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हाथरस कांड के पीछे छिपी है विपक्षियों की ये ख्वाहिश, दलित वोटों के लिए हो रहा ऐसा
यूपी में दलित वोटों की जंग अभी से दिखने लगी है। पिछले दिनों जिस तरह से हाथरस प्रकरण की आड़ में राजनीतिक खींचतान देखने को मिली है। उससे साफ है कि इसके पीछे कहीं न कहीं दलित वोटों को सहेजने की कवायद भी छिपी है।
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: भले ही यूपी के विधानसभा चुनाव होने में अभी एक डेढ़ साल का वक्त बाकी हो लेकिन यूपी में दलित वोटों की जंग अभी से दिखने लगी है। पिछले दिनों जिस तरह से हाथरस प्रकरण की आड़ में राजनीतिक खींचतान देखने को मिली है। उससे साफ है कि इसके पीछे कहीं न कहीं दलित वोटों को सहेजने की कवायद भी छिपी है। इस पूरे प्रकरण के सहारे हर राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में लगा है। इन दलों को दलित समाज की चिंता कम बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस बड़े वोट बैंक को अपने पाले में करने की चिंता अधिक है।
UP में शुरू हुई दलित वोटों की जंग
भाजपा हमेशा दलितों को हिंदू बनाकर रखना चाहती है। जबकि बसपा अपने बेस वोट दलित के साथ मुस्लिम और अन्य जातियों का गठजोड़ की रणनीति पर अमल करती है। कांग्रेस भी मुस्लिम के साथ दलितों को अपने पाले में करने की रणनीति अपनाती रही है। उधर, सपा दलित तो अलग कर अपने पाले को मजबूत करने की कोशिश है। ऐसे में इन बवालों के जरिए सियासी सूरमा नए समीकरण पर नजरें गड़ाए हुए है।
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दलित वोटों की नाराजगी बना बसपा की हार का कारण (फोटो- सोशल मीडिया)
बसपा की हार का कारण रहा दलित वोटों की नाराजगी
बसपा के सबसे मजबूत किले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हमेशा हाथी की धमक रहा करती थी। मगर, पहले 2014 के लोकसभा और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा लहर में इस क्षेत्र में बसपा बेहद कमजोर होती गयी। पिछले कई सालों से दलित वोटों के दम पर ही बसपा ने प्रदेश और देश की राजनीति में अपना मुकाम बनाया हुआ था लेकिन जब 2012 में बसपा सत्ता से बाहर हुई तो उसके पीछे दलित वोटों की नाराजगी सबसे बड़ा कारण माना गया।
भाजपा को दलित वोटों का मिला लाभ
वहीं, भाजपा ने दलित वोटों पर डोरे डालने की जो कवायद शुरू की उसका पूरा लाभ उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में मिला और 80 सीटों में से 72 सीटों पर उसने कब्जा कर केन्द्र की सत्ता हासिल की। 2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती को एक भी सीट नहीं मिली थी। उसका वोट 19 फीसदी रह गया था। इसके बाद 2017 और 2019 में भी कमोबेश यही हाल रहा। पर पिछले लोकसभा चुनाव में सपा के साथ हुए गठबन्धन से बसपा को लाभ मिला और उसे दस सीटे मिली जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अमरोहा सहारनपुर बिजनौर अैर नगीना सुरक्षित सीट शामिल है।
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BSP और कांग्रेस के नुकसान से भाजपा को फायदा (फोटो- सोशल मीडिया)
बसपा और कांग्रेस के नुकसान से भाजपा को फायदा
जानकारों का कहना है कि बसपा और कांग्रेस को हुए दलित वोटों के नुकसान का सीधा लाभ भाजपा को मिला है। 1990 के दशक में भाजपा को हर दस दलित वोट में से बमुश्किल एक मिल पाता था। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही तय हो गया था कि दलित वोट बैंक बसपा से खिसक चुका है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सभी 17 सुरक्षित सीटे और 2017 के विधानसभा चुनाव में आरक्षित 80 सीटों में से 76 सीटे जीतने के बाद इस बड़े वोट बैंक की ताकत का अहसास हो चुका है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दलित वोट छिटककर जिस तरह से भाजपा के पाले में गया है उससे बसपा सुप्रीमो मायावती का चिंतित होना स्वाभाविक है।
देखते देखते भाजपा के पाले में चला गया दलित वोट
बसपा संस्थापक स्व. कांशीराम ने वर्ण व्यवस्था को लेकर जिस तरह से दलितों, पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों को लामबन्द किया था उसको पूरा लाभ बसपा को मिला और इसी बड़े वोट बैंक के सहारे उसने अकेले अपने दम पर 2007 में यूपी में सत्ता हासिल की थी। इस बड़े परिवर्तन से दलितों में बहुत उम्मीदें जगी थी। लेकिन कभी दलित वोट पर दंभ भरने वाली मायावती के सामने ही उनका वोट बैंक भाजपा के पाले में चला गया।
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‘डैमेज कंट्रोल’ करने की कवायद शुरू
अब हाथरस कांड के बाद भाजपा रणनीतिकारों को इस बात की चिंता है कि कहीं दलित वोट बैंक एक बार फिर उनकी झोली से न छिटक जाए इसलिए वह ‘डैमेज कंट्रोल’ करने की कवायद में है। संगठन के लोगों से कहा गया है कि वह दलितों से सम्पर्क व संवाद बनाए रखे। खासतौर पर युवाओं को फोकस करने को कहा गया है।
क्या है विपक्षी दलों की ख्वाहिश?
बसपा सुप्रीमों मायावती से इतर कई दलित नेता ये नहीं चाहते कि दलित वोट बैंक भाजपा के पाले में जाए, इसलिए उन्हें एकजुट करने के लिए भीम आर्मी कोशिश में लगी हुई है। इसके पहले सहारनपुर में हुए दलित बनाम पुलिस बवाल के बाद सामने आए दलितों के संगठन भीम आर्मी भी राजनीतिक दलों के लिए चुनौती बन कर उभर रही है। दलितों के उत्थान और युवाओं के विकास के लिए संगठन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ा काम कर रहा है।
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