विधान सभा चुनाव: बिहार जैसे पिछड़े राज्य में क्यों सफल नहीं है वर्चुअल रैली, यहां जानें

कोरोना महामारी के बीच अक्तूबर- नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। देश का ये पहला चुनाव होगा जो कोरोना काल में ही सम्पन्न होगा। इस बार के चुनाव में कई बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे।

Update: 2020-09-07 11:27 GMT
कोरोना महामारी के बीच अक्तूबर- नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। देश का ये पहला चुनाव होगा जो कोरोना काल में ही सम्पन्न होगा। इस बार के चुनाव में कई बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे।

पटना: कोरोना महामारी के बीच अक्तूबर- नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। देश का ये पहला चुनाव होगा जो कोरोना काल में ही सम्पन्न होगा। इस बार के चुनाव में कई बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे।

लोगों को कोरोना से बचाव के नियमों का सख्ती से पालन करना होगा। पहले की तरह इस बार लम्बी-लम्बी कतारे देखने को नहीं मिलेंगी।

देश के अंदर अभी राजनीतिक रैलियों के आयोजन पर रोक लगी हुई है। इसे ध्यान में रखते हुए बिहार में राजनीतिक दलों ने मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने के लिए वर्चुअल रैली का तरीका चुना है। लेकिन बिहार जैसे पिछड़े राज्य के लिए वर्चुअल माध्यमों से गांव के लोगों तक अपनी बात पहुंचाना इतना आसान नहीं है। इसलिए सभी दल से अभी से चिंतित दिखाई दे रहे हैं।

सभी को इस बात का मलाल है कि वे चाहकर भी पहले की तरह ज्यादा से ज्यादा तक अपनी बात नहीं पहुंचा पा रहे हैं।

इसमें सबसे बड़ी चुनौती संचार के माध्यमों तक लोगों की पहुंच का कम होना, राज्य की टेली-डेनसिटी का कम होना, इंटरनेट तक लोगों की कम पहुंच है।

ये तीनों माध्यम अभियान में संभावित मतदाताओं तक पहुंचने में एक चुनौती हैं और उन तक पहुंचना अप्रत्यक्ष संचार और डिजिटल उपकरणों पर निर्भर करेगा। ये चुनौतियां कोरोना से पहले होने वाले चुनावों के दौरान पैदा होने वाली संकट से कही ज्यादा बड़ा हैं।

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बिहार के सीएम नीतीश कुमार की फोटो(साभार-सोशल मीडिया)

 

पहले क्या थी समस्याएं

सियासी जानकारों की मानें तो पहले राजनीतिक पार्टियों के सामने इससे भी ज्यादा चुनौतियां थी। उस वक्त सभी दलों की चिंता रैलियों के आकार, प्रचार अभियान, डोर-टू-डोर कैम्पेन के लिए सामान और उम्मीदवारों के चयन को लेकर ज्यादा होती होता था, लेकिन कोरोना के चलते अब इन्हें नई –नई मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। इन सब चीजों को देखते हुए बिहार में होने वाले चुनाव किसी एग्जाम से कम नहीं है।

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संचार माध्यमों की खराब हालात जिम्मेदार

अगर हम बिहार में संचार के माध्यमों पर गौर करे तो इस मामले में भी राज्य की स्थिति बेहद खराब है। 2015-16 में किए गए चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार में 61 फीसदी महिलाओं और 36 फीसदी पुरुषों की जनसंचार माध्यमों तक पहुंच नहीं थी।

बिहार में टेली-डेनसिटी (किसी दिए गए क्षेत्र में प्रति 100 लोगों पर टेलीफोन कनेक्शन की संख्या) सबसे कम है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के आंकड़ों के अनुसार बिहार में टेली-डेनसिटी 59 है, जबकि देश में यह संख्या 89 है।

अगर ट्राई के डाटा को देखें तो, बिहार में इंटरनेट की पहुंच 2019 के अंत तक प्रति 100 लोगों पर 32 ग्राहक है, जबकि देशभर का औसत 54 है। ये भारत के 22 दूरसंचार सेवा क्षेत्रों में सबसे कम है। वहीं, बिहार के ग्रामीण इलाकों में प्रति 100 लोगों पर केवल 22 इंटरनेट ग्राहक हैं। ग्रामीण इलाकों में राज्य की 89 फीसदी आबादी रहती है।

सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की तुलना में बिहार में जनसंचार माध्यमों की पहुंच नहीं रखने वाली महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है, जबकि पुरुषों की हिस्सेदारी के मामले में बिहार झारखंड से पीछे है।

इन सब चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि बिहार विधानसभा चुनाव राजनीतिक पार्टियों के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।

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बिहार में सीएम नीतीश कुमार की वर्चुअल रैली के लगाए गये पोस्टर की फोटो(साभार-सोशल मीडिया)

नीतीश की वर्चुअल रैली फ्लॉप

बिहार में वर्चुअल रैली कितनी सफल है। इसका ताजा उदाहरण बिहार के लोगों के आज सामने है। बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर सीएम नीतीश कुमार की पहली वर्चुअल रैली उतनी सफल नहीं हो पाई, जितनी की उम्मीद की जा रही थी। दावा किया जा रहा था कि सीएम की वर्चुअल रैली को 26 लाख लोग देखेंगे।लेकिन आकंडे इसके उल्ट देखने को मिले।

वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन इस रैली की लाइव स्ट्रीमिंग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सही ढंग से नहीं हो पाई। इस रैली का आयोजन एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किया गया, जिसे एक समय पर सबसे अधिक साढ़े चार हजार लोगों ने ही देखा।

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