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रोजगार नहीं मिला तो फिर छोड़ना पड़ेगा गांव
गर्म सलाखों जैसी तपती सडक़ पर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी नापने वाले बेबस मजदूरों की बेबसी इन दिनों सभी की जुबान पर है। वे गांव पहुंच रहे हैं। दुत्कारे जा रहे हैं। कोई गांव की दहलीज पर क्वारंटीन होने को मजबूर है तो कोई घर वालों की बेरुखी से बेगाना बना हुआ है।
गर्म सलाखों जैसी तपती सडक़ पर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी नापने वाले बेबस मजदूरों की बेबसी इन दिनों सभी की जुबान पर है। वे गांव पहुंच रहे हैं। दुत्कारे जा रहे हैं। कोई गांव की दहलीज पर क्वारंटीन होने को मजबूर है तो कोई घर वालों की बेरुखी से बेगाना बना हुआ है। कहीं परिवार वालों की नो-एंट्री है तो कहीं गांव वालों की। ऐसे में सवाल लाजमी है कि इन मजदूरों के मन में भविष्य को लेकर क्या चल रहा है? ‘अपना भारत’ ने कुछ मजदूरों से बात की तो वे अभी असमंजस में दिखे। ना-उम्मीदी से वह अभी भी बाहर निकलने की स्थिति में नहीं हंै। कहीं परिवार चलाने की दुश्वारियां हैं तो कहीं रोजी-रोटी का संकट। अधिकतर मजदूरों का यही कहना है कि उन्हें रोजगार चाहिए। प्रदेश सरकार रोजगार दे तो कौन घर छोडक़र जाना चाहेगा। पर काम नहीं मिला तो रोटी के लिए परदेश जाना ही पड़ेगा। कुछ मजदूरों की कहानी उन्हीं की जुबानी।
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दर्द की बीच भविष्य की उम्मीदें
हैदराबाद से पैदल ही गोरखपुर पहुंचे हैं। कहीं किसी ट्रक वाले ने दरियादिली दिखा दी तो 50-100 किमी का सफर आसान हो गया। पेंटिंग का काम करते थे। ठेकेदार भाग गया। मालिक भी मदद को तैयार नहीं था। वापस नहीं लौटते तो मर जाते। अभी ये कोरोना कब तक रहेगा, कौन जानता है। प्रदेश सरकार मजदूरों को यहीं काम दे तो कोई परदेश में क्यों जाना चाहेगा। गीडा के मजदूर वैसे ही बेकार हो गए। हमें काम कैसे मिलेगा। - अवधेश यादव, गोरखपुर
कभी सोचा नहीं था कि ऐसा भी दिन देखना पड़ेगा। गांव में छोटी सी जमीन पर 10 से अधिक लोगों की निर्भरता है। यहां काम है नहीं। आईटीआई करने के बाद मजदूरी तो करेंगे नहीं। ऐसे में एक फैक्ट्री में काम करने चले गए थे। लुधियाना में जिंदगी ठीक थी। कुछ पैसे परिवार को भेज देते थे। जब सभी रास्ते बंद होने लगे तो पैदल ही घर लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा। काम नहीं मिला तो फिर लौटना पड़ेगा। - अरविन्द, गोरखपुर
गांव में काम नहीं है। गोरखपुर शहर में मजदूर मंडियों में 30 दिन में 10 दिन भी काम नहीं मिल रहा था। इसके बाद गांव के ही कुछ लोगों के साथ बंगलुरू चला गया। वहां एक दिन में 700 से 800 रुपये कमा लेते थे। कोरोना के चलते भूखों मरने लगे तो वापस लौटना मजबूरी बन गया। मनरेगा में जाब कार्ड बन गया लेकिन अभी काम नहीं है। कोरोना से जिंदगी बची तो फिर पेट पालने के लिए घर छोडऩा होगा। - प्रदीप कुमार, महराजगंज
