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इस कवि की रचनाएं देशभक्ति से भरी हैं, ठुकरा दिया था नेपाल के इस सम्मान को

हिंदी और उर्दू साहित्य के ख्याति प्राप्त कवि और शायर बेकल उत्साही का नाम उन हस्तियों में से एक है, जिनकी रचनाएं प्रकृति के साथ-साथ गांव प्रेम, सामाजिक सौहार्द और देशभक्ति की भावना से भी परिपूर्ण होती थीं। वे भाषा की त्रिवेणी थे जहां अवधी-हिंदी-उर्दू तीनों भाषाएं गले मिलती थीं।

Ashiki
Published on: 1 Jun 2020 5:52 AM GMT
इस कवि की रचनाएं देशभक्ति से भरी हैं, ठुकरा दिया था नेपाल के इस सम्मान को
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गोंडा: हिंदी और उर्दू साहित्य के ख्याति प्राप्त कवि और शायर बेकल उत्साही का नाम उन हस्तियों में से एक है, जिनकी रचनाएं प्रकृति के साथ-साथ गांव प्रेम, सामाजिक सौहार्द और देशभक्ति की भावना से भी परिपूर्ण होती थीं। वे भाषा की त्रिवेणी थे जहां अवधी-हिंदी-उर्दू तीनों भाषाएं गले मिलती थीं। हिंदू मुस्लिम एकता, हिंदी-उर्दू समरसता के अलम्बरदार बेकल उत्साही ने हिन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब और कबीर, मीर और नज़ीर की परम्परा को अपनी शायरी के ज़रिये ख़ास मिज़ाज दिया। बेकल उत्साही ने कभी अपने बारे में लिखा था-

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‘सुना है मोमिन ओ ग़ालिब न मीर जैसा था

हमारे गांव का शायर ‘नज़ीर‘ जैसा था,

छिड़ेगी दैर-ओ-हरम में यह बहस मेरे बाद

कहेंगे लोग कि ‘बेकल‘ कबीर जैसा था।‘

मोहम्मद शफी खान बने बेकल उत्साही

उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले (तब गोंडा) में उतरौला तहसील क्षेत्र के गौर रमवापुर गांव में 1 जून 1924 को जमींदार परिवार में जन्मे बेकल उत्साही का मूल नाम मोहम्मद शफ़ी खान था। शेरो-शायरी के शौक ने पिता-पुत्र के रिश्ते में दरार पैदा कर दी थी। उनके पिता लोधी मोहम्मद जफर खान जब उन्हें जमींदारी के कानून कायदे बताते थे तो वे खेतों में बैठकर शेरो-शायरी करते रहते। पिता को यह नागवार लगता। फिर उन्होंनेे अपनी मंजिल तय कर ली और एक दिन ऐसा आ गया जब उनकी पहचान मुहम्मद शफी खान की जगह बेकल उत्साही के नाम से बन गई।

साल 1945 में देवा शरीफ के हजरत वारिस अली शाह की मजार की यात्रा के दौरान, शाह हाफिज प्यारे मियां ने कहा, बेदम गया बेकल आया। उस घटना के बाद मोहम्मद शफी खान ने अपना नाम बेकल वारसी के रूप में बदल लिया। 1952 में . जवाहर लाल नेहरू एक कार्यक्रम में शामिल होने गोंडा के शहीदे आजम सरदार भगत सिंह इण्टर कालेज (तब टामसन इण्टर कालेज) पहुंचे तो वहां बेकल ने ‘किसान गीत’ पाठ करके नेहरू का स्वागत किया।

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कविता से प्रभावित होकर पं. नेहरू ने कहा ये हमारा उत्साही शायर है। इसके बाद से ही उनका नाम बेकल उत्साही हो गया। उन्होंने देश-विदेश में घूम-घूमकर अवधी-उर्दू-हिन्दी शायरी से लोगों को जोड़ा। 03 दिसंबर 2016 को राम मनोहर लोहिया अस्पताल दिल्ली में उनका निधन हो गया।

कक्षा सात से शुरु किया सफर, त्यागा जमींदारी

बेकल उत्साही ने 1942 में पहली बार जब बलरामपुर के एमपीपी इंटर कालेज में शेर पढ़ा तब वे कक्षा सात में पढ़ते थे। लेकिन इसके बाद उन्होंने पलटकर नहीं देखा और शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचे। अमूमन लोग कामयाबी और शोहरत के बाद अक्सर लोग अपने वतन और मिटटी से कट जाते हैं। लेकिन बेकल उत्साही में सादगी फक्कड़़पन था, वे मस्त मौला किस्म के इंसान थे।

गांव, खेत, खलिहान और पगडंडियों की याद दिलाने वाले इस महान शायर ने कभी भी अपनी मिटटी से नाता नहीं तोड़ा। वे जमींदार थे, फिर भी उन्होंने सम्पन्नता का कभी कोई प्रदर्शन नहीं किया। बल्कि इससे बचने के लिए आपने अपनी तमाम चल-अचल संपत्तियों को जरुरतमंदों के बीच बांट दिया था। उन्होंने यह काम युवावस्था के पूर्व ही कर लिया था। ताकि काव्य रचना सृजन में कोई बाधा न आए। वे ज़मींदारी को शोषण का ही एक रूप मानते थे और कहते थे-

