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टैक्सी वाले का है अस्पताल, कोरोना को मात दे रहे ये पांच वीर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आज मन की बात में कहा है यह वह समय है जब हर देशवासी को यह सोचना चाहिए कि वह कोरोना की जंग को जीतने के लिए चल रहे इस महायज्ञ में कितना और क्या योगदान कर सकता है।

राम केवी
Published on: 26 April 2020 10:33 AM GMT
टैक्सी वाले का है अस्पताल, कोरोना को मात दे रहे ये पांच वीर
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रामकृष्ण वाजपेयी

कोरोना के खिलाफ जारी जंग में न सिर्फ सरकार बल्कि तमाम ऐसे अनाम योद्धा जुटे हैं जिन्हें न नाम की चिंता न सराहना की। वह तो कोरोना के खिलाफ इस जंग में अपने अपने मोर्चों पर डट गए हैं। आज हम कुछ ऐसे ही कोरोना वॉरियर्स की चर्चा करेंगे। जिनके न तो आपने नाम सुने होंगे न ही उनके बारे में कुछ जानते होंगे। इन सब कोरोना वॉरियर की एक ही मंशा है इस जंग में हम कहीं से कमजोर न पड़ें।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आज मन की बात में कहा है यह वह समय है जब हर देशवासी को यह सोचना चाहिए कि वह कोरोना की जंग को जीतने के लिए चल रहे इस महायज्ञ में कितना और क्या योगदान कर सकता है।

मिस इंग्लैंड भाषा मुखर्जी लौटीं डॉक्टरी के पेशे में

शुरुआत करते हैं ब्रिटेन की भाषा मुखर्जी से जो कि 2019 में मिस इंग्लैंड रही और जब कोरोना संकट की बात आई तो ऐसे मुश्किल समय में उन्होंने अपने सिर पर सजा ब्यूटी क्वीन का ताज उतार कर परे खिसका दिया और बन गईं डॉक्टर। और अपने पेशे के फर्ज को निभाना शुरू कर दिया। हम आपको बता दें कि ब्यूटी क्वीन बनने से पहले भाषा ने डॉक्टरी की पढ़ाई की थी।

भाषा मुखर्जी

यूं तो भाषा मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ थी लेकिन जब उनकी उम्र मात्र 9 साल थी तो उनके अभिभावक ब्रिटेन में जाकर बस गए। भाषा ने नॉटिंघम विश्वविद्यालय से मेडिकल साइंस में स्नातक की पढ़ाई की। बोस्टन के पिलग्रिम अस्पताल में जूनियर डॉक्टर के रूप में काम किया। लेकिन जब वह मिस इंग्लैंड बन गईं तो उन्होंने अपना डॉक्टरी का पेशा छोड़ दिया क्योंकि इसके लिए उनके पास समय नहीं था। लेकिन चैरिटी शो में उनकी रुचि थी इसे वह करती रहीं।

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जब कोरोना संकट आया और लोग संक्रमित होने लगे तो पीड़ित मरीजों की सेवा की भावना से भाषा ने अपना ब्यूटी क्वीन का स्टेटस एक पल में छोड़ दिया। अपने साथी डॉक्टरों की मेहनत देखकर अपने जज्बात पर वह काबू नहीं रख सकीं और फिर से डॉक्टर की भूमिका में लौटने का फैसला किया। भाषा के मन ने कहा उन्हें भी इस महामारी के खिलाफ लड़ना चाहिए और वह अपने काम पर लौट आयीं।

किराए की टैक्सी चलाने वाले सैदुल का है अपना अस्पताल

आइए बात करते हैं भाषा मुखर्जी की तरह ही एक दूसरे कोरोना वीर की जिनका नाम है सैदुल लस्कर। यह कोलकाता में टैक्सी ड्राइवर हैं और किराए की टैक्सी चलाते हैं। कोरोना वायरस के खिलाफ जंग में सैदुल ने हाल ही में खंड विकास अधिकारी से मिलकर मुख्यमंत्री राहत कोष में 5000 रुपए दिए हैं, लेकिन सैदुल का योगदान यहीं नहीं खत्म होता है।