कोई घर यूं ही नहीं छोड़ता है। बीमार मां-बाप के पास दवा न हो तो बेटा गांव छोडऩे को मजबूर होगा ही। तीन साल पहले गांव छोड़ा था। सुकून था कि कम से कम मां-बाप को दवा का पैसा तो भेज लेता था। अब सब कुछ बर्बाद हो गया। गीडा की फैक्ट्रियों में काम मांगने गया था। फैक्ट्रियां बंद है। मालिक कह रहे हैं कि उत्पादन है नहीं। बाजार बंद है। माल तैयार कर क्या करेंगे। स्थिति सामान्य होगी तो फिर हैदराबाद जाना पड़ेगा। - उमेश, पनियरा
मुंबई में जहां था वहां चारों तरफ कोरोना संक्रमित थे। राशन था नहीं, नौकरी चल नहीं रही थी। वहां के पार्षद को दो हजार दिया तो रेलवे का टिकट मिला। अब लौटा हूं तो क्वारंटीन सेंटर जाना है। 14 दिन के दौरान संक्रमित नहीं हुआ तो फिर सोचेंगे कि कैसे जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़े। फिलहाल तो दिल यहीं कह रहा है कि कभी घर नहीं छोड़ेंगे। लेकिन बड़ा सवाल यह है सरकार कुछ करती है कि नहीं। रोजगार नहीं मिला तो कुछ न कुछ तो करना ही होगा। - सुनील कुमार, जगतबेला
हैदराबाद में फास्टफूड की फैक्ट्री में काम करता था। एक-एक कर सभी लोग अपनी गांव की तरफ जाने लगे। अब कोई विकल्प ही नहीं बचा। पैदल ही घर के लिए निकल लिया। कभी ट्रक वालों की लिफ्ट लेकर तो कभी पुलिस वालों की लाठी खाकर आगे बढ़ता गया। दस दिन में अपने शहर पहुंचा तो सुकून मिला। घर के बाहर चौराहे पर ही मोहल्ले वालों ने रोक लिया। परिवार से मिलने भी नहीं दिया। क्वारंटीन सेंटर फुल है। मौत हो जाती तो ही बेहतर था। - राजू, हुमायूंपुर
(गोरखपुर से पूर्णिमा श्रीवास्तव)
अभी तो राहत,आगे की बाद में सोचेंगे
राही ब्लाक में बाहर से आये मजदूर दया राम का कहना है कि अब वो बाहर नहीं जाएगा यहीं गांव में रहकर काम करेगा। दयाराम महाराष्ट्र की सीमेंट फैक्टी के काम करता था। ठेकेदार ने निकाल दिया तो यहां आ गया। अब उसका कहना है कि वो कहीं नहीं जाएगा।
गुजरात के सूरत में फेरी लगाने वाले महेश का कहना है कि वो अब वापस नहीं जाएगा। यहीं कुछ काम धंधा करेगा। फिलहाल उसे मनरेगा में काम मिल गया है और वो उसी से रोज़ी रोटी कमा रहा है। भविष्य में क्या होगा इसके बारे में वह नहीं सोच रहा।
डलमऊ लौटी मोनिका सीतापुर की एक बिल्डिंग में मजदूरी कर रही थी। लाकडाउन हुआ तो ठेकेदार ने निकाल दिया अब यहां आकर मनरेगा में काम मिल गया है। मोनिका का कहना है कि अब वो वापस नहीं जाएगी।
पवन कुमार सिंह, डीसी मनरेगा का कहना है कि जिले के 816 ग्राम सभाओं में प्रवासी आए हैं। उनके जॉबकार्ड बनाए गए हैं। इसमें 148952 को चिन्हित किया गया है। वर्तमान में 15 हजार कार्य स्वीकृत हुए हैं। काम की तलाश में किसी को बाहर न जाना पड़े इसके लिए मांग के अनुसार उपलब्ध कराया जा रहा है।
(रायबरेली से नरेन्द्र सिंह)
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हालात नॉर्मल होंगे तो वापस जाएंगे
