अतीत की गलतियों को सुधारने का समय, पढ़े वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र का लेख
देश के हर महत्वपूर्ण मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं, जबकि एक भी मस्जिद सरकार के हाथ के नीचे नहीं है।
Uniform Civil Code: राजनीति के मौलिक कामों में चर्चा, पर्चा व खर्चा आता है। कोई भी राजनेता या कोई भी राजनीतिक दल किसी कार्यक्रम को अंजाम देने के लिए इन तीनों का सहारा लेते हैं। यह आज़ादी के बाद से आज तक की सियासत में देखा जा सकता है। यह ज़रूर है कि देश काल के हिसाब से इनका अनुपात कम या ज़्यादा हो सकता है। पर तीनों की मौजूदगी अनिवार्य तौर पर देखी जा सकती है।
लेकिन इस मान्य धारणा को सिद्धांत व व्यवहार में प्रयोग करने के बाद भी इस मान्य सिद्धांत पर अमल करना ज़रूरी नहीं समझा गया? यह देश की आज़ादी से लेकर देश में लागू की गयी धर्मनिरपेक्षता तक के कई मसलों में देखा जा सकता है। यही वजह है कि हम भारत के लोग इस गलती का अभिशाप आज भी भुगत रहे हैं। आज़ादी के बाद के हमारे क़ानून, आईपीसी व सीआरपीसी भी यही कहते हैं कि हमारी आज़ादी अपने मौलिक स्वरूप में स्वतंत्रता नहीं है बल्कि " ट्रांसफ़र ऑफ पॉवर हैं।"
राज्य के पास हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने का अधिकार
हमने देश को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने में भी गलती की। कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यक नहीं हैं? पूर्वोत्तर में हिंदू अल्पसंख्यक नहीं है? पर उत्तर प्रदेश में अठारह फ़ीसद और देश में सोलह फ़ीसद मुसलमान अल्पसंख्यक हैं? वह भी तब जब कोई भी एक जाति अपने बूते पर इतनी संख्या में नहीं है। यह स्थिति तब है जब केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत में दाख़िल एक हलफ़नामे में कहा है कि जो भी राज्य सरकार चाहे अपने राज्य में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित कर सकती है। केंद्र सरकार के शपथ पत्र में कहा गया है कि अल्पसंख्यक केवल उन्हें माना जायेगा जो भाषाई व सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक हैं।
राम मंदिर का ताला खुलवाने के बाद राजीव गांधी इसे सेलिब्रेट करना तो छोड़िये स्वीकार नहीं कर पाये? बल्कि शाहबानो केस में उन्हें संसद के अंदर घुटनों पर आना पड़ा। आज जब राम मंदिर सरकार बनवाने का माध्यम हो गया है तब भी राजीव के परिजन, जो कांग्रेसी नैया के खेवनहार हैं, इसे स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं? मुंबई में लाउडस्पीकर लगाकर हनुमान चालीसा का पाठ करने पर मनसे नेता महेंद्र भानुशाली पर पाँच हज़ार का जुर्माना ठोंक दिया गया। साथ ही पुलिस ने उन्हें हिरासत में भी ले लिया।
पर देश की करोड़ों मस्जिदों पर जानें कब से लाउडस्पीकर बांध कर अजान की जा रही है। वह भी तब जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने 15 मई, 2020 को यह आदेश दिया कि अजान इस्लाम का अनिवार्य तत्व हैं, लेकिन लाउडस्पीकर या किसी ध्वनि विस्तार यंत्र का इस्तेमाल करना इस्लाम का हिस्सा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत किसी भी ध्वनि विस्तारक यंत्र का इस्तेमाल करना आवश्यक नहीं है। यह फ़ैसला देने वालों में न्यायमूर्ति शशिकांत गुप्ता व न्यायाधीश अजित कुमार थे।
सभी महत्वपूर्ण मंदिर सरकारी नियंत्रण में
