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हर राजनीतिक दल में पलते रहे हैं विकास दुबे

पिछले तीन दशकों के राजनीतिक मिजाज़ पर यदि गौर करें तो हर सरकार में कोई न कोई विकास दुबे सत्ता के संरक्षण में पलता रहा है। भले ही बीहड का डकैत हो अथवा कोई बड़ा माफिया ही क्यों न हो।

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Published on: 8 July 2020 8:25 AM GMT
हर राजनीतिक दल में पलते रहे हैं विकास दुबे
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हर राजनीतिक दल में पलते रहे हैं विकास दुबे

श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ। पिछले तीन दशकों के राजनीतिक मिजाज़ पर यदि गौर करें तो हर सरकार में कोई न कोई विकास दुबे सत्ता के संरक्षण में पलता रहा है। भले ही बीहड का डकैत हो अथवा कोई बड़ा माफिया ही क्यों न हो। दिलचस्प बात तो यह है कि राजनीति के अपराधीकरण की बातें तो खूब हुई लेकिन हर राजनीतिक दल ने सत्ता में आते ही ऐसे माफियाओं को गले लगाने में कोई कोताही नहीं बरती।

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मुलायम सिंह के खिलाफ तहसीलदार सिंह

नब्बे के दशक में जब साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति की शुरूआत हुई तो नेताओं ने इसके सहारे अपराधियों को संरक्षण देने की शुरूआत कर दी। लेकिन धीरे-धीरे इन अपराधियों को लगने लगा कि क्यों न वही राजनीति में उतरकर ‘माननीय’ का तमगा हासिल कर लें। अयोध्या आंदोलन के दौरान जब 1991 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी जनता पार्टी के उम्मीदवार मुलायम सिंह यादव के खिलाफ चंबल के दुर्दांत दस्यु सरगना तहसीलदार सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया।

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मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी ले ली...

हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे ने पूर्वांचल के माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला की याद दिला दी है। उसके ख़ौफ़ को लोग अब तक भूले नहीं है आये दिन उसके मिजाज़ में मर्डर होते हैं। पुलिस उसके पीछे रहती तो श्रीप्रकाश पहले ही वहां से नदारद हो जाता। उसके हौसले इतने बढ गए थे कि उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी ले ली थी। कहा जाता है कि श्रीप्रकाश शुक्ल को एक तत्कालीन ब्राम्हण नेता का संरक्षण मिला हुआ था। माफिया श्रीप्रकाश को मारने के लिए ही पहली बार एसटीएफ का गठन किया गया था जिसमे पुलिस के तेजतर्रार अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को रखा गया था। काफी मशक्कत के बाद २२ सिंतंबर १९९८ में उसका नोएडा में एनकांउटर कर दिया गया।

रामभक्तों के निशाने पर रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के खिलाफ तहसीलदार सिंह की उम्मीदवारी को लोगों ने स्वीकार कर लिया। हालांकि बाद में यह पूरी चुनाव प्रक्रिया ही निरस्त हो गयी। राजनीति में अपराधीकरण का जो दौर शुरू हुआ तो फिर यह रूका नहीं, हर दल चुनाव जीतने के लिए स्थानीय स्तर पर अपराधियों की मदद के सााथ ही उनको टिकट देता रहा। संसद से लेकर विधानमंडल के दोनो सदनों में अनगिनत अपराधी ‘माननीय’ बनते रहे फिर चाहे वह भाजपा हो, सपा हो अथवा बसपा ही क्यों न हो।

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निर्भय गूजर का सपा-बसपा सरीखे दलों में खासा दखल...

बीहड़ों में दशकों तक अपना सिक्का जमाए रहे चंबल के ही निर्भय गूजर का सपा-बसपा सरीखे दलों में खासा दखल रहा। उसने खुद स्वीकारा किया कि उसके सम्बन्ध कई नेताओं के साथ रहे हैं। उसने उस समय सपा के एक बड़े नेता का नाम लेकर कहा था कि उन्हे चांदी का मुकुट उसी ने पहनाया था। यह सब बातें जब जनता के बीच आई तो पुलिस ने ७ नवंबर २००५ को उसका एनकाउन्टर कर दिया।

चंबल के ही बीहड़ों में अपनी कारगुजारियों से दहशत का साम्राज्य स्थापित करने वाले शिवकुमार ददुआ का पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव में महती भूमिका रही है। भाई और बेटे से लेकर अन्य पारिवारिक सदस्यों को जनप्रतिनिधि बनवाने में ददुआ ने खूब भूमिका निभाई। अपने भाई बालकुमार पटेल और बेटे वीर कुमार को सांसद और विधायक तथा बेटी को ब्लाक प्रमुख तक बनवा लिया था। हालांकि बाद में एक बडेे कद के राजनीतिक व्यक्ति से सम्बन्ध कुबुलने पर दस्यु ददुआ को पुलिस ने मार दिया था।

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जवाहरबाग कांड...

अपने को अन्य राजनीतिक दलों से अलग बताने वाली भारतीय जनता पार्टी भी इस मामले में पीछे नही रही। 1997 में जब बसपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया तो सरकार बनाने के लिए भाजपा ने आपराधिक पृष्टभूमि के अनगिनत विधायकों को अपने पाले में कर लिया।

अभी पिछली समाजवादी पार्टी सरकार की ही बात करें तो मथुरा के जवाहरबाग कांड के रामवृक्ष यादव ने यहां की २८६ एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा कर रखा था।

पुलिस जब यह जमीन मुक्त कराने पहुंची तो उसने पुलिस पर ही हमला किया जिसमे एक एएसपी और एसओं सहित कई पुलिसकर्मी मारे गए। रामवृक्ष यादव को समाजवादी पार्टी के एक बडे़े नेता का संरक्षण मिला हुआ था। इस बात का रामवृक्ष यादव ने स्वयं ही दावा किया था।

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