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भारतीय मीडिया ग्लोबलः ना उम्मीद करती कार्य प्रणाली, स्वेच्छा मृत्यु की ओर

वर्तमान स्वरूप में ये मीडिया दुनिया के सामने देश और देशवासियों के बारे में वैसी ही छवि प्रस्तुत कर रहा है जैसी छवि पहले सपेरों, जादूगरों, तंत्र मंत्र आदि की बनी हुई थी, जिस छवि को बहुत मुश्किल से थोड़ा बहुत ही बदला जा सका है।

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Published on: 14 Sept 2020 5:01 PM IST
भारतीय मीडिया ग्लोबलः ना उम्मीद करती कार्य प्रणाली, स्वेच्छा मृत्यु की ओर
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Indian media moves towards voluntary death

योगेश मिश्र

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते 8 सितम्बर को एक मीडिया हाउस के ऑनलाइन कार्यक्रम में वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के जरिये भारतीय मीडिया के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं। उन्होंने कहा कि अब भारतीय मीडिया को भी ग्लोबल होने की जरूरत है। हमारे अख़बारों और पत्रिकाओं की ग्लोबल प्रतिष्ठा होनी चाहिए। हमें इस डिजिटल युग में विश्व के कोने कोने में डिजिटली पहुंचना चाहिए। लेकिन भारतीय मीडिया ग्लोबल पहुँच और ग्लोबल सम्मान पाए तो कैसे पाए?

कोरोना और मंदी खबर नहीं

ग़ौरतलब है कि बीते 11 सितम्बर, 2020 को समाचार एजेंसी एएफपी ने मुंबई डेटलाइन से एक खबर दी। जिसमें लिखा था,” भारत में कोरोना वायरस के 40 लाख से ज्यादा केस हैं।

sushant rhea सुशांत और रिया चक्रवर्ती (फोटो सोशल मीडिया से)

सीमा पर चीन के साथ विस्फोटक स्थिति बनी हुई है। लेकिन महीनों से टीवी चैनलों पर एक ही स्टोरी छाई हुई है कि किस तरह एक बॉलीवुड ऐक्ट्रेस ने अपने एक्स-बॉयफ्रेंड को पॉट (गांजे) और ब्लैक मैजिक से सुसाइड करने को मजबूर कर दिया।

महामारी के कारण अंतहीन लॉकडाउन और धड़ाम होती अर्थव्यवस्था के सामने भारतीय लोग सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद महीनों से टीवी पर इस केस की खबरों पर आंखे गड़ाए बैठे हैं।”

सब हदें पार करता मीडिया

भारत का अनियंत्रित, गैर जिम्मेदार और दिखावे वाले टीवी मीडिया का लंबा इतिहास टेबलायड स्टाइल पत्रकारिता का रहा है। ख़ास तौर पर क्राइम या सेलेब्रिटी जिस चीज में शामिल हों तो टीवी मीडिया सब हदें पार कर जाता है।

एक्ट्रेस श्रीदेवी की मौत के केस में ऐसा ही हुआ था, जब एक रिपोर्टर तो बाकायदा एक बाथ टब में लेट कर रिपोर्टिंग कर रहा था कि एक्ट्रेस कैसे डूब गयी होंगी।

rhea chakraborty रिया चक्रवर्ती (फोटो सोशल मीडिया)

तुर्की की समाचार एजेंसी ‘अनाडोलू’ ने सुशांत सिंह – रिया चक्रवर्ती मामले में भारतीया मीडिया की ‘घनघोर पक्षपातपूर्ण’ रिपोर्टिंग की भर्त्सना की है।

समाचार एजेंसी ने प्रेस कौंसिल के दिशा निर्देशों का हवाला देते हुए लिखा है कि किस तरह भारतीय मीडिया का एक वर्ग बेहद आक्रामक और पक्षपात पूर्ण रिपोर्टिंग करने के साथ-साथ मीडिया ट्रायल कर रहा है।

आखिर कितना नीचे गिरेगा

गल्फ न्यूज़ में स्वाती चतुर्वेदी ने सम्पादकीय पेज के एक लेख में भारतीय मीडिया की हालत का वर्णन करते हुए पूछा है कि मीडिया आखिर कितना नीचे गिरेगा। लेख में कहा गया है कि भारत में मीडिया प्रतिदिन अपनी ही छीछालेदर कर रहा है।

