साहूकारों की कृपा पर निर्भर करती है ।

किसानों को नहीं मिल पाई ये सुविधा

कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर एम.एस.स्वामीनाथन ने कहा था कि किसानों को अपने उत्पाद को अपनी इच्छानुसार बेचने की सुविधा मिलनी चाहिए । लेकिन हम उसे यह सुविधा नहीं दे पाए। देने को तैयार नहीं हैं। कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने ख़ुलासा किया कि कृषि बाज़ार पर बंधनों के कारण किसानों पर छिपा हुआ कर लगता है। जो 2000-2017 की अवधि में 45 लाख करोड़ रूपये का था । यानी 2.56 लाख करोड़ कर किसानों से छिपे तौर पर हर साल ले लिया जाता है।

आत्मनिर्भर भारत के नरेंद्र मोदी के संकल्प में विदेशों से लौटे प्रवासी भारतीय ज़्यादा मददगार हो सकते हैं क्योंकि उनके पास छोटे उद्योग शुरू करने के लिए पैसे हैं ।भारत के 1.75 करोड़ लोग विदेशों में नौकरी करते हैं ।85 लाख लोग तो खाड़ी देश में हैं। 2019 के 83 अरब डॉलर की तुलना में इस साल चौसठ अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा प्रवासियों द्वारा भारत में आती है। जो 23 फ़ीसदी कम बैठती है। 2018 में विदेश से आने वाले धन राशि देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का दो दशमसव नौ फ़ीसदी थी।

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नज़र गांवों की वर्तमान दशा और दिशा पर होनी चाहिए

गांवों के बदलते स्वरूप का समाज वैज्ञानिक अध्ययन सिर्फ़ आँकड़ों में नहीं होना चाहिए। सिर्फ स्मृतियाँ में नहीं होना चाहिए। सिर्फ़ किस्सागोई, आत्मालाप या विगत के श्रेष्ठताबोध में नहीं होना चाहिए। नज़र गांवों की वर्तमान दशा और दिशा पर होनी चाहिए। जो विकास की अनंत संभावना खोलता हो। हर वस्तु आदिमक़ालीन, अपरिष्कृत संकीर्ण, अंधविश्वास पूर्ण प्रतीक होती है, इसलिए आधुनिकता और अब भूमंडलीकरण के दीवानों में कोई भारत को अमेरिका जैसा बनना चाहता है, है तो कोई चीन या जापान जैसा।

गांवों में घुस रहे वर्तमान राजनीति की विभाजनकारी दुर्नीति के परिणाम स्वरूप ग्रामीणों में पनप रही परस्पर हिंसा स्पष्ट दिखाई देती है । मंदिर मस्जिद और जातिगत राजनीति ने गाँव के भीतरी ढांचे को किस क़दर मर्माहत किया है।

गांव देता है संकट में सबसे ज्यादा सहारा

संकट में सबसे ज़्यादा सहारा गाँव देता है। तो गाँव को बचाना और बढ़ाना होगा।गाँव को गुलज़ार करना होगा।। संभव है गाँव से रोज़ी रोटी की तलाश में शहर गये लोगों की घर वापसी ग्रामीण आर्थिक उन्नयन में योगदान करे। शहरीकरण रूके। समाजवाद, साम्यवाद, अंत्योदय और ग़रीबी हटाओ के तमाम नारे लोगों को ग़रीबी की गुंजलक में और फँसाते चले गए लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखे।

इक्कीसवीं शती में विश्व नागरिक की तरह या 3 हज़ार साल पहले और इन 3000 वर्षों में किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में आदिम सभ्यता के समय से इतने बड़े पैमाने पर कामगारों का पलायन कभी नहीं हुआ। कोरोना संकट में जो प्रवासी मज़दूर पैदल, साइकिल या दूसरे साधनों से अपने गाँव की ओर कूच कर गये हैं ,वे मजबूरी में ही शहर आए थे।

