Caste Census: जातिगत जनगणना पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश, 'नहीं सार्वजनिक होंगे 2011 के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन आंकड़े'

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र आज केंद्र की उस दलील को स्वीकार कर लिया है, जिसमें कहा गया था कि साल 2011 की जनगणना में सामने आए सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन के आंकड़े सार्वजनिक नहीं होंगे।

Published By :  aman
Update: 2021-12-15 09:17 GMT

Supreme Court on Caste Census: सुप्रीम कोर्ट (supreme court) ने केंद्र आज केंद्र की उस दलील को स्वीकार कर लिया है, जिसमें कहा गया था कि साल 2011 की जनगणना में सामने आए सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन (caste census) के आंकड़े सार्वजनिक नहीं होंगे। बता दें, कि केंद्र सरकार (central govt) Supreme Court,dismisses, Maharashtra govt plea, 2011 caste census data public,data in publicने कहा था, कि वर्ष 2011 में ओबीसी की संख्या जानने के लिए जातिगत जनगणना (caste census) नहीं हुई थी। परिवारों का पिछड़ापन जानने के लिए सर्वे हुआ था। लेकिन, वह आंकड़ा त्रुटिपूर्ण है। इसलिए इस्तेमाल करने लायक नहीं है। 

सर्वोच्च अदालत में इस मामले पर महाराष्ट्र सरकार ने याचिका दाखिल की थी। जिसमें राज्य सरकार ने स्थानीय चुनाव में ओबीसी आरक्षण देने के लिए यह आंकड़ा सार्वजनिक करने की मांग की थी। लेकिन, कोर्ट ने राज्य सरकार की याचिका खारिज कर दी। यहां एक अहम बात यह भी है, कि कोर्ट ने केंद्र के जिस हलफनामे को स्वीकार किया है, उसमें 2022 में भी जातीय जनगणना न करने की बात कही गई है। 

'..उसे ओबीसी की गणना नहीं कह सकते'   

दरअसल, केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय ने अदालत में दाखिल लिखित जवाब में कहा था, कि पिछड़ी जातियों की गणना कर पाना व्यावहारिक नहीं होगा। केंद्र ने बताया था कि 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना यानी Socio Economic and Caste Census (SECC) किया गया था, उसे ओबीसी की गणना नहीं कहा जा सकता।

सरकार ने बतायी मुख्य वजह 

इस बारे में संबंधित मंत्रालय का कहना था, कि साल 2011 के सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना का मकसद परिवारों के पिछड़ेपन का आकलन करना था। इसके आधार पर जब जातिगत जनसंख्या का आकलन करने की कोशिश की गई, तो इसमें पता चला कि लोगों ने लाखों जातियां दर्ज करवाई हुई हैं। जबकि, केंद्र और राज्यों की ओबीसी लिस्ट में सिर्फ कुछ हजार जातियां ही हैं। लोगों ने अपने गोत्र, उपजाति आदि को भी दर्ज करवा दिया। इस तरह जातियों की संख्या का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सका.

'स्पेलिंग' ने भी बिगाड़ा खेल 

पेश हलफनामे में बताया गया था, कि जातियों की वर्तनी यानी स्पेलिंग में इतना अंतर है, कि पता लगाना मुश्किल है कि कौन सी ओबीसी है, कौन नहीं। केंद्र ने महाराष्ट्र का ही उदाहरण देते हुए बताया, कि वहां पोवार ओबीसी हैं, लेकिन पवार नहीं। अक्सर देखा जाता है कि एक ही गांव या कस्बे में लोगों ने अपनी जाति की स्पेलिंग अलग दर्ज करवा दी है। कई जगह सर्वे करने वालों ने अलग-अलग स्पेलिंग लिख दी है। ऐसे में इस सर्वे के आधार पर जातिगत आंकड़ा निकालना बेकार साबित हुई।   

हलफनामे में वर्ष 2022 में भी जातीय जनगणना न करने की बात 

केंद्र सरकार की दलील सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर महाराष्ट्र सरकार की ओर से दायर याचिका दाखिल कर दी। दरअसल, राज्य सरकार ने स्थानीय चुनाव में ओबीसी आरक्षण देने के लिए यह आंकड़ा सार्वजनिक करने की मांग की थी। अब सबसे अहम और गौर करने की बात है, कि कोर्ट ने केंद्र के जिस हलफनामे को स्वीकार किया है, उसमें वर्ष 2022 में भी जातीय जनगणना न करने की बात कही गई है।                                                          

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