एक समय था जब सैदुल के पास अपनी टैक्सियां थीं उनका खुशहाल परिवार था। लेकिन अपनी प्यारी बहन की मौत ने सैदुल की जिंदगी बदल दी। बहन की इलाज के अभाव में मौत का सदमा सैदुल पर कुछ ऐसा हुआ कि इनकी जिंदगी ही बदल गई।

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सैदुल ने अपनी सारी जमा पूंजी अपनी इकलौती बहन मारूफा की स्मृति में एक अस्पताल बनवाने में लगा दी। सैदुल की बहन मारूफा को 2004 में छाती का इंफेक्शन हुआ था और किसी अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बिना इलाज के ही उसकी मौत हो गई थी।

बहन की दर्दनाक मौत के बाद सैदुल के मन में विचार आया कि कोई और बिना इलाज के दम ना तोड़े, इसके लिए सैदुल ने अपनी तीन टैक्सी बेच दीं। अपनी पत्नी शमीमा के सारे गहने बेच दिए और इसके बाद 2008 में अपने अस्पताल की शुरुआत की।

अस्पताल सौंप दिया कोरोना पीडि़तों के उपचार के लिए

कोरोना जंग की भयावहता को देखते हुए और अस्पतालों में बिस्तरों की कमी को जानकर सैदुल ने अपना अस्पताल क्वॉरेंटाइन कर सरकार को सौंप दिया ताकि कोरोना के मरीजों को बेहतर इलाज मिल सके। अस्पताल की स्थापना के पीछे भी सैदुल का लक्ष्य भी यही था इस अस्पताल से आम लोगों को सस्ता और बेहतर इलाज मिले और जब देश कोरोना के खिलाफ जंग लड़ रहा है तो सैदुल ने अपनी ओर से यह छोटी सी पेशकश की।

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अब प्रशासन इस अस्पताल का सर्वेक्षण करके यहां पर आइसोलेशन तथा क्वॉरेंटाइन सुविधाओं का और विकास करने जा रहा है। 55 बिस्तरों वाले इस अस्पताल में अभी 6 डॉक्टर और अट्ठारह चिकित्सा कर्मी काम करते हैं। मारूफा मेमोरियल हॉस्पिटल दक्षिण 24 परगना जिले में बरूईपुर के पुनरी गांव में है, जहां लगभग 100 गांवों के लोग इलाज के लिए आते हैं। अस्पताल की ओपीडी में 300 से ज्यादा मरीजों को रोज देखा जाता है और उन्हें निशुल्क दवा दी जाती है।

कक्षा नौ के छात्र डी युवा ने टच मी नॉट सैनिटाइजर

बेंगलुरु के नौवीं कक्षा के छात्र डी युवा स्कूल बंद होने के कारण आजकल घर पर ही रह रहे हैं। उन्होंने जब देखा कि हर कोई व्यक्ति कोविड 19 के संक्रमण से डरा हुआ है और बहुत से लोग एक ही सैनिटाइजर की बोतल का उपयोग कर रहे हैं और इस क्रम में कई लोग उसे छूते हैं जिससे घातक कोरोनावायरस के संपर्क में आने का खतरा बहुत अधिक रहता है तो उन्होंने टच मी नॉट सैनिटाइजर डिस्पेंसर बनाने के बारे में सोचा।

डी युवा ने क्यूटीपाई नामक एक स्टार्टअप से प्रशिक्षण लिया और सैनिटाइजर डिस्पेंसर बनाना शुरू किया तो मात्र 4 घंटे में उसको तैयार कर लिया।

