रुला रहा पेट्रोल-डीजल: जब खजाना भर रहा तेल, तो फिर कैसे मिलेगी मुक्ति

भारत में पेट्रोलियम की कीमतें हर राज्य में अलग-अलग हैं। ये राज्य की वैट (वैल्यू ऐडेड टैक्स) दर, या स्थानीय करों पर निर्भर करती हैं। इसके अलावा इसमें केंद्र सरकार के टैक्स भी शामिल होते हैं।

Update:2021-02-18 13:10 IST
रुला रहा पेट्रोल-डीजल: जब खजाना भर रहा तेल, तो फिर कैसे मिलेगी मुक्ति

नीलमणि सर

लखनऊ: तेल के दाम बढ़ते चले जा रहे हैं। भारत में यही बताया जा रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है इसलिए पेट्रोल डीज़ल महँगा करना पड़ रहा है। लेकिन ये नहीं बताया जा रहा कि जब कच्चे तेल के दाम गिरते हैं तब भारत में पेट्रोल डीजल सस्ता क्यों नहीं होता।

दरअसल, पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के बाजार और दामों का एक अलग ही गणित है। इसे सरकारें अपने हिसाब से चलातीं हैं क्योंकि ये कमाई का बहुत बड़ा जरिया है। जहाँ तक कच्चे तेल की बात है तो उसमें तेल उत्पादक देशों के मनमानी चलती है। वहीं देश कच्चे तेल के बाजार और दामों को कंट्रोल करते हैं।

तेल उत्पादक 16 देशों का दुनिया के तेल भण्डार के 80 फीसदी पर कब्जा है। तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक और रूस दुनिया के कुल तेल आउटपुट के 50 से 55 फीसदी को कंट्रोल करते हैं। सिर्फ रूस और ओपेक के असली नेता सऊदी अरब के कब्जे में दुनिया के कुल तेल एक्सपोर्ट का 25 से 30 फीसदी पर कंट्रोल है।

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(फोटो- सोशल मीडिया)

क्या है पूरा मसला

पूरा मसला विकल्पहीनता का है। जिस तरह आम जनता के पास पेट्रोल-डीजल का कोई सस्ता और सुलभ विकल्प नहीं है और उसे महँगा प्रोडक्ट खरीदने की मजबूरी है। वैसे ही दुनिया के अधिकाँश देशों के सामने तेल उत्पादक देशों के संगठन की दादागिरी सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ओपेक की दादागिरी इसलिए है क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं है, कच्चे तेल का कोई सस्ता विकल्प नहीं है ओपेक, ख़ास तौर पर सऊदी अरब की तेल उत्पादन लगत पूरी दुनिया में सबसे कम है और इन्हीं कारणों से ये देश मनमानी करते हैं।

अब कहा जा रहा है कि लोग पेट्रोल- डीजल के विकल्प के बारे में सोचें। अगर इशारा वैकल्पिक ऊर्जा, बिजली चालित वाहनों की ओर है तो उसकी लागत ही बहुत ज्यादा है जो सबके बस की बात नहीं। बैटरी चालित कारें, पेट्रोल करों की तुलना में चार गुना महंगी हैं तो कोई करे भी तो क्या करे।

कितना है तेल पर टैक्स

भारत में पेट्रोलियम की कीमतें हर राज्य में अलग-अलग हैं। ये राज्य की वैट (वैल्यू ऐडेड टैक्स) दर, या स्थानीय करों पर निर्भर करती हैं। इसके अलावा इसमें केंद्र सरकार के टैक्स भी शामिल होते हैं। दूसरी ओर क्रूड ऑयल की कीमतों और विदेशी मुद्रा दरों का असर भी इन पर होता है।

इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड के 16 फरवरी 2021 को दिल्ली के लिए जारी किए गए पेट्रोल की कीमतों के ब्रेकअप से पता चलता है कि पेट्रोल की बेस कीमत 32.10 रुपये प्रति लीटर बैठती है। इसमें पेट्रोल की बेस कीमत 31.82 रुपये के साथ डीलरों पर लगने वाला 0.28 रुपये प्रति लीटर का ढुलाई भाड़ा शामिल है। अब इस पर 32.90 रुपये एक्साइज़ ड्यूटी लगती है।

