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ड्रैगन की बढ़ती महत्वाकांक्षा, इन वजहों से चौधराहट पकड़ रही जोर
आर्थिक मंदी के बाद चीन ने मौके को बखूबी भुनाया। उसके आर्थिक विकास और सरकारी बैंकों ने मंदी को संभाल लिया। लोकतांत्रिक अधिकारों से चिढ़ने वाले चीन ने कई दशकों तक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में खूब संसाधन झोंके। इन योजनाओं की बदौलत बीजिंग ने खुद को दुनिया का प्रोडक्शन हाउस साबित कर दिया।
दुनिया में चीन अब अमेरिका को टक्कर दे रहा है। ये वर्चस्व की लड़ाई बन गई है जिसमें चीन का मकसद दुनिया का नेता बनना। चीन के दबदबे की शुरुआत 2008 में हुई जब अमेरिका आर्थिक मंदी से खस्ताहाल हो रहा था। तभी चीन अपने यहां भव्य तरीके ओलंपिक खेलों का आयोजन कर दिया। ओलंपिक के जरिए बीजिंग ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अपने बलबूते क्या क्या कर सकता है।
आर्थिक मंदी के बाद चीन ने मौके को बखूबी भुनाया। उसके आर्थिक विकास और सरकारी बैंकों ने मंदी को संभाल लिया। लोकतांत्रिक अधिकारों से चिढ़ने वाले चीन ने कई दशकों तक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में खूब संसाधन झोंके। इन योजनाओं की बदौलत बीजिंग ने खुद को दुनिया का प्रोडक्शन हाउस साबित कर दिया।
मध्य वर्ग की ताकत
बीते दशकों में जहां, दुनिया के समृद्ध देशों में अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती गई, वहीं चीन अपने मध्य वर्ग को लगातार बढ़ाता गया। अमीर होते नागरिकों ने चीन को ऐसा बाजार बना दिया जिसकी जरूरत दुनिया के हर देश को पड़ने लगी। चीन के आर्थिक विकास का फायदा उठाने के लिए सारे देशों में होड़ सी छिड़ गई। चीन के लिए यह अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को विश्वव्यापी बनाने का अच्छा मौका था। एक अरसे तक पश्चिमी देश मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चीन की आलोचना करते रहे लेकिन चीनी बाजार में उनकी कंपनियों के निवेश, चीन से आने वाली मांग और बीजिंग के दबाव ने इन आलोचनाओं को दबा दिया।
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कमजोर पड़ता अमेरिका
इराक और अफगानिस्तान युद्ध और फिर आर्थिक मंदी, अमेरिका आर्थिक रूप से कमजोर पड़ चुका था। चीन पर आर्थिक निर्भरता ने ओबामा प्रशासन के पैरों में बेड़ियों का काम किया। चीन के बढ़ते आक्रामक रुख के बावजूद वॉशिंगटन कई बार पैर पीछे खींचता दिखा। एक तरफ जहां चीन दक्षिण चीन सागर में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा था, वहीं यूरोप में रूस और यूरोपीय संघ बार बार टकरा रहे थे। 2014 में रूस ने क्रीमिया को अलग कर दिया। इसके बाद अमेरिका और उसके यूरोपीय साझेदार रूस के साथ उलझ गए। चीन इस दौरान अफ्रीका में अपना विस्तार करता गया।
इस्लामिक स्टेट का उदय
2011-12 के अरब वसंत के कुछ साल बाद अरब देशों में इस्लामिक स्टेट नाम के नए आतंकवादी गुट का उदय हुआ। अरब जगत के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने पश्चिम को सैन्य और मानवीय मोर्चे पर उलझा दिया। पश्चिम को आईएस और रिफ्यूजी संकट से दो चार होना पड़ा।
शी का ड्रीम
डेंग शियाओफेंग के दौर में आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर हो चुके चीन से बाकी दुनिया को कोई परेशानी नहीं थी लेकिन 2013 में शी जिनपिंग के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद नजारा बिल्कुल बदल गया। शी जिनपिंग ने पहली बार चीनी स्वप्न को साकार करने का आह्वान किया।
शुरू हुई चीन से चुभन
आर्थिक विकास के कारण बेहद मजबूत हुई चीनी सेना अब तक अपनी सीमा के बाहर विवादों में उलझने से बचती थी। लेकिन शी के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन ने सेना के जरिए अपने पड़ोसी देशों को आँखें दिखाना शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत दक्षिण चीन सागर विवाद से हुई। एक तरफ शी थे और दूसरी तरफ अमेरिका में बराक ओबामा। इस दौरान प्रभुत्व को लेकर दोनों के विवाद खुलकर सामने नहीं आए। दक्षिण चीन सागर में सैन्य अड्डे को लेकर अमेरिकी नौसेना और चीन एक दूसरे चेतावनी देते रहे लेकिन व्यापारिक सहयोग के कारण विवाद ज्यादा नहीं भड़के।