उड़ीसा में स्थानीय नेताओं की मिलीभगत से अंग्रेज सरकार ने 1878 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर की संपत्तियों को अपने कब्जे में ले लिया था। 1817 में मद्रास रेगुलेशन आया था। 1863 में रिलीजियस एंडोमेंट एक्ट आया। इसके बाद सरकार का नियंत्रण मंदिरों पर बढ़ता गया। स्वतंत्रता के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया। हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1951 में बना दिया गया । जिसके तहत हिंदू धार्मिक संस्थानों के प्रशासन का नियंत्रण सरकार को मिल गया। तर्क था मंदिरों के 'कुप्रबंधन' को रोकना।
वैसे, संविधान का अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। मुस्लिम, ईसाई और सिख और अन्य धार्मिक समुदायों ने अपने धार्मिक संस्थानों के प्रबंध में इस संवैधानिक गारंटी का भरपूर इस्तेमाल किया है और ये संस्थान सरकारी नियंत्रण के दायरे से बाहर हैं। जबकि हिंदुओं के मामले में ऐसा नहीं रहा। विडंबना यह है कि 1925 में, सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित किया गया था, जिसने गुरुद्वारों को सिखों के एक निर्वाचित निकाय के नियंत्रण में ला दिया।
धार्मिक स्थलों के मैनेजमेंट के लिए समान कानून बनाने की गुहार
अब सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर देश भर के तमाम धार्मिक स्थलों के मैनेजमेंट के लिए एक समान कानून बनाने की गुहार लगाई गई है। हिंदुओं, सिख, जैन और बौद्ध के धार्मिक स्थलों को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहले अंग्रेज ने 1863 में कानून बनाया था। इसके बाद से दर्जनों कानून और भी बने। जिसके तहत हिंदुओं, सिख, बौद्ध और जैन के धार्मिक स्थल व संस्थानों के मैनेजमेंट और रखरखाव सरकार के हाथ में है।
हिंदू रिलिजियस चैरिटेबल एनडोमेंट्स एक्ट के तहत राज्य सरकार को इस बात की इजाजत है कि वह मंदिर आदि का वित्तीय और अन्य मैनेजमेंट अपने पास रखे। वर्तमान में देश के 18 राज्यों ने हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के चार लाख पूजा स्थलों पर नियंत्रण कर रखा है। इसके लिए विभिन्न राज्यों में 30 से ज्यादा कानून बनाए गए हैं , जो मंदिरों की चढ़ावे से होने वाली आय, मंदिरों की संपत्ति और रखरखाव से संबंधित हैं।
मंदिरों में सालाना अरबो रुपये दान किये जाते हैं। कुछ सबसे अमीर मंदिरों की बात करें तो, तिरुपति बालाजी, श्री वैष्णो देवी मंदिर, सिद्धि विनयाक मंदिर, साईं बाबा मंदिर, श्री जगन्नाथ पूरी मंदिर इत्यादि ऐसे मंदिर हैं जिनमे हर साल अरबो रूपये का दान किया जाता है।
वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर- तिरुपति
10 वीं शताब्दी में निर्मित श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक तीर्थ स्थलों में से एक है। इस मंदिर में हर दिन औसतन 30,000 श्रद्धालु आते हैं। हर साल मंदिर ट्रस्ट द्वारा तीर्थयात्रियों से दान पेटियों में प्राप्त 3000 किलोग्राम से अधिक सोने को राष्ट्रीयकृत बैंकों में भंडार के रूप में रखा जाता है। मंदिर का सालाना बजट लगभग 2600 करोड़ रूपये का है। यहां लगभग 1000 करोड़ हुंडी के चढ़ावे से और ब्याज से 8000 करोड़ रुपए की आय होती है। इसके साथ दूसरे स्त्रोतों से 600 करोड़ रुपये की आय होती है। बहुत सारे बैंकों में मंदिर का करीब 3000 किलो सोना जमा है। मंदिर के पास 1000 करोड़ रुपये की फिक्स्ड डिपॉजिट भी हैं।
पद्मनाभस्वामी मंदिर केरल