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ग्राहकों को देना होता है 53.51 रुपये टैक्स

इसके बाद 3.68 रुपये डीलर कमीशन बैठता है। फिर इस पर वैट लगता है जो कि 20.61 रुपये प्रति लीटर बैठता है। इन सब को जोड़कर दिल्ली में पेट्रोल की रिटेल कीमत 89.29 रुपये प्रति लीटर बैठती है। पेट्रोल की कीमत यानी 35.78 रुपये (इसमें ढुलाई भाड़ा और डीलरों का कमीशन शामिल है) के मुक़ाबले ग्राहकों की चुकाई जाने वाली 89.29 रुपये प्रति लीटर की कीमत को देखें तो ग्राहकों को 53.51 रुपये टैक्स के तौर पर देने पड़ते हैं।

भारत में जीडीपी में लॉजिस्टिक्स की लागत करीब 13-14 फीसदी बैठती है। ऐसे में अगर डीज़ल के दाम बढ़ते हैं तो इसका सीधा असर बाकी वस्तुओं के अलावा सब्जियों, दालों जैसी आम लोगों के इस्तेमाल की चीजों की महंगाई पर भी पड़ता है। डीज़ल की कीमतों में इज़ाफे का असर ट्रांसपोर्टर्स के कारोबार पर भी पड़ रहा है।

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ट्रांसपोर्टर्स वेल्फेयर एसोसिएशन ने 26 फरवरी को एक दिन का विरोध-प्रदर्शन नियत किया है। लेकिन आम आदमी क्या करे, वह महंगाई में पिसने को मजबूर है।

सरकार की कमाई का बड़ा जरिया

पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स पर टैक्स, सरकार के लिए कमाई का बहुत बड़ा जरिया है। पिछले साल साधन कमजोर हुए हैं जबकि सरकार का ख़र्च इस दौरान काफी बढ़ा है। ऐसे में सरकार रेवेन्यू बढ़ाने और वित्तीय घाटे को बढ़ने से रोकने के लिए ईंधन पर टैक्स कम नहीं कर रही है। सरकार के लिए शराब और पेट्रोल, डीज़ल कमाई का एक सबसे बढ़िया ज़रिया हैं। ये जीएसटी के दायरे में नहीं आते हैं, ऐसे में इन पर टैक्स बढ़ाने के लिए सरकार को जीएसटी काउंसिल में नहीं जाना पड़ता है।

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महामारी के दौरान क्रूड के दाम हुए कम

कोरोना महामारी के दौरान क्रूड के दाम बहुत नीचे आए। ऐसे में इसी हिसाब से पेट्रोल के दाम भी गिरने चाहिए थे, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया। निश्चित तौर पर सरकार के पास पेट्रोलियम उत्पादों के दाम घटाने के विकल्प हैं। इनमें कीमतों को डीरेगुलेट करने और इन पर टैक्स घटाने के विकल्प शामिल हैं। लेकिन, सरकार ऐसा करना ही नहीं चाहती है।

पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और इससे डिमांड घटती है। मध्यम वर्ग और गरीब इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। 15 जून 2017 से देश में पेट्रोल, डीजल की कीमतें रोजाना आधार पर बदलना शुरू हो गई हैं। इससे पहले इनमें हर तिमाही बदलाव होता था।

पड़ोसी देशों में सस्ता

भारत के पड़ोसी देशों समेत दुनिया के कई देशों में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें कम हैं। श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार, अफगानिस्तान और यहां तक कि आर्थिक रूप से मुश्किलों के भयंकर दौर में घिरे हुए पाकिस्तान में भी पेट्रोल सस्ता है। इसके बावजूद भारत में ईंधन की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं जबकि भारत में पेट्रोल, डीजल की कीमतें हमेशा से राजनीतिक तौर पर एक संवेदनशील मसला रही हैं। 2010 तक तेल के दाम बढ़ाना सरकारों के लिए एक मुश्किल फैसला होता था। लेकिन, सरकारी खजाने पर इसका बोझ बहुत ज्यादा था।