मैं दिल्ली के एक शानदार सैलून में कार्य करता था। लॉकडाउन में काम बंद हुआ तो कुछ दिन तक तो हालात बेहतर होने की उम्मीद में दिल्ली ही रहा। लेकिन जब दूसरा और फिर तीसरे लॉकलाउन की घोषणा हुई तो फिर मैं समझ गया कि मामला बहुत लंबा खिंचेगा सो जैसे-तैसे किसी तरह अपने गांव सरधना वापस अपने घर आ गया। अब पिता के ई रिक्शे में मंडी से सब्जी लाकर गांवों में बेचता हूं। रहा सवाल स्थिति नॉर्मल होने पर वापस जाने का तो पहली बात तो यह है कि हमारा जो काम है इसमें पहले की तरह रफ्तार आने में काफी समय लगेगा। इसलिए अब तो मेरठ में कुछ काम देखूंगा। - रहीसुद्दीन
पांच साल से मैं लुधियाना की एक ऑटोमोबाइल शॉप में काम करता था। लॉकडाउन के चलते शॉप बंद हुई तो मालिक ने सौ रुपये देकर कहा कि फिलहाल यहां काम नहीं है, तुम्हें जहां जाना है चले जाओ। जब काम होगा फोन करके बुला लूंगा। लॉकडाउन के बीच दूसरी जगह भी काम कैसे तलाश करता सो, मेरठ में अपने गांव मवाना खेड़ी आ गया। अब तो तय कर लिया है कि काम मिले या न मिले, लेकिन अब दोबारा लुधियाना तो क्या मेरठ से बाहर कहीं भी नहीं जाउंगा। मेरठ में ही काम तलाश करूंगा। - रविकांत-
खरखौदा का निवासी हूं। 10 साल से अधिक समय से हरियाणा के करनाल में अलमारी कंपनी में काम करता था। मेरे अलावा मेरठ के ही सौ से ज्यादा कारीगर वहां काम करते थे। लॉकडाउन में मेरे साथ ही यह सभी मेरठ लौट आएं हैं। अब समस्या यह है कि कहां जाकर काम करें। अब काम नहीं मिलेगा तो खुद को और परिवार को क्या खिलाएं। अब वापस हरियाणा जाने का भी मन नहीं है। जिस तरह वहां पर हमें अपने हाल पर छोड़ दिया गया, उसे देखते हुए मैं तो अब जीवन में कभी हरियाणा नहीं जाऊंगा। हम अपने गांव में मजदूरी करके जिंदगी चला लेंगे लेकिन बाहर नहीं जाएंगे। - कालू सिंह
हैदराबाद में एक मोबाइल कंपनी में इंजीनियर था। हमारी नौकरी गई नहीं लेकिन हम खुद छोडक़र आ गए। हमारे कई साथी भी छोड़ कर आ गए। इसके पीछे कारण यह था कि तमाम कंपनियों में छंटनी हो रही थी और हमें भी आशंका थी कि हमारी नौकरी चली जाएगी। जिस दिन मोदी जी ने जनता कफ्र्यू लगाया यानी 22 मार्च को मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ अपना थोड़ा बहुत जो सामान था लेकर अपने गांव दबथुवा वापस आ गया और अब ठान लिया है कि लौटकर शहर नहीं जाएंगे। अब यह सोच लिया कि गांव में रहकर ही खेती कर अपना व अपने परिवार का पेट पाल लेंगे। - रविन्दर सिंह
करनाल में राइस मिल में काम करता था। लॉकडाउन के चलते मिल बंद हो गई। कई दिन करनाल में सडक़ों किनारे सोए और मांगकर भोजन किया। मेरे पास 2500 रुपये थे। उनमें से एक हजार रुपये की साइकिल खरीदी। साइकिल से चलकर बीते शनिवार दोपहर मेरठ पहुंचा। घर नहीं आते तो हम भी वहां बेसहारों की मौत मर जाते। कोई सुध लेने वाला नहीं थी। अब दोबारा वहां नहीं जाऊंगा। गांव या आसपास ही कोई काम कर लूंगा। - उदयवीर
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के साजा क्षेत्र के गुण फैक्ट्री में मेरठ के 22 अन्य साथियों के साथ काम करता था। किस्मत अच्छी थी कि लॉकडाउन से पहले एक रिश्तेदारी में शादी होने के कारण मेरठ में अपने गांव आया हुआ था। बाद में फोन पर साथियों से पता लगा कि फैक्ट्री में काम बंद हो गया है। आर्थिक तंगी के चलते मेरे साथी यहां आने का कोई दूसरा साधन नहीं मिलने के कारण साइकिल से ही मेरठ की तरफ निकल पड़े। अब तो मैं किसी भी स्थिति में दोबारा वहां नहीं जाऊंगा। अपने ग्राम में ही रहकर जो कुछ काम मिलेगा वह उससे ही गुजारा कर लूंगा। - सुरेन्द्र सिंह