हफिंग्टन पोस्ट में एक समाचार रिया - सुशांत केस की रिपोर्टिंग पर छपा जिसमें लिखा है कि ‘क्या भारतीय जर्नलिस्टों को किसी मौत पर संवेदनशीलता से रिपोर्ट करने की ट्रेनिंग या शिक्षा दी जाती है? इस खबर में पूरे भारतीय मीडिया की ट्रेनिंग पर सवाल उठाया गया है।

टीवी बंद करने के सिवा विकल्प नहीं

यह सब सवाल और इसी तरह के तमाम सवाल पूछने के लिए रोज़ अपनी टीवी खोलते बंद करते दर्शक राह तलाश रहे हैं कि बंद करके छुट्टी पाने के सिवाय आख़िर इन मीडिया वालों से बात कैसे की जाये?

अब तो संपादक के नाम पत्र का कालम भी ख़त्म हो गया। टीवी के पास तो रटा रटाया जुमला है कि दर्शक जो देखना चाहते हैं, हम वहीं दिखा रहे हैं।

letter to editor

पर किसी के पास इस बात का जवाब नहीं है कि दर्शकों की पसंद जानने का उनके पास तरीक़ा क्या है। केवल टीआरपी न।

टीआरपी के खेल का गोलमाल टीवी का दर्शक भले न समझ पाये पर टीवी में काम करने वाले तो समझते होंगे। स्वीकारते भले न हों। तो क्या मीडिया की ज़िम्मेदारी केवल टीआरपी तक है।

जिम्मेदारी का सवाल

टीआरपी के खेल पर यक़ीन करने वालों को आँख खोलना चाहिए। हमारे आपके प्राइम टाइम से ज़्यादा टीआरपी मनोरंजन चैनलों के कई कार्यक्रम जुटा ले रहे हैं। धार्मिक कार्यक्रमों की तो मैं बात ही नहीं कर रहा हूँ।

mahabharat - ramayan

अकेले रामायण व महाभारत की टीआरपी कई खबरिया चैनलों के समूचे साल के कार्यक्रम नहीं जुटा पाते हैं।

सवाल यह भी उठता है कि टीआरपी के अलावा समाज, देश की कोई और हमारी ज़िम्मेदारी है या नहीं। यदि है तो इसका पालन हम आप मिलकर कितना कर पा रहे हैं।

मीडिया की हत्या या आत्महत्या

यह सोचने और किसी फैसलाकुन स्थिति में पहुँचने का समय आ गया है। क्योंकि लोग यह जानने में भी रूचि रख रहे हैं कि मीडिया की हत्या की जा रही है या किसी प्रायोजित तरीक़े से मीडिया को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है। या फिर मीडिया की हत्या या आत्महत्या जो भी हो रहा है वह उसकी सहमति से हो रहा है।

इस सवाल का जवाब अगर मीडिया के बाहर से आया तो मीडिया में काम करने वालों के लिए बेहद दुखद व शर्मनाक होगा। क्योंकि ज़रूर कुछ लोग हत्या आत्महत्या से ऊपर उठ कर छोटी या बड़ी जगहों पर काम कर ही रहे होंगे।

टीवी मीडिया, मीडिया का ये आत्मघाती रवैया यूं तो काफी अरसे पहले शुरू हो गया था। लेकिन तब कहा जा रहा था कि चूँकि टेलीविज़न मीडिया भारत में अभी जड़ें जमा रहा है। प्रयोगों के दौर में है। सो कमियों को अनदेखा किया जाना चाहिए।

14 जून से विस्फोट

हैरानी की बात है कि मीडिया परिपक्व और जिम्मेदार होने की बजाय पूरी तरह गैरजिम्मेदार, पक्षपाती और असंवेदनहीनता की सब हदें पार करता चला गया। जिसका नमूना ठीक 14 जून से विस्फोट की शक्ल में सामने आया है।

14 जून इसलिए कि उसी दिन मुंबई में युवा एक्टर सुशांत सिंह राजपूत अपने अपार्टमेंट में फांसी पर लटकते मिले थे। इस केस की रिपोर्टिंग को भारतीय मीडिया के लिए पतन का एक बेंचमार्क मान लिया जाना चाहिए जिसके साथ मीडिया के भी सुसाइड की प्रक्रिया पूरी हो गयी।

