UP News: अवध क्षेत्र से है यूपी में किसान आन्दोलन का ख़ास नाता

देश में किसानों का अन्दोलन चल रहा है। पंजाब, हरियाणा से शुरू इस आन्दोलन में अब उत्तर प्रदेश के किसान अग्रणी भूमिका में हैं..

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Deepak Raj
Update: 2021-09-05 13:17 GMT

आंदोलन के दौरान किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत (फाइल फोटो, सोशल मीडिया)

Lucknow: देश में किसानों का अन्दोलन चल रहा है। पंजाब, हरियाणा से शुरू इस आन्दोलन में अब उत्तर प्रदेश के किसान अग्रणी भूमिका में हैं। भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत मोर्चा संभाले हुए हैं। आन्दोलन को और भी आगे बढ़ाने का ऐलान कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश और किसान आन्दोलन का वैसे भी बहुत पुराना नाता रहा है। देश के दो बड़े किसान नेता– चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत यूपी के ही हैं। उत्तर प्रदेश में किसानों के बड़े आंदोलनों की बात की जाये तो आज़ादी के बाद महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में ही प्रमुख आन्दोलन हुए हैं। टिकैत के बाद उत्तर प्रदेश में किसानों का कोई बड़ा अन्दोलन या प्रदर्शन नहीं हुआ है। किसानों के संगठनों के छिटपुट प्रदर्शन भले हुए हों लेकिन कोई बड़ा आन्दोलन नहीं चला है।


किसान आंदोलन की फाइल फोटो (सोर्स-सोशल मीडिया)


उत्तर प्रदेश के किसान नेता के रूप में चौधरी चरण सिंह का नाम लिया जाता है लेकिन चरण सिंह वस्तुतः एक राजनेता थे। उनको किसान नेता सिर्फ इस आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने किसानों की भलाई के लिए सोचा और नीतियां बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई। लेकिन चरण सिंह ने किसानों का कोई आन्दोलन नहीं चलाया। वैसे तो भारत में किसानों के आन्दोलन का इतिहास आज़ादी से पहले का रहा है। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान देश के कई प्रांतों में किसान का संघर्ष बिचौलियों, ज़मींदारों और साहूकारों से जारी रहा था। अलग-अलग स्थानों पर किसानों के विरोध के स्वर उठते रहते थे।

1800 के दशक में किसानों के कई विद्रोह और संघर्ष हुए, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। इनमें ब्रिटिश हुकूमत की ओर से किसानों पर लगाए गए लगान के विरुद्ध प्रदर्शन भी शामिल थे। 1900 की शुरुआत में ही भारत में किसान पहले से ज़्यादा संगठित होने लगे थे। आज़ादी के पहले यूपी में किसान आन्दोलन के साथ बाबा राम चंदर का नाम जुड़ा हुआ है। बाबा राम चंदर थे तो ग्वालियर, मध्यप्रदेश के लेकिन वह अयोध्या में एक साधू की तरह रहते थे। उन्होंने अवध क्षेत्र में किसानों का एक बड़ा संगठन खड़ा किया था। उन्होंने किसानों को एकजुट करने का बड़ा काम किया था। लेकिन बाद में उनका संघर्ष आज़ादी की लड़ाई में तब्दील हो गया था।

यूपी में अवध ने की अगुवाई

उत्तर प्रदेश में सबसे पहली बार वर्ष 1917 में अवध क्षेत्र में किसान गोल बंद हुए थे। इसी साल अवध में किसानों का पहला, सबसे बड़ा और प्रभावशाली आंदोलन हुआ था। होमरूल लीग के कार्यकर्ताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के मार्गदर्शन के परिणामस्वरूप फरवरी 1918 में उत्तर प्रदेश में किसान सभा का गठन किया गया। इसमें गौरी शंकर मिश्रा और इंद्र नारायण द्विवेदी जैसे नेता भी शामिल थे। वर्ष 1919 में इस संघर्ष ने ज़ोर पकड़ लिया। वर्ष 1920 के अक्तूबर महीने में प्रतापगढ़ में किसानों की एक विशाल रैली के दौरान अवध किसान सभा का गठन किया गया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपना सहयोग प्रदान किया। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर यह आंदोलन चलाया गया।