तिरुवनंतपुरम में स्थित, भारत के प्रमुख धार्मिक स्थलों और सबसे धनी मंदिरों में से एक है, जिस पर सोने की परत चढ़ी हुई है। यह मंदिर 108 दिव्य देशमों में से एक है, जो वैष्णववाद के धर्म में पूजा का प्रमुख केंद्र हैं। पद्मनाभस्वामी मंदिर में भगवान विष्णु के अवतार भगवान पद्मनाभ की पूजा की जाती है। 7 जुलाई 2011 को इस मंदिर में पांच तहखानों की खोज की गई थी, जहाँ से लगभग 1,00,000 करोड़ रुपये की संपत्ति पाई गयी थी। श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर की वार्षिक संपत्ति – लगभग 500 करोड़ रुपये है। मंदिर में कई क्विंटल हीरे-जवाहरात हैं और 1300 टन सोना है।
वैष्णो देवी मंदिर
वैष्णो देवी मंदिर भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक है। मंदिर की संपत्ति 500 करोड़ के आसपास है। अनुमान के अनुसार इस मंदिर के पास 1.2 टन सोना है। मंदिर की सालाना आय 500 करोड़ रुपए है। तिरुपति बालाजी मंदिर के बाद देश में सबसे ज्यादा भक्त यहां दर्शन के लिए आते हैं।
साईं बाबा मंदिर शिरडी
साईं बाबा मंदिर भारत के तीसरे सबसे अमीर मंदिर के रूप में जाना जाता है। माना जाता है की मंदिर ट्रस्ट द्वारा 2,000 करोड़ रुपये से अधिक का संग्रह किया गया है, जिसमे 380 किलोग्राम सोना, 4,428 किलोग्राम चांदी शामिल है। मंदिर में हर साल लाखों श्र्धालुयों और पर्यटकों का द्वारा दान किया जाता है। साईं बाबा मंदिर की बार्षिक आय 320 करोड़ के आसपास है।
सिद्धिविनायक मंदिर
मुंबई स्थित सिद्धिविनायक मंदिर भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। कभी सिद्धिविनायक मंदिर ईंट की एक छोटी संरचना हुआ करती थी , जो आज भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक है। मंदिर के पास 160 टन सोना जमा है। स्वर्ण मौद्रीकरण योजना के तहत यह मंदिर 44 किलो सोना बैंक में जमा कर चुका है। हर साल इस मंदिर में चढ़ावे के लगभग 50 करोड़ रुपये आते हैं। इसके फिक्स्ड डिपॉजिट के रूप में 125 करोड़ रुपए जमा है। इसी कारण यह मंदिर महाराष्ट्र का दूसरा सबसे अमीर मंदिर कहलाता है।
जगन्नाथ मंदिर पुरी
जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 11 वीं शताब्दी में राजा इंद्रद्युम्न द्वारा करबाया गया था। यह शानदार मंदिर भगवान जगन्नाथ का निवास है, जो भगवान विष्णु का एक रूप है। यह हिंदुओं के लिए सबसे श्रद्धेय तीर्थ स्थल है और बद्रीनाथ, द्वारका और रामेश्वरम के साथ पवित्र चार धाम यात्रा में शामिल है।
वर्ष 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भगवान जगन्नाथ मंदिर की संपत्ति 150 करोड़ से अधिक थी। और इसी बजह से जगन्नाथ मंदिर भारत के सबसे अमीर मंदिरों में शामिल है। मंदिर को एक बार एक यूरोपीय भक्त द्वारा 1.72 करोड़ रूपये का दान किया गया था। मंदिर की संपत्ति 2500 करोड़ से भी ज्यादा है।
सबरीमाला मंदिर केरल
भारत के सबसे धनी मंदिरों में से एक सबरीमाला मंदिर केरल के सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है। हर साल लगभग 10 करोड़ भक्त यहाँ दर्शन करते हैं। सबरीमाला मंदिर केरल के पठानमथिट्टा में स्थित दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा और भारत का पहला सबसे बड़ा मंदिर है। राजस्व विभाग की गणना के अनुसार मंदिर की संपत्ति 230 करोड़ रूपये के आसपास आंकी गयी है।
मीनाक्षी मंदिर तमिलनाडु
