Farmer Protest: यूपी के किसानों की क्या है समस्या जिसे मुद्दा बना सकते हैं किसान आंदोलनकारी
Farmer Protest: पंजाब और हरियाणा के किसान बड़ी जोतों के स्वामी हैं। उनमें भी तमाम ऐसे हैं जिनका हित मंडियों से जुड़ा हुआ है।
Farmer Protest: पंजाब, हरियाणा के किसानों के नये कृषि कानूनों के विरोध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता को आयात करने के बावजूद यूपी में किसान आंदोलन उस तरह परवान नहीं चढ़ सका जैसा पंजाब, हरियाणा और दिल्ली बार्डर के गांवों में चढ़ा। किसान आंदोलन के महीनों गुजर जाने के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश को छोड़कर अगर शेष यूपी की बात की जाए तो किसान आंदोलन में किसानों की भागीदारी नहीं दिखती है। इसकी कई वजह हैं जिसके चलते यूपी का किसान पंजाब और हरियाणा के किसानों के साथ नहीं खड़ा हुआ।
पंजाब और हरियाणा के किसान बड़ी जोतों के स्वामी हैं। उनमें भी तमाम ऐसे हैं जिनका हित मंडियों से जुड़ा हुआ है। जबकि यूपी के किसान छोटी जोतों के स्वामी हैं। ज्यादातर खेतिहर मजदूर या बटाई पर खेती करने वाले हैं। इनको मंडियों से कोई फर्क नहीं पड़ता इनके पास इतना अधिक अनाज नहीं होता कि मंडियों को अपनी तरफ मोड़ सकें या मंडियों के झमेलों में उलझें। ज्यादातर किसान खुले बाजारों में अपना अनाज बेच लेते हैं। या फिर सरकारी खरीद से लाभ कमा लेते हैं। यूपी के तमाम किसान नये कृषि कानूनों से परिचित भी नहीं हैं न ही वह इसमें उलझना चाहते हैं। उन्हें अपनी दाल रोटी दिखायी दे रही है।
दूसरा कारण यह है कि किसान आंदोलन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भागीदारी इस नाते हो गई है, क्योंकि वहां पर गांव जाती के आधार पर पर एक लाइन से 60 या 70 गांव एक ही जाति के हैं। वहां खापों के जरिये किसान राजनीति नियंत्रित होती है। तीसरा कारण यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान रईस हैं। जबकि शेष यूपी में ऐसा नहीं है। चौथा कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिकांश गांवों के लड़के सुरक्षा सेवाओं में हैं जिसकी वजह से वह अपने घर परिवार की आर्थिक रूप से मदद भी करते रहते हैं। जिससे इन परिवारों का जीवन स्तर मजबूत है।
अब अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को छोड़कर शेष यूपी पर नजर डालें तो गांवों में किसान जातीय खांचों में बंटा हुआ है। इसके अलावा किसानों की जोतों बहुत छोटी हैं। जिसके चलते ज्यादातर किसानों के पास अपना साल भर का राशन या खर्च निकालने के बाद मंडी में बेचने के लिए बहुत कुछ नहीं होता। इसके लिए वह कई बार तो सरकारी खरीद के मूल्य से भी बेहतर कीमत पर अनाज मंडी के बाहर ही बेच लेता है। इसलिए उसे इन सब से बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ रहा है। इसके अलावा वर्तमान सरकार की जो नीतियां हैं उससे भी किसान को लाभ हो रहा है। जिसके चलते वह किसान आंदोलन से अलग थलग है।
बात करें बुंदेलखंड क्षेत्र की तो बुंदेलखंड किसान यूनियन अपने क्षेत्र के किसानों की जिन समस्याओं को लेकर परेशान है उसका किसान आंदोलन से कोई लेना देना नहीं है। यूनियन के नेताओं का कहना है कि इस कोरोना महामारी में किसान बुरी तरह प्रभावित हुआ है। मजदूर फसल की कटाई, कतराई के समय नहीं मिले। इससे अधिकांश फसल खेतों में बर्बाद हो गई। जिन किसानों ने इस कार्य को पूरा किया उनकी लागत बढ़ गई। खरीद केंद्रों में वाजिब मूल्य नहीं मिला। इस कारण किसानों की आर्थिक स्थिति सही नहीं है। लेकिन संग्रह अमीनो ने राजस्व कर की वसूली सख्ती के साथ शुरू कर दी। इससे किसान आर्थिक व मानसिक रूप से परेशान हैं। बुंदेलखंड किसान यूनियन राजस्व कर वसूली पर रोक लगाये की मांग को लेकर लड़ रही है।
उधर गेहूं बेल्ट की बात करें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले साल की तुलना में अधिक गेहूं की खरीद की है। यूपी सरकार ने इस बार रिकॉर्ड खरीदारी करते हुए पिछले साल की तुलना में 20 लाख मीट्रिक टन अधिक गेहूं की खरीद की है। उत्तर प्रदेश सरकार ने रबी विपणन वर्ष 2021-22 में न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के तहत कुल 56.39 लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीद की है। सरकार की तरफ से अब तक 12,97,829 किसानों को लाभान्वित किया गया है और 10,233.29 करोड़ रुपये का भुगतान सीधे किसानों के खातों में किया गया है। इतनी बड़ी संख्या में किसानों के पास पैसा पहुंचने के बाद वह अपने जरूरी काम निपटाए या आंदोलन देखे।
इससे पूर्व भी प्रदेश में वर्ष 2018-19 में 52.92 लाख मीट्रिक टन की सर्वाधिक खरीद की गई थी। वर्ष 2019-20 में 37.04 लाख मीट्रिक टन तथा गत वर्ष 2020-21 में 6,63,810 किसानों से कुल 35.76 लाख मीट्रिक टन की खरीद की गई थी। इस प्रकार गत वर्ष की तुलना में 20.63 लाख मीट्रिक टन की अधिक खरीद की गई है और 6,34,019 अधिक किसानों को लाभान्वित किया गया है। इसके अलावा योगी सरकार ने 4 वर्षों में 46 लाख 38 हजार 828 किसानों से 218 लाख 86 हजार मीट्रिक टन गेहूं की खरीद की है, जबकि कांग्रेस का समर्थन प्राप्त सपा-बसपा की संयुक्त सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल में सिर्फ 231 लाख 7 हजार मीट्रिक टन ही गेंहू खरीदा गया था, ऐसे में उनके अनाज खरीद के मामले में उनके 10 साल के कार्यकाल पर योगी सरकार के 4 साल भारी हैं। फिर ऐसे में किसान क्यों सरकार के खिलाफ जाए।
योगी सरकार द्वारा 4 वर्ष में 1 लाख 37 हजार 820 करोड रूपये का गन्ना भुगतान किया गया जबकि पूर्व की सपा सरकार में महज 95 हजार 215 करोड़ का भुगतान हुआ था। ऐसे में जबकि योगी सरकार द्वारा सपा सरकार से करीब 42 हजार करोड़ अधिक गन्ना भुगतान किया जा रहा है तो किसान विरोध कैसे करे।
अखिलेश सरकार में महज करीब 7 लाख 78 हजार मीट्रिक टन खाद्यान की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गई थी जबकि योगी सरकार ने 8 गुना अधिक करीब 56 लाख मीट्रिक टन से भी अधिक गेंहूं न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने का काम किया है। इन हालात में यूपी का किसान आंदोलनकारियों को संदेह की नजर देख रहा है और उनके साथ खड़ा होने का कोई वाजिब कारण तलाश नहीं पा रहा है।