TRENDING TAGS :
मजबूरी फिर कराएगी वापसी
मजदूरों और अन्य कामगारों के अपने घर वापस जाने पर सियासत ज़ोरों पर है। लेकिन कहा जा रहा है कि शहरों में बहुत यातना प्रताड़ना झेलने के बाद मजदूर वापस नहीं होंगे वो किसी तरह गाँव में अपनी गुजर बसरकर लेंगे। क्योंकि गाँव में भूख से नहीं मरने की गारंटी तो है ही लेकिन आंकड़े बताते हैं कि तीन चौथाई मजदूर स्थितियाँ सामान्य होने पर वापस जाने को तैयार हैं। वजह सिर्फ एक है – अपने गाँव में काम नहीं है।
विशेष प्रतिनिधि
लखनऊ मजदूरों और अन्य कामगारों के अपने घर वापस जाने पर सियासत ज़ोरों पर है। लेकिन कहा जा रहा है कि शहरों में बहुत यातना प्रताड़ना झेलने के बाद मजदूर वापस नहीं होंगे वो किसी तरह गाँव में अपनी गुजर बसरकर लेंगे। क्योंकि गाँव में भूख से नहीं मरने की गारंटी तो है ही लेकिन आंकड़े बताते हैं कि तीन चौथाई मजदूर स्थितियाँ सामान्य होने पर वापस जाने को तैयार हैं। वजह सिर्फ एक है – अपने गाँव में काम नहीं है।
गोरखपुर, गोंडा, रायबरेली और मेरठ हो या पटना या जयपुर और सूरत सभी जगह से बड़ी तादाद में प्रवासी कामगार वापस अपने गाँव आ गए हैं। सबकी कहानी एक ही है कि काम धंधा बंद हो जाने के कारण वापस आ गए गए हैं। कुछ लोग तो कसम खा कर आए हैं कि अब कभी वापस उन शहरों में नहीं जाएंगे जहां बुरा वक्त आते ही सबने मुंह फेर लिया। अपनी माटी पर खड़े हो अब कह रहे हैं, दस पैसा कम कमाएंगे लेकिन परदेस नहीं जाएंगे। लेकिन बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो कहते हैं कि अपने गाँव – कस्बे में काम और रोजगार है ही नहीं तो ऐसे में हालात नार्मल होने पर वापस तो जाना ही होगा।
दिल्ली-मुंबई में सबसे ज्यादा
2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में सर्वाधिक प्रवासी मजदूर और कामगार उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं। इन दोनों राज्यों से 2 करोड़ 9 लाख से ज्यादा लोग अन्य राज्यों को चले गए। प्रवासियों को सबसे ज्यादा आकर्षित दिल्ली और मुंबई करते हैं। इन दो महानगरों में 99 लाख प्रवासी कामगार हैं। 30.3 फीसदी कामगार रोजगार के लिए अन्य राज्यों को जाते हैं।
काम धंधे की कमी और गरीबी अन्य राज्यों में जाने की बड़ी वजहें हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुमान बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में अप्रैल 2020 में बेरोजगारी दर 21.5 फीसदी हो गई। वहीं बिहार में अप्रैल 2020 में ये 46.6 फीसदी हो गया है।
यह पढ़ें...महाराष्ट्र में कोरोना का कहर, सिर्फ एक दिन में आए इतने हजार मरीज
भारी पड़ा पलायन
दो जून की रोटी की तलाश में अपनों को छोड़ परदेस गए इन लोगों ने कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी इतनी भयावह होगी। जैसे ही लॉकडाउन हुआ इनके जीवन की परिभाषा बदल गई। जहां नौकरी कर रहे थे वहां मालिकों का व्यवहार बदल गया। न पैसे दिए और न राशन। नौकरीपेशा हों या या फिर रोज खाने-कमाने वाले सब लोग शहर ठप हो जाने से दो वक्त की रोटी के लिए तरस गए। जब जीवन पर संकट मंडराने लगा तो इनके समक्ष घर वापसी ही लक्ष्य रह गया।
किसी ने साइकिल खरीदी तो किसी ने अपने मित्रों के साथ मिलकर मोटरयुक्त रिक्शा खरीदा तो कोई अपने बीवी बच्चों समेत पैदल या बाइक से ही निकल पड़ा। जिनको स्पेशल ट्रेन की व्यवस्था पर भरोसा न था या फिर जिनको ट्रेन में जगह नहीं मिल पायी वे पैदल ही चल दिए।