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वन बेल्ट, वन रोड
2016 चीन ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना शुरू की। जिन गरीब देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कड़ी शर्तों के साथ कर्ज लेना पड़ता था, चीन ने उन्हें रिझाया। चीन ने लीज के बदले उन्हें अरबों डॉलर दिए और अपने विशेषज्ञ भी उपलब्ध कराये। चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट सहारे अफ्रीका, दक्षिण अमेरका, पूर्वी एशिया और खाड़ी के देशों तक पहुचना चाहता है। इससे उसकी सीधी पहुंच पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक भी होगी और अफ्रीका में हिंद और अटलांटिक महासागर के तटों पर भी।
जनवरी 2017 में डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के नए राष्ट्रपति का पद संभाला। दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाले ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट का नारा दिया। ट्रंप ने पर्दे के पीछे की रणनीति छोड़ते हुए सीधे चीन टकराने की नीति अपनाई। ट्रंप ने आते ही चीन के साथ कारोबारी युद्ध छेड़ दिया। चीन के बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए ट्रंप को अपने यूरोपीय सहयोगियों से मदद की उम्मीद थी, लेकिन रक्षा के नाम पर अमेरिका पर निर्भर यूरोप से ट्रंप को निराशा हाथ लगी। नाटो के फंड और कारोबारियों नीतियों को लेकर मतभेद बढ़ने लगे। अब वॉशिंगटन के पास चीन के खिलाफ भारत, ब्रेक्जिट के बाद का ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे साझेदार हैं। अब अमेरिका और चीन इन देशों को लेकर एक दूसरे से टकराव की राह पर हैं।
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कोरोना का असर
चीन के वुहान शहर ने निकले कोरोना वायरस ने दुनिया भर में जान माल को भारी नुकसान पहुंचाया, अर्थव्यवस्थाओं को भी चौपट कर दिया। इसकी जिम्मेदारी को लेकर विवाद हो रहा है जो जल्द थमने वाला नहीं है।
अमेरिका समेत कई देश यह जान चुके हैं कि चीन को शक्ति अपनी अर्थव्यवस्था से मिल रही है। इसके साथ ही कोरोना वायरस ने दिखा दिया है कि चीन ऐसी निर्भरता के क्या परिणाम हो सकते हैं। अब कई देश प्रोडक्शन के मामले में दूसरे पर निर्भरता कम करने की राह पर हैं।
नए शीत युद्ध की आहट
यूरोपीय संघ और चीन के बीच सितंबर में प्रस्तावित बैठक के अचानक रद होने के कई मायने लगाए जा रहे हैं। विश्लेषक इसे नए शीट युद्ध की शुरुआत का संकेत बता रहे हैं।
दरअसल, जर्मनी को यूरोपीय संघ की अध्यक्षता मिलने के साथ ही चीन के राष्ट्रपति के साथ यूरोपीय संघ के सभी 27 राष्ट्र प्रमुखों की बैठक सितंबर में होनी थी। यह पहला मौका होता जब यूरोपीय संघ और चीन के बीच इस तरह का सम्मेलन होता। इसलिए इस बैठक का बहुत महत्व था। लेकिन अब सम्मेलन टल चुका है। आधिकारिक रूप से बताया गया है कि महामारी से पैदा हुए हालात को देखते हुए मीटिंग तयशुदा तारीखों में नहीं हो सकती। इस घोषणा के बाद से ही अफवाहें उड़ रही हैं कि ऐसा बहुत कुछ है जो नजर नहीं आ रहा।
नवंबर में होंगे चुनाव
इस फैसले के पीछे हाँगकाँग के घटनाक्रम को देखा जा रहा है। चीन के नए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को हांगकांग की आजादी को खत्म करने वाला बताया जा रहा है। यूरोपीय संघ के उच्च राजयनिक इसे गंभीर चिंता कहते हैं। राजयनिक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि यूरोप को बीजिंग के साथ ज्यादा दृढ़ता से पेश आना चाहिए। ठोस कदम उठाने की मांग की जा रही है।
चीन के कदमों ने बीजिंग और वॉशिंगटन के रिश्तों में भी संकट को बढ़ा दिया है। कोरोना वायरस के फैलाव को लेकर डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राजनयिकों के बीच तीखे आरोप प्रत्यारोपों में भी यह दिखाई पड़ता है। विश्लेषकों के मुताबिक दोनों पक्ष एक नए शीत युद्ध के मुहाने पर हैं। बैठक रद करने के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को भी देखा जा रहा है। चुनाव नवंबर में होने वाले हैं।
अमेरिका में जिसकी भी जीत होगी उसका बड़ा असर यूरोपीय संघ और बीजिंग के संबंधों पर जरूर पड़ेगा। व्हाइट हाउस में कोई भी आए, यूरोपीय संघ को चीन के साथ समझौतों में चुनौतिया झेलनी होंगी।