(मेरठ से सुशील कुमार)
काम बंद हुआ तो सबने दुत्कार
उत्तराखंड के देहरादून में सब्जी बेचकर गुजारा कर रहे अहिरन पुरवा निवासी स्वामी प्रसाद कहते हैं कि लाकडउान में वहां खाने की भी समस्या हो गई थी। कई दिनों तक भूखे पेट ही रहना पड़ा। ऐसे में भागकर गांव वापस आने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। भविष्य में अब चाहे जो स्थिति हो लेकिन वे वापस नहीं जाएंगे। - स्वामी प्रसाद
देहरादून में एक सेठ की दुकान पर नौकरी करके परिवार का पालन पोषण कर रहे अहिरन पुरवा निवासी माधव राम कहते हैं कि लाकडाउन में दुकान बंद हुई तो सेठ ने पगार देने से मना कर दिया। तब वहां मकान मालिक को किराया और खाने की भी समस्या हो गई थी। कई दिनों तक भूखे पेट ही रहना पड़ा। ऐसे में भागकर गांव वापस आने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। अब जो भी स्थिति हो घर पर रहकर ही मेहनत मजदूरी करेंगे लेकिन वे वापस देहरादून नहीं जाएंगे। - माधव राम
जालंधर में कपड़ा मार्केट में पल्लेदारी का काम करके परिवार का पालन पोषण कर रहे केशवपुर पहड़वा निवासी रमेश कुमार सिंह कहते हैं कि लाकडाउन में मार्केट बंद हुई तो पैसा मिलना बंद हो गया। तब वहां मकान किराया और खाने की भी समस्या हो गई थी। कई दिनों तक भूखे पेट ही रहना पड़ा। ऐसे में भागकर गांव वापस आने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। अब जो भी स्थिति हो घर पर रहकर ही मेहनत मजदूरी करेंगे लेकिन वे वापस शहर नहीं जाएंगे। - रमेश कुमार सिंह
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सूरत शहर में एक सेठ की दुकान पर नौकरी करके परिवार का पालन पोषण कर रहे बखरवा निवासी जगननाथ सिंह भी किसी प्रकार गांव वापस आए। वे कहते हैं कि लाक डाउन में दुकान बंद हुई तो सेठ ने पगार देने से मना कर दिया और मकान मालिक को किराया न दे पाने पर उसने मकान खाली करने को कहा। कई दिन तक काम न मिलने से पैसे खत्म हो गए और खाने की भी समस्या हो गई थी। ऐसे में भागकर गांव वापस आने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। अब जो भी स्थिति हो घर पर रहकर ही खेती और मेहनत मजदूरी करेंगे लेकिन अब वापस सूरत नहीं जाएंगे। - जगन्नाथ सिंह
खरगूपुर थाना क्षेत्र के सिसई माफी गांव निवासी राम दयाल कई माह घर से जीविका चलाए जाने के लिए मुंबई गए थे। वहां कपड़ा बुनाई का कार्य कर कमाई कर रहे थे। एक माह पहले कोरोना वायरस के चलते संपूर्ण देश में लाक डाउन कर दिया गया, इसके कारण उनका कारोबार ठप हो गया, जिससे उनके सामने आर्थिक दिक्कतें आ गई। हिम्मत जुटाकर वह मुंबई से 12 दिन पैदल चलकर अपने गांव वापस पहुंचे हैं। रास्ते में तमाम दुश्वारियां झेल चुके राम दयाल कहते हैं कि अ बवह वापस मुंबई नहीं जाएंगे। - राम दयाल
(गोंडा से तेज प्रताप सिंह)