- गोरखपुर के अरविंद कहते हैं कि गांव में छोटी सी जमीन पर 10 से अधिक लोगों की निर्भरता है। यहां काम है नहीं। आईटीआई करने के बाद मजदूरी तो करेंगे नहीं। ऐसे में एक फैक्ट्री में काम करने लुधियाना चले गए। लॉकडाउन के बाद काम ठप हो गया। जब सभी रास्ते बंद होने लगे तो पैदल ही घर लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा। काम नहीं मिला तो फिर लौटना पड़ेगा।
- महाराजगंज के प्रदीप कुमार कहते हैं कि गांव में काम नहीं है। गोरखपुर शहर की मजदूर मंडियों में भी काम नहीं मिल रहा था। इसके बाद गांव के ही कुछ लोगों के साथ बंगलुरू चला गया। कोरोना के चलते भूखों मरने लगे तो वापस लौटना मजबूरी बन गया। कोरोना से जिंदगी बची तो फिर पेट पालने के लिए फिर घर छोडऩा होगा।
- मुंबई से एक महीने में पैदल चलकर दरभंगा
पहुंचे रामनिवास चौधरी कहते हैं कि मर जाना पसंद करूंगा लेकिन बिहार के बाहर नहीं जाऊंगा। बाहर का स्वाद हमने अच्छी तरह समझ लिया है।
- सूरत से सीवान लौट कर आए अमित सिंह कहते हैं कि बड़ी मुश्किल से वापस आ पाया हूँ। यहाँ कोई काम फिलहाल है नहीं। वापस जाना तो नहीं चाहता लेकिन मजबूरी है। जब सब ठीक हो जाएगा तो वापस जाना ही पड़ेगा।
- जयपुर से बाइक चला कर लखनऊ लौटे रजत कुमार श्रीवास्तव बताते हैं कि वो वहाँ एक निजी कंपनी में काम करते हैं। खाने पीने की दिक्कत होने लगे तो वापस आना पड़ गया। फैमिली लखनऊ में ही रहती है। अब वापस जाना तो नहीं चाहता लेकिन नॉर्मल हालात हो जाने पर जाना पड़ेगा। वैसे भी जयपुर में लखनऊ से ज्यादा काम है।
- बेंगलुरु से श्रमिक स्पेशल से पटना आने वाले गया जिले के दिनेश महतो कहते हैं कि थोड़ी परेशानी तो हुई लेकिन घर पहुंचने की खुशी के आगे यह कुछ भी नहीं है। अब यहां अगर कुछ न कर सका तभी फिर लौटने की सोचूंगा।
यह पढ़ें...कोविड-19 के मरीजों को दी जाएगी ब्लड कैंसर की दवा
मालिकों का बदला व्यवहार
समस्या केवल रोज कमाने-खाने वालों को ही नहीं हुई। जो किसी किसी कंपनी या फैक्ट्री में किसी पद पर काम करते थे उनका भी यही हाल हुआ। ये लोग थोड़े सक्षम थे लेकिन मालिकों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर घर का रुख करना ही वाजिब समझा। अहमदाबाद से मुजफ्फरपुर पहुंचे राजीव चौधरी कहते हैं कि वे एक टेक्सटाइल मिल में काफी दिनों से काम कर रहे थे। लॉकडाउन होते ही फैक्ट्री मालिक ने तत्काल परिसर खाली करने को कहा और फैक्ट्री के छह माह तक बंद रहने और इस अवधि में तनख्वाह नहीं देने की बात कही। अपमानित महसूस करते हुए सभी ने घर लौटने का निर्णय किया और 2200 किलोमीटर की दूरी तय कर वापस चले आए।
रोजगार का अहम सवाल
घोर अनिश्चितता के बीच जिस कष्ट को उठाकर प्रवासी मजदूर कामगार अपने गांव की दहलीज तक पहुंचे हैं उससे तो लगता है कि वे अब शायद ही बाहर का रुख करना चाहेंगे। लेकिन एक्स्पर्ट्स इससे इत्तफाक नहीं रखते।
- समाजशास्त्री प्रोफेसर टी.के. रायचौधरी कहते हैं कि प्रवासियों की ये बातें कि वे अब कभी वापस नहीं जाएंगे मात्र भावनात्मक बातें हैं। दरअसल लॉकडाउन के कारण एक अभूतपूर्व स्थिति बन आई जिसमें कामगारों को समाज से न तो नैतिक और न ही आर्थिक सपोर्ट मिला। स्वाभाविक है कि संकट के समय में इन्सानों में भावनात्मक शक्ति प्रबल होती है जो सामूहिकता का बोध दिलाती है। इसलिए इंसान अपने लोगों के बीच जाना चाहता है वहीं उसे सुरक्षा का एहसास होता। अभी जो कुछ दिख रहा वह परिस्थितिजन्य है। समय बीतने के साथ इन कामगारों को असलियत का बोध होगा। उसके बाद बदलाव आना तय है। ये लोग वापस वहीं जाएंगे।