'ये दबदबा ये हुकूमत ये नश्शा-ए-दौलत,

किरायेदार हैं सब घर बदलते रहते हैं।'

अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी के गहन अध्येता बेकल ने अपनी कविता की शुरूआत अवधी से की और उनकी यह यात्रा उम्र के अंतिम पड़ाव तक जारी रही। इसी तरह 1952 से अंतिम समय तक मंचों पर भी उनकी उपस्थिति बनी रही।

आजादी की लड़ाई में जेल गये

बेकल साहिब का जन्म एक ज़मीदार परिवार में हुआ था। नाशिस्तें अदबी मुशायरे उनके घर पर होते थे। बचपन से साहित्य ने जड़े जमानी शुरू कर दी थीं। जब देश ग़ुलाम था। बेकल साहिब राजनैतिक नज़्में लिखा करते थे। अंग्रेज़ों को यह बात नागवार गुज़रती थी। कई बार क्रन्तिकारी और देशभक्ति ग़ज़लों को लिखने की वजह से जेल भी जाना पड़ा। वह साहित्य की कमोबेश हर विधा में माहिर खिलाडी थे। बात चाहे नात ए पाक की हो, कशीदा, मनकबत, दोहा, रुबाई, ग़ज़ल, या फिर गीत सभी विधाओं में खूब लिखा।

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नेहरु परिवार के बहुत करीब रहे

1952 में पहली मुलाकात में ही पं. नेहरु बेकल के मुरीद हो गए थे। तभी से वह उनके सम्पर्क में रहने लगे थे। नेहरु के बाद इन्दिरा और राजीव गांधी उन्हें बहुत प्यार करते थे। इसीलिए वे नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक कांग्रेस से जुड़े रहे। बकौल बेकल उत्साही बलरामपुर का उनका घर बनवाने में पं. नेहरु ने करीब 35 हज़ार रुपये दिए थे। विरोधी विचारधारा के बाद बावजूद वह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के भी करीब रहे।

मिला पद्मश्री, बने सांसद

साहित्य में उनके योगदान के लिए 1976 में उन्हें राष्ट्रपति ने पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया। बेकल उत्साही 1986 में राज्य सभा के सदस्य भी रहे। वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा उन्हें यश भारती मिला था। 03 दिसंबर 2016 को दिल्ली में उन्होंने अंतिम सांस ली। प्रख्यात समकालीन साहित्यकार अशोक चक्रधर ने बेकल उत्साही के बारे में लिखा है कि बेकल उत्साही हमारे देश की वाचिक परंपरा में गंगा-यमुना की मिली जुली संस्कृति के अकेले गायक थे। उन्होंने इसकी तसदीक की-

'गजल के शहर में गीतों के गांव बसने लगे,

मेरे सफ़र के हैं ये रास्ते निकाले हुए।'

नेपाल के राष्ट्रकवि का पद ठुकराया

बलरामपुर जिला नेपाल से सटा हुआ है। नेपाल और भारत का रोटी और बेटी का रिश्ता है। बेकल की बड़ी बेटी का विवाह नेपाल सीमा से सटे लक्ष्मी नगर में हुआ है। इसलिए नेपाल उनका अक्सर आना होता था। नेपाल का राज घराना भी बेकल उत्साही का मुरीद था। यहां का शाही दरबार बेकल को हमेशा हमेशा के लिए अपनाना चाहता था। बकौल बेकल तत्कालीन राजा महेन्द्र ने उन्हें नेपाल का राष्ट्रीय कवि तक बनाना चाहा था। राजा की इच्छा थी कि बेकल हमेशा हमेशा के लिए नेपाल के हो जाएं। लेकिन बेकल भारत की मिट्टी से बेपनाह मोहब्बत करते थे और उन्हें बलरामपुर छोड़ना गंवारा न था। तो भला वह कैसे अपना देश कैसे छोड़ देते, उन्होंने राजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।

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हिंदी और उर्दू ख़ुसरो की जुड़वां बेटियां

उन्होंने अपनी शायरी में, जिसमें ग़ज़ल, गीत और दोहे सभी शामिल हैं, नए-नए प्रयोग भी किए। उन्होंने दोहे और छंद को तोड़-जोड़ कर गीतों को एक नया रूप दिया, जिसे वह ‘दोहिको’ कहते थे। शायरी की वह परंपरा जो अमीर खुसरो से शुरू होकर तुलसी, कबीर और नज़ीर से होती हुई उन तक पहुंची थी। बेकल उत्साही ने हिन्दी उर्दू लफ़्ज़ों के मेल से एक ऐसी शायरी तामीर की जिसमें गांवों में रहने वाले आम इंसानों के जज़्बात की तर्जुमानी और सदियों पुराने आपसी मेलजोल और भाईचारे की ख़ुशबू महकती थी। वे कहते थे कि हिंदी और उर्दू में कोई फर्क़ नहीं है, ये दोनों ख़ुसरो की जुड़वां बेटियां हैं जिनमें से एक दाएं से चल रही है और दूसरी बाएं से। उन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द को मजबूती देते हुए कहा-