जहाँ महामारी का दिनोंदिन बढ़ता रौद्र रूप सामने हो, अर्थव्यवस्था की गंभीर तस्वीर हो, बेरोजगारी बढ़ती जा रही हो, सीमा पर चीन से गंभीर तनाव हो, जीएसटी पर राजनीतिक युद्ध चल रहा हो, लेकिन एक मीडिया ट्रायल के सामने सभी मसले गौण ही नहीं बल्कि सिरे से नदारद कर दिए गए।

टीआरपी की वेदी

मौजूदा केस ने मीडिया जगत की असलियत को एक्सपोज करके सबके सामने रख दी है कि ये सुरसा के मुंह की तरह है जहाँ अटकलबाजी, नक़ल, सनसनीखेजवाद की भूख खत्म बढ़ती ही जाती है और जहाँ टीआरपी की वेदी पर सच्चाई, तथ्यों और असल मुद्दों की बलि चढ़ाई जाती है।

ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल (बार्क) और मार्किट रिसर्च फर्म नील्सन की रिपोर्ट बताती है कि 25 जून से 8 सितम्बर तक न्यूज़ चैनलों ने अपने कवरेज का अधिकाँश हिस्सा सुशांत केस के सुपुर्द कर दिया।

45 डिबेट सुशांत रिया पर

सिर्फ 1 से 7 अगस्त वाले हफ्ते में अयोध्या में राम मंदिर शिलान्यास की ख़बर हेडलाइंस में छाई। उसके पहले और बाद में सिर्फ एक ही खबर थी – सुशांत रिया केस। बार्क के अनुसार 24 जुलाई से 29 जुलाई के सप्ताह में रिपब्लिक टीवी ने कुल 50 डिबेट किये, जिसमें से 45 सुशांत केस पर थे।

एक डिबेट नीट-जेईई परीक्षा और मात्र एक डिबेट कोरोना वायरस संकट पर रही। नतीजा भी हैरान करने वाला रहा – रिपब्लिक टीवी को मार्किट शेयर में 50 फीसदी का फायदा हुआ।

टीआरपी का एक स्याह पहलू है कि अगर ऐसी पत्रकारिता के लिए ऑडियंस न होता तो चैनल को ये लाभ मिलना संभव नहीं होता। यह भारतीय समाज के भी निराशाजनक और दुखद हिस्से को दर्शाता है।

रिया को क्या क्या नहीं कह दिया

टीवी चैनलों में रिया चक्रवर्ती को ड्रग डीलर, माफिया गर्ल, विषकन्या, हत्यारिन, लुटेरी और न जाने क्या क्या साबित करने की होड़ लगी थी। वहीं सच्चाई यह है कि अगर कोई हत्या का दोषी था तो वो था हमारा मीडिया। जिसने पत्रकारिता के सभी मानदंड सिरे तक भरे कूड़ेदान में फेंक दिए।

एक बात और याद करिए कि यही चैनल सुशांत की मौत को पहले सुसाइड करार दे रहे थे। किस तरह रातों रात चैनलों की जुबान बदल गयी। एक के बाद एक षड्यंत्रों की थ्योरी सामने रखी जानें लगीं।

इम्मा बाउंस का अर्थ ही बदल दिया

यह टीवी न्यूज़ इंडस्ट्री की अगुवाई में भारतीय पत्रकारिता के पतन की कहानी का एक हिस्सा है। सनसनी फैलाने वाली कवरेज का एक बेहतरीन नमूना रहा रिया चक्रवर्ती के ऑनलाइन चैट का।

रिया ने किसी दोस्त से बातचीत को ‘इम्मा बाउंस’ शब्द लिख कर समाप्त किया था। ’टाइम्स नाउ’ चैनल ने ‘इम्मा बाउंस’ को पकड़ लिया। ऐलान कर दिया कि चैनल को रिया के वित्तीय घोटालेबाजी का पता चल गया है। क्योंकि वह ‘बाउंस चेक’ के बारे में बात कर रही थी।

चैनल ने कहा कि उसे बाउंस चेक मिल गया है। ऑनलाइन चैट करने वाले युवाओं के लिए यह जबरदस्त रूप से हास्यास्पद ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ थी क्योंकि पूरी दुनिया में ‘इम्मा बाउंस’ एक लोकप्रिय इन्टरनेट स्लैंग है, जिसका मतलब होता है – अच्छा अब हम चलते हैं। यानी खुदा हाफ़िज़।