- लखनऊ रिटायर्ड प्रोफेसर डाक्टर रश्मि कहती हैं कि प्रवासी मजदूरों को सरकार पर भरोसा नहीं था। बदले हालातों ने उन्हें सबकुछ दांव पर लगाकर सड़कें नापने को विवश किया। लेकिन आगे मजबूरी की उसी तरह की परिस्थिति अगर यहां भी बनेगी तो उलटे पांव इन कामगारों लौटने में देर नहीं लगेगी। जो बाहर मजदूरी कर रहा था, थो किसी तरह के काम में मजदूरी कर लेगा लेकिन स्किल्ड लोगों का क्या होगा। वो तो मजदूरी करने से रहे। और उनके लिए बिहार और यूपी में काम है नहीं।
- मुंबई के व्यवसायी सुरेन्द्र बहादुर का साफ कहना है कि मुंबई, दिल्ली या किसी अन्य महानगर की चकाचौंध और अपेक्षाकृत काम की अच्छी उपलब्धता इन प्रवासियों को फिर खींच लाएगी। ये लोग गाँव में मजदूरी करने में असहज ही नहीं बल्कि बेइज्जती महसूस करेंगे। ये देर सबेर वापस जरूर आएंगे। अपने गांव पहुंचे ये कामगार जब क्वारंटीन अवधि पूरी कर अपनों के बीच होंगे तो उन्हें सुकून तो जरूर मिलेगा लेकिन उनका सुकून दीर्घकालिक नहीं होने वाला है।
बात आंकड़ों की
- 46 करोड़ 50 लाख है भारत की कुल वर्क फोर्स।
- 93 फीसदी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं।
- 52 फीसदी लेबर कृषि, डेरी, और संबन्धित क्षेत्रों में काम करते हैं।
- 50 लाख श्रमिक विनिर्माण कंपनियों में और 4 करोड़ 90 लाख सर्विस सेक्टर में।
- 11 करोड़ 20 लाख भूमिहीन कृषि श्रमिक हैं।
- 15 करोड़ मजदूरों में नियमित वेतन वाले और दिहाड़ी श्रमिक शामिल हैं। 24 करोड़ 26 लाख श्रमिक गैर कृषि क्षेत्र में कार्य करते हैं
यह पढ़ें...भूत-प्रेत के चक्कर में शख्स की निर्मम हत्या, केस दर्ज न होने पर परिजनों ने उठाया ये कदम
बढ़ता ही गया पलायन
ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में प्रवास 1991 से 2001 के बीच 42 फीसदी था जो 2001 से 2011 के बीच 56 फीसदी हो गया। राष्ट्रीय स्तर पर कुल वर्क फोर्स की 93 फीसदी श्रमशक्ति असंगठित क्षेत्र में लगी हुई है। इससे इस क्षेत्र में ग्रामीण प्रवासी कामगारों के महत्व का पता चलता है। यही नहीं, इन अनौपचारिक कामगारों की महत्ता इस तथ्य से भी पता चलती है कि असंगठित क्षेत्र का देश की जीडीपी में 55 फीसदी का योगदान है। जबकि संगठित क्षेत्र का योगदान 45 फीसदी ही है। असंगठित क्षेत्र के प्रवासी कामगारों में 43 फीसदी लोग वेतन पर काम करते हैं। और आधे से ज्यादा कामगार अस्थायी नौकरियों पर हैं।
क्या काम करते हैं
कामगारों में ज़्यादातर लोग कम हुनर या स्किल वाली गतिविधियों में लगे हुये हैं। नतीजतन 32 फीसदी कामगार राज मिस्त्री, कन्स्ट्रकशन के काम, कपड़े धोने के काम, घरेलू साफ-सफाई वाले काम, सेक्युरिटी गार्ड, माली और रिक्शा चलाने का काम करते हैं। करीब 19 फीसदी कामगार क्राफ्ट और संबन्धित ट्रेड जैसे कि मोटर मेकेनिक, बढ़ई, इलेक्ट्रिशियन, पेंटर, वेल्डर, टेलर, प्लमबर, टीवी मेकेनिक, और अन्य हुनरवाले कार्यों में लगे हुये हैं।
नेशनल रियल इस्टेट डेवलपमेंट काउंसिल के प्रेसिडेंट निरंजन हीरानंदनी के अनुसार जो मजदूर पलायन कर गए हैं उनको आश्वस्त करना होगा। हमें उनके गाँव जाना होगा। इसमें थोड़ा समय लगेगा लेकिन वे वापस आ जाएंगे। अनुमान है कि सितंबर-अक्तूबर तक हालात ठीक हो जाएँगे।
केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का भी यही कहना है। गडकरी के अनुसार सभी प्रवासी कामगार अंतततः वापस आ जाएंगे। एक बार जब सब चीजें पटरी पर आ जाएंगी तब वे भी लौट आएंगे।