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800 साल पुराना झोपड़ा: मस्जिद से जुड़े हैं तार, जाने संस्कृत से है क्या सम्बन्ध

प्राचीन इमारतों के बीच राजस्थान के अजमेर में 800 साल पुरानी एक मस्जिद है। जिसे अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद कहा जाता है। इसे देश की सबसे प्राचीन इमारत माना जाता

Aradhya Tripathi
Published on: 3 May 2020 10:39 AM GMT
800 साल पुराना झोपड़ा: मस्जिद से जुड़े हैं तार, जाने संस्कृत से है क्या सम्बन्ध
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राजस्थान देश में राजा महाराजाओं के शाही महल और किलों व प्राचीन इमारतों के लिए जाना जाता है। राज्स्थामें देश की काफी प्राचीन धरोहर है। राजस्थान मशहूर है पर्यटन के लिए। क्योंकि यहां के किले यहां की खूबसूरती वाकई में देखते ही बनती है। प्राचीन इमारतों के बीच राजस्थान के अजमेर में 800 साल पुरानी एक मस्जिद है। जिसे अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद कहा जाता है। लेकिन इसे अढ़ाई दिन का झोपड़ा क्यों कहा जाता है। इसे लेकर कई वर्षों से एक विवाद या असमंजस बना हुआ है। इस मस्जिद का इतिहास भी काफी विवादित रहा है। आज हम आपको बताते हैं इस मस्जिद के कुछ रोचक किस्से।

संस्कृत के कालेज से बनी मस्जिद

800 साल पुरानी इस अढ़ाई दिन के झोपड़ा नाम की मस्जिद का इतिहास काफी पुराना है। जिसको लेकर कई तरह की बातें व किस्से प्रचलित हैं। इसी क्रम में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि पहले ये काफी विशालकाय संस्कृत कॉलेज हुआ करता था, जहां संस्कृत में ही सारे आधुनिक विषय पढ़ाए जाते थे। ये हुआ करता था 1192 ईसवीं में। ऐसा माना जाता है कि अफगान शासक मोहम्मद गोरी ने उसी समय देश पर हमला किया। जिसके बाद वह यहां आ पहुंचा। बाद में उसी के आदेश पर उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने संस्कृत कॉलेज को हटाकर उसकी जगह मस्जिद बनवा दी।

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कुछ इतिहासकारों का मानना कि बाद में दिल्ली सल्तनत के पहले बादशाह शमशुद्दीन ने इस मस्जिद का सौन्दर्यीकरण करवाया। जिसके बाद 1213 ईसवीं में मस्जिद का पुर्ननिमाण हुआ और इसकी तस्वीर बदल गई। हालांकि अब भी अढ़ाई दिन का झोपड़ा के कभी संस्कृत से जुड़ा होने के अवशेष मिलते हैं। क्योंकि अब भी इसके मुख्य द्वार की बाईं तरफ संगमरमर का बना शिलालेख भी है, जिसपर संस्कृत में उस कॉलेज का जिक्र है।

ऐसे पड़ा अढ़ाई दिन का झोपड़ा नाम

अब इस मस्जिद का नाम अढ़ाई दिन का झोपड़ा क्यों पड़ा इसके पीछे भी एक लम्बी कहानी है। इसके नाम के पीछे ऐसा माना जाता है कि मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद अजमेर से गुजरते हुए रास्ते में वास्तु के लिहाज से बेहद उम्दा भव्य आलीशान हिंदू धर्मस्थल नजर आए। जिनको देख कर गोरी ने अपने सेनापति कुदुबुद्दीन ऐबक को आदेश दिया कि इनमें से सबसे सुंदर स्थल पर मस्जिद बना दी जाए। गोरी ने इस कार्य के लिए 60 घंटों यानी ढाई दिन का वक्त दिया। ऐसा माना जाता है कि उस वक्त इस मस्जिद का डिजाइन हेरात के वास्तुविद अबू बकर ने तैयार किया था।

