Democracy in India: न्यायपालिका की लक्ष्मण रेखा, पढ़ें योगेश मिश्र का ये लेख

Democracy in India: पीएम मोदी द्वारा जेलों में विचाराधीन क़ैदी के रूप में बंद 3.5 लाख क़ैदियों का ज़िक्र।

Report :  Yogesh Mishra
Published By :  Ragini Sinha
Update: 2022-05-04 03:57 GMT

लोकतंत्र (Social media)

Indian Democracy: लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। यह सर्वविदित है कि कोई भी ढाँचा केवल तीन स्तंभों पर टिक नहीं सकता। शायद यही वजह है कि मीडिया ने खुद को स्वयंभू चौथा स्तंभ उद्घोषित कर दिया है। अब जब न्यायपालिका व विधायिका दिल्ली के विज्ञान भवन में एक साथ और आमने सामने दोनों हों तब स्वयंभू स्तंभ के सामने भी खुद को ख़राद पर खड़े करने की जरूरत दिखने लगती है। लेकिन इन दिनों इस स्वयंभू चौथे स्तंभ ने जब अपनी साख खो दी हो, जब वह केवल सत्ता के पक्ष व सत्ता के धुर विपक्ष में खड़ा दिख रहा हो, निष्पक्षता की स्थिति कहीं नहीं रह गयी हो, तब हर जगह केवल एजेंडा चल रहा है और चलाया जा रहा है।

ऐसा नहीं कि यह पहले नहीं हुआ है, पहले नहीं होता रहा है। पर अंतर यह है कि सब के बाद लक्ष्मण रेखा लांघने की न तो स्थिति बनी, न ही आई। लेकिन विधायिका व न्यायपालिका के आमने-सामने होने में जब सच उजागर हुआ, एक दूसरे की बातें कही गयीं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना आसान हो गया कि लक्ष्मण रेखा लांघने का काम केवल मीडिया में नहीं हुआ है, बल्कि  हर जगह चहुँओर अपने-अपने ढंग से लक्ष्मण रेखा लांघी गयी है। लांघी जा रही है। तभी तो सम्मेलन में यह गूंजा कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा का पालन करना चाहिए ।

पर इससे अधिक व कटु सच्चाई यह है कि विधायिका व कार्यपालिका को लक्ष्मण रेखा लांघने की सजा मिलती है, दी जा सकती है। ये जनता के प्रति ज़िम्मेदार हैं। जनता चाहे तो हर पाँच साल में विधायिका को बाहर फेंक सकती है। वैसे तो समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया यहाँ तक समझा चुके हैं कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। कार्यपालिका के खिलाफ आप अदालत में जा सकते हैं। लोकायुक्त है। सीवीसी है। भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने कई संगठन व जाँच एजेंसियाँ हैं। पर अगर न्यायपालिका लक्ष्मण रेखा लांघे तो आम आदमी जाये तो जाये कहाँ? क्या न्यायपालिका ने अपने यहाँ किसी भी तरह समा गयी किसी गंदगी को दूर करने का कोई अभियान चलाया? हद तो यह है कि अदालती फ़ैसलों पर कुछ लिखने व टिप्पणी करने तक से रोक रखा गया है।

अवमानना की चाबुक लटका कर रखी गयी है। वह भी तब जब एक ही मामले में निचली अदालत, हाईकोर्ट व सर्वोच्च अदालत में अलग अलग फ़ैसले हो जाते हैं। जनता को यह समझना मुश्किल हो जाता है कि सही कौन अदालत है? किस अदालत ने किस साक्ष्य, प्रमाण व गवाह को देखा सुना, किसकी अनदेखी की? क़ानून का किसने क्या भाष्य किया? तारीख़ दर तारीख़ तो अदालत की आम बात है। कौन मुक़दमा कितने दिन में निपटेगा यह भी तय नहीं है। चुनाव याचिकाएं तो पाँच साल बाद भी फ़ैसले की स्थिति में पहुँच पायें तो याचिकाकर्ता का सौभाग्य समझें। इसे समझने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जेलों में विचाराधीन क़ैदी के रूप में बंद 3.5 लाख क़ैदियों का ज़िक्र किया जाना काफ़ी है। 