किसानों के द्वारा निकाली गई ट्रैक्टर रैली (फाइल फोटो, सोर्स-सोशल मीडिया)


किसानों के इस संघर्ष की ख़बर पूरे देश के किसानों के बीच फैल गई। अयोध्या के बाबा राम चंदर कई किसानों के साथ इस आंदोलन में शामिल हो गए। उनको पूरी रामकथा कंठस्थ थी इसीलिए उन्हें बाबा राम चंदर कहा जाता था। उनका असली नाम श्रीधर बलवंत था। वो गाँव-गाँव घूमकर राम कथा सुनाते और किसानों को गोलबंद करने का काम करते थे। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी जीवनी में अवध के किसानों के आंदोलन और बाबा राम चंदर का उल्लेख करते हुए कहा है कि उन्होंने अवध में हुए किसान आंदोलन से काफ़ी कुछ सीखा था।

अवध किसान सभा के साथ बाबा राम चंदर का नाम जुड़ा हुआ है। उन्हीं को यूपी का पहला किसान नेता माना जाता है। पुराने अभिलेखों के अनुसार, 17 अक्टूबर 1920 को अवध किसान सभा के गठन के दिन प्रतापगढ़ के रूर गांव में एक बैठक हुई जिसमें प्रतापगढ़ निवासी हाईकोर्ट के वकील माता बदल पांडेय ने पूरे अवध के लिए एक किसान सभा बनाने पर बल दिया था। जबकि इस बैठक का उद्देश्य 150 ग्रामों में स्थापित किसान सभाओं को मिलाकर पूरे जनपद के किसानों का संगठन बनाना था। इस बैठक में जवाहरलाल नेहरू, प्रतापगढ़ के डिप्टी कमिश्नर वैकुंठ नाथ मेहता, संयुक्त प्रान्त किसान सभा के गौरी शंकर मिश्र रायबरेली के किसान नेता माताबदल मुराई सहित बाबा राम चंदर, सहदेव सिंह व झींगुरी सिंह आदि मौजूद थे।

नवगठित संगठन का नाम अवध किसान सभा रखा गया। माताबदल पांडेय को इस सभा का मंत्री चुना गया। बाबा राम चंदर इसके अध्यक्ष बने। किसान सभा ने प्रतापगढ़ में 'नई-बोधी बंद' नामक एक आन्दोलन चलाया था जिसका उद्देश जमींदारों और ताल्लुकेदारों का सामाजिक बहिष्कार करना था। 1921-22 में किसान का संघर्ष 'एका आन्दोलन' के नाम से यूपी के कुछ क्षेत्रों में चला था। आगे चल कर किसान सभा आज़ादी के संघर्ष से जुड़ गया और असहयोग आन्दोलन में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बाबा राम चंदर का असली नाम श्रीधर बलवंत था। वे ग्वालियर के निवासी थे। 1904 में उनको मजदूर के तौर पर फिजी भेज दिया गया था, जहाँ वे 12 साल तक रहे। फिजी में उन्होंने मजदूरों के उत्पीड़न के खिलाफ काफी काम किया था। 1916 में वह फीजी से लौटे और अयोध्या में जा कर साधू की तरह रहने लगे। वह गाँव-गाँव जा कर रामचरित मानस का पाठ करने और साथ ही किसानों को जागरूक करने का काम करते थे। तभी से वो किसानों के एक नेता के रूप में उभर कर आये।

चौधरी चरण सिंह

उत्तर भारत में सर्वमान्य किसान नेता के रूप में चौधरी चरण सिंह का नाम आता है। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने किसानों को देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान पर स्थापित कर दिया। अपने लंबे राजनीतिक जीवन में पहले तो उन्होंने उत्तर प्रदेश व उत्तर भारत, फिर देश में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को प्रचलित करने के लिए ख़ासा संघर्ष किया। किसान नेता के रूप में उनकी प्रसिद्धि ज़रूर थी। लेकिन वे जाटों, उनमें भी मध्यमवर्गीय जाटों की आवाज़ माने जाते थे। कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों पर औद्योगिकरण व नगरीय विकास को प्राथमिकता देने की योजनाओं का ख़ुला विरोध किया था।