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ऐसा कहा जाता है कि अबू बकर द्वारा तैयार किए गए डिजाइन पर हिन्दू कामगारों ने ही बिना रुके 60 घंटों तक लगातार काम किया और इस शानदार आलिशान मस्जिद का निर्माण किया। अब ढाई दिन में पूरी इमारत तोड़कर खड़ी करना आसान तो नहीं था इसलिए मस्जिद बनाने में लगे कारीगरों ने उसमें थोड़े बदलाव कर दिए ताकि वहां नमाज पढ़ी जा सके। मस्जिद के मुख्य मेहराब पर उकेरे साल से पता चलता है कि ये मस्जिद अप्रैल 1199 ईसवीं में बन चुकी थी। इस लिहाज से ये देश की सबसे पुरानी मस्जिदों में से है।

नाम को लेकर हैं और भी तर्क

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वैसे इस मस्जिद के नाम को लेकर विवाद है। इसको लेकर और भी तर्क और कयास लागाये जाते हैं। इसी क्रम में सूफी संतों का कहना है कि ये इंसानों की नश्वरता को बताता है कि कोई भी अमर होकर नहीं आया है और ढाई दिन में ही चला जाएगा, इसलिए अच्छे काम करने चाहिए। वहीं शिक्षाविद और इतिहासकार हरविलास शारदा का मानना था कि इतिहास में इस नाम का कहीं भी जिक्र नहीं मिलता था। बल्कि इसे फकीरों की वजह से अढ़ाई दिन का झोपड़ा कहना शुरू किया गया। ऐसा माना जाता है कि काफी समय तक ये अजमेर की एकलौती मस्जिद थी। बाद में 18वीं सदी में फकीर उर्स के लिए यहां इकट्ठा होने लगे। ये लगभग ढाई दिनों तक चलता था. इसी वक्त से मस्जिद को ये नाम मिला।

स्थान के इतिहास को लेकर कई तरह के तर्क

इस स्थान को लेकर कई तरह के किस्से और कहानियां प्रचलित हैं। ऐसा माना जाता है कि राजा राजा विग्रहरजा चतुर्थ के समय में यहां पर संस्कृत का कालेज बनाया गया था। जो वास्तुकला का एक अप्रतिम उदाहरन था। जो चौकोर था, जिसके हर किनारे पर डोम के आकार की छतरी बनी हुई थी। वहीं जैन धर्म के समर्थकों का मानना है कि यहां सेठ विरामदेव काला ने 660 ईसवीं में जैन उत्सव पंच कल्याणक मनाने के लिए इसे एक जैन तीर्थ की तरह तैयार किया था। तो वहीं 'Archaeological Survey of India; के डायेक्टर जनरल अलेक्सेंडर कनिंघम जो कि पहले ब्रिटिश आर्मी में मुख्य इंजीनियर रह चुके थे, के मुताबिक मस्जिद में लगे मेहराब ध्वस्त किए गए मंदिरों से लिए गए होंगे। वहां ऐसे लगभग 700 मेहराब मिलते हैं, जिनपर हिंदू धर्म की झलक है।

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बाद में कई सालों बाद सन 1891 में ब्रिटिश काल के ओरिएंटल स्कॉलर जेम्स टॉड ने इस मस्जिद का दौरा किया। उसने अपनी किताब 'Annals and Antiquities of Rajastʼhan' में भी इस मस्जिद का जिक्र किया। जेम्स के अनुसार ये सबसे प्राचीन इमारत रही होगी। साल 1875 से लेकर अगले एक साल तक इसके आसपास पुरातात्विक जानकारी के लिए खुदाई चली। इस दौरान कई ऐसी चीजें मिलीं, जिसका संबंध संस्कृत और हिंदू धर्मशास्त्र से है. इन्हें अजमेर के म्यूजियम में रखा गया है। फिलहाल इस मस्जिद को इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का बेजोड़ नमूना माना जाता है और इसे देखने के लिए देश-विदेश से सैलानी आते हैं।

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