अदालतों में जजों की संख्या कम है। यह नहीं कहा जाना चाहिए । क्योंकि देश में प्रति व्यक्ति जितने डॉक्टर चाहिए, जितने मास्टर चाहिए। सब बहुत कम हैं। हर विभाग में बहुत से पद ख़ाली हैं। केंद्र व राज्य सरकारों में तक़रीबन दस लाख पद ख़ाली हैं। जानकारी के लिए ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट में जजों के केवल 34 पद है। इनमें दो पद ख़ाली हैं। देश के उच्च न्यायालयों में जजों के 1104 पद है। इसमें 387 ख़ाली पड़े हैं। सबसे ज़्यादा वेकेंसी इलाहाबाद हाईकोर्ट में है। यहाँ 160 पद हैं।पर 66 पद ख़ाली हैं। बांम्बे हाईकोर्ट में 37 पद ख़ाली हैं। यहां 94 जज होने चाहिए ।देश भर की निचली अदालतों में कुल 24 हज़ार पद हैं। इनमें से क़रीब 5 हज़ार पद ख़ाली हैं। हमारे यहाँ प्रति दस लाख लोगों पर बीस जज हैं। पिछले साल में 180 जजों की नियुक्ति की सिफ़ारिश की गयी थी। पर केवल 126 जजों की नियुक्ति हुई। पचास जजों के नियुक्ति की फाइल अभी भी लटकी पड़ी है। 

ऐसे में भी दस लाख पर बीस जज होने की बात गले के नीचे उतरने वाली नहीं है । क्योंकि हर आदमी अदालत तक नहीं जाता, नहीं जाना चाहता। यह या इससे मिलती जुलती स्थिति हमेशा रहती है। सुप्रीम कोर्ट में 70632 केस पेंडिंग हैं। अटार्नी जनरल के मुताबिक़ देश भर के हाईकोर्ट में अभी 42 लाख केंस लंबित हैं। निचली अदालतों में चार करोड़ केस लंबित हैं। मुक़दमों की बढ़ती संख्या के बाद भी शीत व ग्रीष्मावकाश कम करने की नहीं सूझ रही है! सारे सरकारी विभागों का काम दस बजे, नौ बजे शुरू हो जाता है। पर मी लार्ड ग्यारह बजे उपस्थित होते हैं। यह सही है कि कई लोग व व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता के चलते पीआईएल का बहुत इस्तेमाल कर रहे हैं। पर इन पर भी नियंत्रण का काम न्यायपालिका का ही है। विधायिका या कार्यपालिका का नहीं।

सम्मेलन में न्यायपालिका की भाषा को लेकर जो सवाल उठाया गया है, वह काबिल ए गौर हैं। प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने न्‍यायालयों के निर्णयों में स्‍थानीय भाषा को बढ़ावा देने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा है कि इससे न्‍यायिक व्‍यवस्‍था में आम आदमी का विश्‍वास बढ़ेगा। पिछले साल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी एक समारोह में कहा था कि 'भाषाई सीमाओं के कारण कोर्ट में वादी को अपने ही मामलों में लिए गए फ़ैसलों को समझने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।' उन्होंने सुझाव दिया कि 'सभी उच्च न्यायालय अपने-अपने प्रदेश की लोकल भाषा में जनहित के फ़ैसलों का प्रामाणिक अनुवाद प्रकाशित और उपलब्ध कराएं।'

हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के हिमायती बहुत समय से यह मांग उठाते आ रहे हैं कि अदालतों के कामकाज की भाषा ऐसी हो जिसे आम आदमी भी समझ सके और वह हर बात के लिए वकीलों पर निर्भर न रहे। अक्सर ऐसा होता है कि मुवक्किल को यह भी पता नहीं चल पाता कि उसका वकील उसका पक्ष रखने के लिए अदालत के सामने क्या दलीलें रख रहा है। इसलिए यह मांग रही है कि देश में अदालती कामकाज की भाषा हिन्दी और अन्य भाषाएं हों। 