19.5 करोड़ लोगों की छँटनी की आशंका

दुनियाभर में 2.7 अरब कामकाजी लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। जो वैश्विक कामकाजी आबादी का तक़रीबन 81 फ़ीसदी हिस्सा हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने बीते एक अप्रैल, 2020 के अनुमान में कहा है कि चालू तिमाही में कोरोना संकट से 19.5 करोड़ लोगों की छँटनी की आशंका है। वैश्विक आपूर्ति शृंखला के समीकरण बदलना तय है। भूमण्डलीय की प्रक्रिया को आघात पहुँचेगा।

रोज़गार और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को बढ़ावा जरूरी

40 फ़ीसदी परम्परागत नौकरियां ख़त्म हो जाएँगी। ऑटोमेशन की रफ़्तार तेज होगी। दुनिया भर में 7.7 अरब लोगों का भरण पोषण और उनकी आजीविका सतत् विकास के लिए बहुत ज़रूरी है। देश में रोज़गार देना और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को बढ़ाना होगा। पर दूर दूर तक कही कुछ नहीं दिख रहा है। सर्विस सेक्टर का भी पलीता निकाल दिया गया है। सिर्फ चावल व गेंहू की इमदाद से ज़िंदगी चलने वाली नहीं है। यह ख़ैरात जीने भर के लिए महज़ पूरी होती है।

पेट की आग बड़वाग्नि से बड़ी है ।रामकथा को घर घर पहुंचाने वाले तुलसीदास भूख और गरीबी के अनुभव का जिक्र यूं नहीं करते जिन्हें उनसे राजनीतिक और धार्मिक लाभ लेना है। लेकिन जब भी हम इन पंक्तियों को पढ़ते या सुनते हैं कि 'आग बड़वाग्नि से बड़ी है आग पेट की’ तो वह आज के दौर में चरितार्थ होती दिख जाती हैं।

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यहां तुलसी दास जी का जिक्र इसलिए करना जरूरी है क्योंकि तुलसी दास जी के राम हमारी सरकारों के आदर्श हैं।किसी के लिए अयोध्या के राम आदर्श हैं, तो किसी के लिए बापू के रघुपति राघव राजाराम। वैसे राम और राजाराम के बीच कोई दृष्टि भेद होना ही नहीं चाहिए। हमारे यहाँ आज भी आदर्श राज्य व्यवस्था रामराज्य ही है। इसलिए राजनीतिक दल बार-बार राम मंदिर बनाने और रामराज्य लाने की ही घोषणा करते हैं। तुलसी को भूख और गरीबी का गहरा अनुभव था। यह अगर न होता तो वे यह न लिखते कि 'नहिं दरिद्र सम दुख जग मांहीं संत मिलन सम सुख कोऊ नाहीं.’ कोई बड़ा कवि ऐसे नहीं बनता। ऐसे नहीं लिखता।

ग़रीबी उन्मूलन एक युद्ध

हमारे देश में शुभ और लाभ की परंपरा रही है यानी जो लाभ शुभ हो वहीं स्वीकार्य है। जबकि उदारीकरण ने नेट प्रॉफिट शुद्ध लाभ की परंपरा डाली है इसे बदलना होगा। ग़रीबी उन्मूलन एक युद्ध है। लेकिन वर्तमान लोकतंत्र में कोई राजनैतिक दल या नेता इस महायुद्ध को लड़ेगा या कल्पना करना बेमानी है। सपने ज़मीन पर आसानी से नहीं उतरते हैं।

अतिशयोक्ति अपना सौष्ठव होता है ।किसी बात का अता पता होने भर से न तो समस्याओं का समाधान होता है और न फरिश्तों की तरह कंधों पर पंख उग आते हैं। पर वह निरंतर आगे और आगे बढ़ रहा है । बढ़ता ही चला जा रहा है । स्वराज तभी साकार और सार्थक होता है। जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बनता है। इस अभिव्यक्ति में ही विकास और आनंद की अनुभूति होती है।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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