कोरोना काल में भी दवाइओं के होलसेल रेट से 10 गुना ज्यादा एमआरपी

कुछ लोग इस महामारी में भी अपने फायदे का अवसर देख रहे हैं। कुछ मुनाफाखोरों को 2 साल के बाद भी अपनी कमाई की ही चिंता है।

Written By :  AKshita Pidiha
Published By :  Vidushi Mishra
Update:2021-08-12 13:23 IST

दवाइओं की होल सेल मार्केट (फोटो- सोशल मीडिया)

नई दिल्ली: कोरोना एक तरफ लाखों लोग की जान ले चुका हैं।वही दूसरी तरफ कुछ लोग इस महामारी में भी अपने फायदे का अवसर देख रहे हैं।कोरोना की तीसरी लहर तो आने ही वाली है।और कुछ मुनाफाखोरों को 2 साल के बाद भी अपनी कमाई की ही चिंता है।इसी वजह से ये थोक मूल्य से 10 गुना ज्यादा लेने पर भी बाज नही आ रहे हैं।लोग विवश होकर ऐसी आपदा भरी स्थिति में दवाइयों को 10 गुना तो क्या 20 गुना दामों पर भी लेने को मजबूर हैं।

हमने ऑक्सीजन सिलेंडर की काला बाज़ारी देखी ,हमने इंजेक्शन की कालाबाज़ारी देखी ,अब दवाईयों में भी आवश्यकता से अधिक मुनाफाखोरी देखने को मिल रही है।

जब लोग मौत से लड़ रहे थे तब फार्मा कम्पनियाँ समेत निजी डॉक्टर्स ,रिटेल मेडिकल संचालक और निजी अस्पतालों के लिये ये आपदा एक सूदखोरी का अवसर बन गयी ।कोविड 19 में रेमेडीसीवर इन्जेक्शन की बहुत जरूरत पड़ी तो इस बात का फायदा उठाते हुए कम्पनियों ने थोक मूल्य से 10 गुना ज्यादा बेचना शुरू कर दिया।

हेट्रो कम्पनी के एक इंजेक्शन की एमआरपी 5400 थी जबकि इसका होलसेल रेट 1900 रुपए था ।मतलब 6 इंजेक्शन का कोर्स 32 हज़ार में पड़ा।वही 800 एमआरपी वाले 6 कैडिला इंजेक्शन की कीमत सिर्फ 4800 रुपये थी। यानी दोनों दवाओं में 27600 रूपए का अंतर जबकि दोनो दवाओं में सिर्फ कम्पनी का ही फर्क है।

इसी तरह सिप्ला के एंटीबायोटिक इंजेक्शन मेरोपेनम के 10 डोज की कीमत 36000 है जबकि मायलन कम्पनी के इतने ही इंजेक्शन की कीमत सिर्फ 5000 रुपए है।यानि की 31000 का अंतर।

सवाल ये है कि दवा एक ही है तो दाम अलग कैसे-

फोटो- सोशल मीडिया

दिल्ली ,मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,गुजरात के दवा बाज़ारों में ब्रान्डिड के नाम वे फार्मा कम्पनिया इनके दाम पर 1000 से 1500 % तक बढ़ देती है।खुद बड़ी - बडी कम्पनिया एक ही दवा को जेनरिक और ब्रांड के नाम पर अलग - अलग दामों पर बेचती हैं।ब्रान्डिड में जहाँ 20% का मार्जिन कम्पनी उठाती है वहीं जेनरिक के नाम पर 80 फीसदी तक मार्जिन होता है।एक ही ब्रांड से अलग अलग नामों से दवाई निकालतें हैं जिनकी कीमत एमआरपी से 10 गुना से भी ज्यादा हो सकती है।

पीएम दवा औषधि केंद्र को दवा सप्लाई करने वाले ये मनाते हैं कि उनके द्वारा एक ही दामों पर दवाईयां औषधि केंद्र और दवा कम्पनियों को दी जाती हैं।लेकिन ब्रान्डिड कम्पनियाँ मनमानी एमआरपी डलवाती हैं।कुछ मेडिकल एक्टिविस्ट ये मानते हैं कि 80 फीसदी छूट देने के बाद भी दवाओं में बहुत अधिक एमआरपी होती है।

दवा की कीमतों पर नियंत्रण और निगरानी रखने के लिए नेशनल फार्मासूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी बनाई गई है।यह कंट्रोल्ड कैटेगरी दवाओं की सिंगल मॉलिक्यूल की कीमत तय करती है और कम्पनिया इसी का फायदा उठाती हैं।जैसे कोविड 19 में दी जाने वाली डिओक्सीसाइकलिन। कम्पनियों ने इसकी कॉम्बिनेशन ड्रग बनाकर ,नाम बदलकर इसे कंट्रोल सूची से बाहर रखने का तरीका खोज लिया।

सरकार को दवाओं में होती मुनाफाखोरी को देखते हुए उसके लिए एक जांच कमेटी बैठानी चाहिए ।साथ ही ब्रांड ही इन सब की जड़ है तो इसे खत्म कर देना चाहिए।इसके अलावा होलसेल, मेडिकल स्टोर का 35 फीसदी मार्जिन जोड़कर एमआरपी तय करना चाहिये।ताकि आपदा में इन गतिविधियों पर लग़ाम लगाई जा सके। 

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