चौधरी चरण सिंह (फाइल फोटो, सोशल मीडिया)


उनका तर्क था कि भारत की 80 प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है जो पूरी तरह कृषि क्षेत्र तथा उससे जुड़े हुए काम-धंधों या उद्योगों पर आश्रित है, सो उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। उनका मानना था कि उद्योगों को भी अपने विकास के लिए मज़बूत कृषि व्यवस्था की ज़रूरत है, सो केवल कृषि क्षेत्र ही औद्योगिक कामगारों को अन्न तथा उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध करा सकता है। अपने इन्हीं विचारों के चलते उन्होंने द्वितीय पंचवर्षीय योजना से असहमति जताई, क्योंकि उसमें राज्य आश्रित औद्योगिकरण को प्राथमिकता दी गई थी। उनका विश्वास था कि औद्योगिकरण देश को समृद्धि का रास्ता नहीं दिखा सकता। यह काम कृषि के द्वारा हो सकता है, जिसके पीछे उद्योगों को चलना होगा।

चरण सिंह ने पूरे जीवन में विभिन्न स्तर पर, विभिन्न तरीकों से किसानों को संपन्न, समृद्ध व बलशाली बनाने का काम किया। सन् 1939 में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस संसदीय दल के समक्ष किसानों के बेटों के लिए सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण किए जाने का प्रस्ताव रखा। इसमें जातिगत भेदभाव नहीं था। चौधरी चरण सिंह ने सन् 1952 में बतौर कृषि मंत्री उत्तर प्रदेश जमींदारी व भूमि सुधार कानून का न सिर्फ़ मसौदा तैयार कराया बल्कि उसे पारित करा के लागू भी किया। इसे वे अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे। इस कानून के लागू हो जाने पर खेतीहर किसानों को उन जमीनों का मालिकाना हक़ मिल गया, जिस पर वे स्वयं खेती करते आ रहे थे। इसका लाभ ज्य़ादातर मध्यम व निम्नवर्गीय तथा पिछड़ी जाति के किसानों को मिला। इसी ने उन्हें पूर्वी व पश्चिमी उप्र के मध्यमवर्गीय किसानों के बीच ख़ासी लोकप्रियता दिलाई।

महेंद्र सिंह टिकैत और 1987 का किसान आन्दोलन

महेन्द्रसिंह टिकैत की तो पहचान ही किसान आंदोलन के कारण थी। वे देश के सबसे बड़े किसान नेता माने जाते थे। चौधरी चरणसिंह और चौधरी देवीलाल भी किसान नेता थे, लेकिन उनकी अपनी राजनीतिक पार्टियां भी थीं, जबकि टिकैत विशुद्ध किसान नेता थे। दरअसल, 1987 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के कर्नूखेड़ी गांव में बिजलीघर जलने के कारण किसान बिजली संकट का सामना कर रहे थे।


महेंद्र सिंह टिकैत (फाइल फोटो, सोर्स-सोशल मीडिया)


1 अप्रैल, 1987 को इन्हीं किसानों में से एक महेंद्र सिंह टिकैत ने सभी किसानों से बिजली घर के घेराव का आह्वान किया। यह वह दौर था जब गांवों में मुश्किल से बिजली मिल पाती थी। ऐसे में देखते ही देखते लाखों किसान जमा हो गए। खुद टिकैत को भी इसका अंदाजा नहीं था। किसानों के प्रदर्शन और उनकी संख्या देखते हुए सरकार भी घबराई और उसे किसानों के लिए बिजली की दर को कम करने पर मजबूर होना पड़ा। ये किसानों की बड़ी जीत थी। तब टिकैत को लगा कि वो अपने मुद्दों को लेकर बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं।

इसलिए उसी साल अक्तूबर महीने में सिसोली में किसान पंचायत बुलाई गई, जिसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह भी शामिल हुए। कुछ ही महीनों के बाद जनवरी 1988 में किसानों ने अपने नए संगठन, भारतीय किसान यूनियन के झंडे तले मेरठ में 25 दिनों का धरना आयोजित किया, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख़ूब सुर्खियाँ बटोरीं। इस धरने में पूरे भारत से किसान संगठन और नेता शामिल हुए।

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