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तेल कीमतों में तेजी की वजह

ओपेक ने कहा है कि 2021 में दुनियाभर में तेल की मांग उनके अनुमान से कम रफ्तार से बढ़ेगी। ओपेक ने कहा है कि इस साल तेल की मांग 57.9 लाख बैरल प्रतिदिन से बढ़कर 9.605 करोड़ पर पहुंच जाएगी। इस तरह से ओपेक ने 1.10 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती कर दी है। कमजोर अनुमान के चलते ओपेक और ओपेक प्लस को तेल उत्पादन में कटौती करने का फैसला करना पड़ा है। दूसरी ओर, मिडिल ईस्ट में तनाव के चलते भी तेल के दाम बढ़ रहे हैं।

बॉक्स अमेरिका पर असर नहीं

बीसवीं सदी के मध्य तक दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक अमेरिका था और वही दुनिया में तेल के दाम कंट्रोल करता था। जब मिडिल ईस्ट में तेल निकलने लगा तो धीरे धीरे तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के मार्केट पर कब्ज़ा कर लिया और तबसे यही संगठन तेल और तेल के दामों को नियंत्रित कर रहा है। लेकिन अमेरिका पीछे नहीं हटा। अमेरिका में शेल तेल यानी चट्टानों में मिलने वाले तेल की खोज के बाद से हालात बदले। ड्रिलिंग तकनीकों का विकास हुआ और अमेरिका फिर से दुनिया का टॉप तेल उत्पादक बन गया है।

विश्व में जमीन के भीतर से कच्चे तेल को कमर्शियल तरीके से निकालने का काम सबसे पहले अमेरिका में ही हुआ था और इसके चलते तेल के दाम तय करने की पावर उसी के पास निहित थी। शुरुआत में तेल निकलने और उसकी रिफाइनिंग का काम जटिल हुआ करता था सो तेल के दाम भी ऊंचे रहते थे और इनमें लगातार उतार चढ़ाव हुआ करता था।

1860 के दशक में इतने थे कच्चे तेल के दाम

अगर आज के दामों से तुलना करें तो 1860 के दशक में कच्चे तेल के दाम 120 डालर प्रति बैरल तक पहुँच गए थे। वैसे इसकी बड़ी वजह अमेरिका का गृह युद्ध था जिसके कारन डिमांड बहुत बढ़ गयी थी। गृह युद्ध समाप्त हुआ तो अगले पांच सालों में दाम 60 फीसदी से ज्यादा गिर गए लेकिन फिर 50 फीसदी चढ़ गए। यानी उतार चढ़ाव बना हुआ था। 1901 में टेक्सास प्रान्त के पूर्व में तेल की खोज के बाद तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था में तेल का स्थान टॉप पर पहुँच गया और तेल उद्योग का तेजी से विकास होने लगा।

इसके बाद 1908 में पर्शिया (आज का ईरान) और 1930 के दशक में सऊदी अरब में तेल की खोज के चलते तेल की सप्लाई और डिमांड काफी बढ़ गयी। सन 50 और 60 के इकनोमिक बूम और वियतनाम युद्ध के कारण अमेरिका में तेल की डिमांड बहुत बढ़ गयी और वो इम्पोर्टेड तेल पर निर्भर हो गया। इसका नतीजा ये हुआ कि अरब देशों और 1960 में स्थापित ओपेक को तेल के दामों में खेल करने का भरपूर मौक़ा मिल गया जो आज तक जारी है।

(फोटो- सोशल मीडिया)

ओपेक का ब्रह्मास्त्र

ओपेक यानी आर्गेनाइजेशन ऑफ़ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कन्ट्रीज का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि तेल के दामों में सौदेबाजी की जा सके और प्रोडक्शन को ऐसे रखा जाए ताकि दाम पर नियंत्रण बना रहे। ओपेक के 13 मेंबर देश हैं – अल्जीरिया, अंगोला, कांगो, इक्वेटोरियल गिनी, गैबन, ईरान, ईराक, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया, सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात और वेनेज़ुएला।