सारी हदें तोड़ दीं

लेकिन जैसा अपेक्षित था, इस हरकत का इस टीवी चैनल पर कोई असर नहीं पड़ा। यह तो एक मामूली सा उदाहरण है। कोई चैनल सुशांत की आत्मा से बात करने का दावा करने लगा।

तो एबीपी पर सुशांत के पोस्टमॉर्टेम का सीन रिक्रियेट करके दिखाया गया। जिसमें टीवी एंकर और ‘एक्सपर्ट्स’ डाक्टरों का भेष धारण किये हुए थे। एक पुतले का तो बाकायदा गला घोंट कर दिखाया गया कि किस तरह सुशांत की मौत हुई होगी।

टीआरपी की दौड़ जीतने के लिए एक चैनल आजतक ने तो रिया का इंटरव्यू कर डाला। रिया का पक्ष मीडिया में आना चाहिए पर जो इंटरव्यू ले रहा हो उसे ‘सत्यमेव जयते’ नहीं कहना चाहिए। आजतक व रिपब्लिक भारत की रिया सुशांत केस की रिपोर्टिंग में गला काट प्रतिस्पर्धा देखते बनी।

दांव पर विश्वसनीयता

हम थोड़ा पीछे चलते हैं। मीडिया को विश्वसनीय कीं कसौटी पर कसते हैं। लखनऊ से निकलने वाले एक हिंदी अख़बार ने 30 अक्टूबर,2019 के अपने अंक में यह लिखा कि इस बार दिवाली पर कम हुई ज़हरीली हवा। यह ख़बर निस्संदेह बहुत उत्साह बढ़ाने वाली थी।

यह ख़बर यह बता रही थी कि इस बार दिवाली पर सख़्ती काम आई। यह रिपोर्ट IITR के हवाले से प्रकाशित की गई थी। इस रिपोर्ट की सच्चाई की क़लई ठीक दूसरे दिन के उसी अख़बार में खुल गई। अख़बार ने लिखा कि शहर में गोमती नगर की हवा सबसे ज़हरीली पाई गई। इसके हिसाब से गोमती नगर के इलाक़े की क्यूयूआई.372 मानी गई है। यह संख्या गुणवत्ता के लाल रंग को प्रदर्शित करती है।

हवा के आंकड़े में भी खेल

अख़बार ने 30 अक्टूबर, 2019 के अंक में लिखा कि गोमती नगर की हवा दिवाली के पहले 316.28 क्यूयूआई थी। जबकि दिवाली के बाद यहाँ की हवा का असर 307.31 हो गया।

अख़बार के 1 नवंबर, 2019 के अंक में दर्ज आंकड़ा बताता है कि गोमती नगर में हवा के प्रदूषण का मानक 372 क्यूयूआई पहुँच गया।

यही नहीं, 2 नवंबर, 2019 को इसी अख़बार के अंक में यह आंकड़ा 346 दर्ज किया गया। सवाल उठता है कि आख़िर हवा के प्रदूषण को लेकर कि किस आंकड़े पर पाठक को यक़ीन करना चाहिए।

गरीब बच्ची की तस्वीर

एक दूसरा वाक़या मीडिया में प्रकाशित उस ख़बर से जुड़ा है, जिसमें अयोध्या में सरकार द्वारा मनाए जाने वाले दीपोत्सव पर ख़र्च होने वाली धन राशि का ज़िक्र आता है।

ayodhya deep दीपों से जगमगाती अयोध्या (फोटो न्यूजट्रैक)

दीपोत्सव के बाद एक गरीब बच्ची की फ़ोटो वायरल हुई। जिसमें उसे दीपक बीनते यानी इकट्ठे करते और दीपक से तेल निकलते दिखाया गया। निसंदेह फ़ोटो बेहद मार्मिक लगी।

फ़ोटो भारत की उस ग़रीबी को बयान कर रही है, जिससे आम तौर पर लोग मुँह चुराते हैं या फिर ग़रीबी को सिर्फ़ अपने सियासी एजेंडे तथा बहस का मुद्दा बनाते हैं ।

आंकड़ों का उलटफेर

यह नि: संदेह किसी भी समाज के लिए अच्छी बात नहीं मानी जाएगी कि देश में भूख, ग़रीबी हो। लोगों को कपड़े के बिना रहना पड़े। इन पर बहस करने की जगह मीडिया ने ख़बर चलायी कि इस दीप उत्सव पर सरकार ने बेतहाशा पैसा ख़र्च किया।