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इस सैनिटाइजर डिस्पेंसर को छूने की जरूरत ही नहीं इस डिस्पेंसर को बनाने के लिए एक मुख्य बोर्ड, सेंसर एक्यूएटर्स, बिल्डिंग ब्लॉक और मोबाइल ऐप का इस्तेमाल किया गया। दो शेल्फ दाएं और बाएं बनाए। सैनिटाइजर को हाथों की हलचल महसूस करने के लिए एक सेंसर लगा दिया। दाएं तरफ हाथ बढ़ाने पर हाथ सैनिटाइज होता है और बाएं तरफ बढ़ाने पर लिक्विड साबुन हाथ में आ जाता है।

दीपा की जीवनम ने केरल के बाढ़ पीड़ितों से शुरू किया सफर

चुनौती कठिन हो तो कोई भी कहीं से भी उस में सहयोग करके अपना योगदान दे सकता है। बात करते हैं दीपा नायर वेणुगोपाल की जिनकी संस्था जीवनम 2018 में केरल की बाढ़ के समय लोगों की मदद के लिए आगे आई थी। शुरुआत में यह संस्था कटे फटे कपड़ों से थैले बनाती थी। आज इस संस्था की महिलाएं मास्क तैयार कर रही हैं।

दरअसल 2018 में जब केरल में भीषण बाढ़ आई थी तब इस संस्था ने लोगों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाया और बाढ़ पीड़ितों को आवश्यक बर्तन किराने का सामान अन्य चीजों से मदद करने का काम किया। बाद में महिलाओं को रोजगार के लिए प्रशिक्षित करने का काम शुरू किया। जिसमें सिलाई केंद्र बनाकर महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया और रोजगार दिया।

30 महिलाएं प्रतिदिन बना रही हैं 200 से 300 मास्क

आज यह संस्था और इसकी 30 महिलाएं प्रतिदिन लगभग 200 से 300 मास्क बनाती हैं। दीपा की संस्था कोरोना के खिलाफ जंग जीतने के लिए हैंड सैनिटाइजर भी बनाना चाहती हैं अगर सरकार से अनुमति मिली तो यह उसे भी बनाकर मुफ्त वितरित करना शुरू कर देंगी।

95 साल की दादी खुद सिलाई मशीन चलाकर तैयार कर रहीं मास्क, बांट रहीं निशुल्क

कोरोना के खिलाफ इस जंग में सबसे बुजुर्ग योद्धा हैं 95 साल की दादी मां पी नाघाक्लियानी यह मिजोरम की रहने वाली हैं। अपने 8 बच्चों और 20 पोते पोतियो के साथ आइजोल के द्वारपुरी वेंग इलाके में रहती हैं। लेकिन कोरोना की जंग में ये एक मजबूत सिपाही हैं, इन्होंने अपनी पेंशन की 1 महीने की पूरी रकम मुख्यमंत्री राहत कोष में दान की है और जरूरतमंदों के लिए मास्क भी तैयार कर रही हैं।

बेशक दादी मां के चेहरे पर तमाम झुर्रियां लदी हैं लेकिन उनका मन आज भी सुंदर है, आज भी जवान है। वह युवाओं की तरह सोचती हैं। वह मिजोरम के पूर्व दिवंगत विधायक लालरिलियाना की पत्नी हैं। उनके पति 1972 में विधानसभा के लिए चुने गए थे, उनकी 1978 में मौत हो गई।

वह कहती हैं कि जब उन्होंने कोरोना वायरस के बारे में जाना और इसकी भयानकता को समझा तो उनके मन में अपनी सीमित क्षमता में कुछ करने की इच्छा हुई। पहले वह अपनी आजीविका के लिए सिलाई का काम करती थीं। इसलिए कोरोना संकट के समय एक बार फिर सिलाई मशीन को झाड़पोछकर मास्क तैयार करने का काम शुरू कर दिया है। वह मास्क निशुल्क बांट रही हैं। मुख्यमंत्री जोरमथांगा भी उनकी सराहना कर चुके हैं।

राम केवी

राम केवी

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