अरब-इजरायल युद्ध के समय खुलकर सामने आई दादागिरी

ओपेक की दादागिरी 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के समय खुल कर सामने आई, जब ओपेक के अरब सदस्यों ने इजरायल की मदद करने पर अमेरिका के खिलाफ तेल प्रतिबन्ध लगा दिए और अमेरिका को तेल की सप्लाई रोक दी। विश्व की ये बहुत बड़ी और अभूतपूर्व घटना थी कि अमेरिका के खिलाफ किसी ने ऐसा एकदम उठा लिया था। लेकिन सन 73 की इसी कदम ने ओपेक का पलड़ा हमेशा के लिए भरी कर दिया। उसने दिखा दिया था उसके पास तेल रूपी ब्रह्मास्त्र है जिसके सामने सभी को झुकना पड़ेगा।

इस रणनीति पर चलता है ओपेक

ओपेक ‘प्राइसिंग ओवर वॉल्यूम’ की रणनीति पर चलता है जिसमें तेल उत्पादन से दाम लिंक्ड रहते हैं। 73 के तेल प्रतिबन्ध का असर ये हुआ कि तेल बाजार पर खरीदार की बजाये विक्रेता का पूर्ण कंट्रोल हो गया। 73 के पहले तेल मार्केट को ‘सेवेन सिस्टर्स’ कंट्रोल करते थे। ये कोई बहनें नहीं तेने बल्कि पशिमी देशों की सात तेल कम्पनियाँ थीं जो अधिकाँश तेल मैदानों को ऑपरेट करती थीं। 1973 के बाद शक्ति संतुलन इन सात कंपनियों की बजाये ओपेक देशों की ओर झुक गया।

बाद में विश्व की अनेक घटनाओं ने ओपेक को तेल के दामों पर कंट्रोल बनाये रखने में मदद की जिसमें सोवियत संघ का विघटन शामिल है। सोवियत संघ के टूटने के अनेक प्रभाव रहे थे, कई साल तक रूस का तेल प्रोडक्शन बाधित रहा, कई देशों की मुद्राएँ अवमूल्यित हो गयीं और इन सबका असर तेल की डिमांड पर पड़ा। लेकिन ओपेक के देश तेल का प्रोडक्शन सामान लेवल पर बनाये रहे, उनको सोवियत संघ के टूटने और उसके प्रभावों का कोई असर नहीं हुआ।

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ओपेक प्लस का उदय

तेल उत्पादक देशों में एक नया गुट बना 2016 में जिसे ओपेक प्लस का नाम दिया गया। पोएक प्लस में ओपेक के सदस्यों के अलावा रूस और कजाकस्तान जैसे दस अन्य तेल निर्यातक देश शामिल हैं। चूँकि पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स का कोई सस्ता और सुलभ विकल्प नहीं है सो ओपेक प्लस का तेल के दामों पर प्रभाव बना हुआ है। जब दुनिया में तेल की डिमांड कम हो जाती है तो ओपेक के देश अपना प्रोडक्शन कोटा घटा देते हैं।

नतीजा ये होता है कि बाजार में तेल कम पहुंचता है और दाम चढ़ जाते हैं जिससे उत्पादक देशों को कोई नुकसान नहीं होता। कोरोना काल में ही तेल के दाम क्रैश कर गए थे क्योंकि आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गयीं थीं, आवागमन बंद था और आर्थिक मंदी आ गयी थी। ऐसे में ओपेक और उनके सहयोगी देशों ने तेल उत्पादन में ऐतिहासिक कटौती कर दी लेकिन फिर भी कच्चे तेल के दाम बीस साल के सबसे निचले स्तर पर आ गए।

अब फिर मांग उठी है कि सरकार को ईंधन की कीमतों पर अपना नियंत्रण फिर से करना चाहिए और आम लोगों को राहत देनी चाहिए। हालांकि, सरकार इसे पूरी तरह से ख़ारिज कर चुकी है। साल 2018 में तेल मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने साफ कर दिया था कि सरकार तेल पर फिर से कंट्रोल करने पर कतई विचार नहीं कर रही है।

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