धरम मेरा इस्लाम है, भारत जन्म स्थान

वुजू करूं अजमेर में, काशी में स्नान

उन्होंने उसे देश की सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू से जोड़ा -

गांव की खेतियां उजाड़ के हम,

शहर जाकर मकान बोते हैं।

भारतीय संस्कृति में रची-बसी और विशेष रूप से अवध के आंचलिक परिवेश में ढली उनकी शायरी अपनी भाषा की सादगी के कारण भी पाठकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करती हुई, अपनी ओर आकर्षित करती है-

‘खारी पानी बिसैली बयरिया

बलम बम्बइया न जायो

दूनौ जने हियां करिबै मजूरी

घरबारी से रहियये न दूरी

हियैं पक्की बनइबै बखरिया

बलम बम्बइया न जायो।

हमरे गांव मा कौन कमी है

स्वर्ग लागत है हमरी नगरिया,

बलम बम्बइया न जायो।‘

उर्दू ग़ज़ल और हिंदी गीत की विशिष्टताओं को एक दूसरे में समामेलन करने के कारण उनकी ग़ज़ल में या गीत में जो आंचलिकता और नयापन पैदा हुआ है। उससे भले ही उर्दू ग़ज़ल की परम्परागत दिशा में कुछ विचलन आया हो। लेकिन उर्दू शायरी को उनका ये योगदान ही है कि गांव और लोकजीवन की दैनिक छवियां उर्दू शायरी में इस तरह पहले कभी नहीं देखी गयीं-

फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है,

ग़रीब शर्माे हया में हसीन कुछ तो है।

लिबास क़ीमती रख कर भी शहर नंगा है,

हमारे गांव में मोटा महीन कुछ तो है।

अवधी भाषा और गांव उनके शायरी की बुनियाद

अवधी भाषा और गांव उनकी शायरी की बुनियाद में है। वह अवधी में शायरी करते रहे और जब उर्दू-हिन्दी में शायरी की तो उसमें भी अवधी के शब्दों और क्रियाओं को बखूबी पिरोया। उनकी गजलें इसकी गवाह हैं। उन्होंने ‘तंज के तीर मुझी पर सभी खींचे होंगे, आप जब और मेरे और नगीचे होंगे’ में जब उन्होंने ‘अवधी’ का ‘नगीचे’ शब्द उर्दू गजल में प्रयोग किया, तो लोगों ने बहुत नाक-भौं सिकोड़ा। वे कहते थे, ‘नजदीक’ को गजब लोच और लचक दी गोस्वामी तुलसीदास ने ‘नगीचे’ बनाकर। अपनी मातृभाषा से अगाध प्रेम ही था कि वे कहते, ‘अवधी जैसी तो कोई भाषा ही नहीं.’ उनका दिल अवधी की दुर्दशा पर रोता था। अपनी लोकभाषा के और देहाती संस्कारों को लेकर वे स्पष्ट रहे कि इसे छोड़कर दूसरी भाषा को बढ़ाना उनसे संभव नहीं-

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‘हमका रस्ता न बतावो हम देहाती मनई,

हमरी नस नस मा अवधी है अवधी का हम जानेन

अवधी हमका आपन मानिस हम अवधी का मानेन,

औरौ भासा न पढ़ावो हम देहाती मनई।’

वे कहते हैं-

मैं ख़ुसरो का वंश हूं, हूं अवधी का संत,

हिंदी मिरी बहार है, उर्दू मिरी बसन्त।

दर्जनों किताबें लिखीं, मिला पुरस्कार

बेकल उत्साही ने हिंदी और उर्दू दोनों को पूरी दुनिया में अपनी रचनाओं से परिचित करवाया। उनकी गीत, ग़ज़ल, नज़्म, मुक्तक, रुबाई, दोहा आदि विविध काव्य विधाओं में उनकी बीस से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसमंे 1952 में विजय बिगुल कौमी गीत, 1953 बेकल रसिया, अपनी धरती चांद का दर्पण, पुरवइया, महके गीत, निशाते ज़िन्दगी आदि प्रमुख हैं। 1976 में उन्हें पद्म श्री से नवाजा गया।

1986 में वो राज्यसभा में गए। 1980 में मीर तकी मीर अवार्ड, 1982 में नात पाक अकादमी पाकिस्तान द्वारा गोल्ड मेडल के अलावा तमाम साहित्यिक अवार्ड से भी नवाजा गया था। उन्हें अपनी किताब ‘अपनी धरती चांद का दर्पण‘ सर्वाधिक पसंद रही है। वे कहते थे-

'मैं तुलसी का वंशधर, अवधपुरी है धाम।

सांस-सांस सीता बसी, रोम-रोम में राम।'

रिपोर्ट: तेज प्रताप सिंह

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