आंकड़े भी मीडिया ने उलट पलटकर देखे दिखाये। देश के तक़रीबन सभी मीडिया समूहों ने यह ख़बर चलायी कि 26 अक्टूबर, 2019 को अयोध्या में 5.51 लाख दीये जलाने का जो सरकारी कार्यक्रम सम्पन्न हुआ, उसमें राज्य सरकार ने 133 करोड़ रुपया ख़र्च किया। सोशल मीडिया पर भी यह ख़बर चटख़ारे लेकर कई दिन चली।

132.70 लाख को बदल दिया 133 करोड़ में

दुर्भाग्य है कि हमारे मीडिया बंधुओं को यह याद ही नहीं रहा कि इस आयोजन के लिए राज्य सरकार ने कैबिनेट से 132.70 लाख रुपये की ही स्वीकृति हासिल की थी।

यही नहीं,राज्य सरकार ने बाक़ायदा रिलीज़ जारी करके बताया था कि इस आयोजन पर 132.70 लाख रुपये ख़र्च होंगे। इसे मीडिया की चालाकी कहें या फिर अज्ञानता ? जिसके चलते उसने 132.70 लाख रुपये को 133 करोड् पढ़ लिया।

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इस तरह की ग़लतियाँ हमारा मीडिया इन दिनों तेज़ी से करने लगा है। हद तो यह है कि इस गलती के उजागर होने पर किसी भी मीडिया समूह ने न तो खेद जताया न ही 132.70 लाख रूपये का आँकड़ा दुरुस्त किया।

असफल होने की लगातार कोशिश

हमने जिस नरेंद्र मोदी को 2014 से पहले अस्पृश्य बना रखा था। उसे जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का दो बार अवसर दे दिया। हम मोदी सरकार के दौरान केवल एक राजनीतिक खबर ब्रेक करने में कामयाब हुए वह यह कि अमित शाह मोदी सरकार में गृहमंत्री होंगे।

बाक़ी हमने राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए तमाम नाम छापे चलाये पर कोई सच नहीं हो पाया। हालाँकि एक ब्लागर ने राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद का नाम पहले ही लिख दिया था।

हमने कोशिश की। हम सफल नहीं हुए। यह कोई बात नहीं। पर हम लगातार असफल होने की कोशिश करते रहे यह दूसरी बात है। यही हो रहा है। यही किया जा रहा है।

मीडिया स्वेच्छा मृत्यु की ओर

हमारे एक सहयोगी हैं नीलमणि जी, पुराने बड़े और अनुभवी पत्रकार हैं। वह एक दिन बात करने के लगे कि मीडिया की हत्या की जा रही है। हमने कहा नहीं मीडिया स्वयं मरने को तैयार है। वह स्वेच्छा मृत्यु, दूसरे की, घटनाओं की, उसके पात्रों की शर्त पर, वरण करने को तैयार है। कर रहा है।

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हमने उनसे कहा कि एक लड़का सड़क पर 150 किलोमीटर की गति से मोटरसाइकिल चलाता हुआ दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाता है। इसे आप दुर्घटना में मृत्यु कहेंगे। पर यह एक नये तरह की आत्महत्या है।

नये तरह से मर जाना है। हम मीडिया के लोग रोज़ किसी न किसी तरह मरने के नये नये उपाय न केवल ढूँढते हैं। बल्कि उसे अमल में भी लाते हैं। तभी तो मोदी हमें ग्लोबल होने की सलाह देते हैं। वैश्विक मीडिया हमें दूसरी तमाम नसीहतें देता है।

सबसे बड़ा सवाल

मतलब साफ़ है कि मोदी जिस भारतीय मीडिया के ग्लोबल होने की बात कर रहे हैं वो पहले इस काबिल तो बने।

वर्तमान स्वरूप में ये मीडिया दुनिया के सामने देश और देशवासियों के बारे में वैसी ही छवि प्रस्तुत कर रहा है जैसी छवि पहले सपेरों, जादूगरों, तंत्र मंत्र आदि की बनी हुई थी, जिस छवि को बहुत मुश्किल से थोड़ा बहुत ही बदला जा सका है।

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लेकिन अब भारतीय मीडिया एक अनपढ़, अज्ञानी, अशिक्षित, भीड़तंत्र समाज की तस्वीर पेश कर रहा है। क्या यही मीडिया ग्लोबल बनने योग्य है?

( लेखक न्यूज़ ट्रैक/अपना भारत के संपादक हैं।)



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