पर जहां तक सुप्रीम कोर्ट की बात है तो संविधान के अनुच्छेद 348 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के कामकाज की भाषा अंग्रेजी होगी।  लेकिन यदि संसद चाहे तो इस स्थिति को बदलने के लिए कानून बना सकती है।इसी तरह हाईकोर्ट के कामकाज की भाषा भी अंग्रेजी है लेकिन राष्ट्रपति की पूर्वानुमति लेकर राज्यपाल अपने राज्य में स्थित हाईकोर्ट को हिन्दी या उस राज्य की सरकारी भाषा में कामकाज करने के लिए कह सकते हैं। लेकिन ऐसे हाईकोर्ट भी अपने आदेश, निर्देश और फैसले अंग्रेजी में ही देंगे।

भारत में न्यायालयों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा मुगल काल के दौरान उर्दू और फारसी रही थी। ब्रिटिश शासन के दौरान भी अधीनस्थ न्यायालयों में यही जारी रही। अनुच्छेद 348 (1) (ए) के अनुसार जब तक संसद कानून द्वारा अन्यथा व्यवस्था प्रदान नहीं करती है, सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय के समक्ष सभी कार्यवाही अंग्रेज़ी की जाएगी।

जनवरी 2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल करके इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था कि संविधान में संशोधन करके हिन्दी को सुप्रीम कोर्ट एवं सभी 24 हाईकोर्टों के कामकाज की भाषा बनाया जाए। यह हलफनामा उसी जनहित याचिका के जवाब में दाखिल किया गया था जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया था। एक जनहित याचिका पर विचार करते हुए चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली एक तीन सदस्यीय खंडपीठ ने स्पष्ट कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट की भाषा अंग्रेजी ही है और इसकी जगह हिन्दी को लाने के लिए वह केंद्र सरकार या संसद को कानून बनाने के लिए नहीं कह सकता । क्योंकि ऐसा करना विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारक्षेत्र में दखल देना होगा।

केंद्रीय गृह मंत्रालय का हलफनामा 2008 में विधि आयोग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर आधारित था । जिसमें आयोग ने विचार व्यक्त किया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में हिन्दी का इस्तेमाल अनिवार्य करने का प्रस्ताव व्यावहारिक नहीं है और लोगों के किसी भी हिस्से पर कोई भी भाषा जबर्दस्ती नहीं लादी जा सकती। हाईकोर्ट के न्यायाधीशों का अक्सर एक राज्य से दूसरे राज्य में तबादला होता रहता है, इसलिए उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे अपने न्यायिक कर्तव्यों को अलग-अलग भाषाओं में पूरा कर सकें। 

अदालती भाषा का सवाल भले ही फ़ाइलों में चक्कर काटने को अभिशप्त हो पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहे की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। उनके अनुभव ज़मीनी हैं। क्योंकि कोर्ट की कार्यवाही और फ़ैसला आम लोगों की भाषा में होगा तभी लोगों का जुडिशियरी के प्रति विश्वास बढ़ेगा और वे इससे अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे। अदालती फ़ैसलों को केवल क़ानून की व्याख्या व परिभाषा से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इनका सीधा सरोकार लोगों के विश्वास से भी है। पर चीफ़ जस्टिस का यह कहना कि बिना पर्याप्त बहस के विधायिका से पास हुए क़ानूनों से मुकदमेंबाजी बढ़ी है, तहसीलदार सही से काम करें तो किसानों को शायद ही कोर्ट आना पड़े - यह बताता है कि तीनों संस्थाएँ अपना अपना नहीं वरन एक दूसरे का काम कर रही हैं।

इससे जब तीनों बाज आयेंगी और अदालत खुद को भी जनता के सामने अपनी और अपने जजों के निजी जीवन से लेकर फ़ैसलों तक के लिए कसौटी पर कसने का अवसर देगी तभी संविधान में दर्ज तीनों स्तंभ मज़बूती से खड़े रह कर काम करते हुए देखे जा सकेंगे। नहीं तो ब्लेमगेम और लक्ष्मण रेखा लांघने के आरोप प्रत्यारोप के सिवाय कुछ नहीं होगा

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