वर्ष 1623 और 1655 के बीच निर्मित, इस जगह की अद्भुत वास्तुकला विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है। मीनाक्षी मंदिर के परिसर में लगभग 33,000 मूर्तियां हैं। इस मंदिर में हर साल लगभग 6 करोड़ रुपये की नकदी और करोड़ों के जेवरात चढ़ाए जाते हैं।
सोमनाथ मंदिर गुजरात
सोमनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंग मंदिरों में से एक है। यह गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित है। सोमनाथ मंदिर की आय 11 करोड़ रुपये है। मंदिर के पास 1700 एकड़ भूमि और 35 किलो सोना है।
मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की लड़ाई
इन मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने वाली लड़ाई के अगुआ हैं- टी.आर.रमेश। वे सर्वोच्च न्यायालय में "स्वामी दयानंद सरस्वती केस" का प्रतिनिधित्व करते हुए, तमिलनाडु, कर्नाटक और पुडुचेरी में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए लड़ रहे हैं। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर रही है। इस याचिका के प्रमुख वादी स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती हैं। विश्व हिंदू परिषद देश भर के मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के लिये एक अभियान पर विचार कर रही है। विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा, "देश के चार लाख से ज्यादा धर्म स्थलों-मठों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाना चाहिये। इसके लिए विहिप आंदोलन चलाएगा।"
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले साल दशहरा के मौके पर अपने संबोधन में कहा था कि हिंदू धर्मस्थानों को व्यवस्था के नाम पर दशकों शतकों तक हड़प लेने, अभक्त/अधर्मी/विधर्मी के हाथों उनका संचालन करवाने आदि अन्याय दूर हों तथा हिंदू मंदिरों का संचालन हिंदू भक्तों के ही हाथों में रहे। 2021 में भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने कहा था कि आंदोलन के जरिए सरकार को मंदिरों को नियंत्रण मुक्त करने के लिए विवश किया जाएगा। उनका कहना है कि हिंदू खुद मंदिरों का संरक्षण करेगा।
मदरसे सरकार के हाथ से बाहर
यही नहीं, संस्कृत शिक्षा सरकारी नियंत्रण में है पर मदरसे सरकार के हाथ से बाहर हैं? हिंदुओं के लिए अलग से हिंदू विधि है? जिसमें अलग मैरेज एक्ट भी आता है। पर मुसलमान शरीयत से चलेगा, क़ानून से नहीं? मुसलमानों के हालात के अध्ययन के लिए रंगनाथ मिश्र व सच्चर कमीशन बनता है, पर दलितों के हालात के अध्ययन पर सरकार गौर ही नहीं करती ? राष्ट्र गीत में बुतपरस्ती नज़र आती हो। पर मज़ार पर सजदे करना निराकार की उपासना?
मुस्लिम शरीयत का भारत में सबसे भौंडे स्वरूप में व केवल पुरूषों के हित में उपयोग हो रहा रहा है। हिंदू लॉ दरअसल एक औपनिवेशिक निर्माण है। यूरोपियन शासकों के दक्षिण एशिया में आने के बाद यह शब्द उभरा। 1772 में ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा यह निर्णय लिया गया कि भारत में यूरोपीय आम कानून प्रणाली लागू नहीं की जाएगी बल्कि भारत के हिंदुओं पर उनके "हिंदू कानून" के तहत और भारत के मुसलमानों पर "मुस्लिम कानून" (शरिया) के तहत शासन किया जाएगा।
अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए हिंदू कानून का सार 'मनुस्मृति' से लिया गया था। हालाँकि, अंग्रेजों ने धर्मशास्त्र को कानून के कोड के रूप में गलत समझा। यह पहचानने में विफल रहे कि इन ग्रंथों में कही गयी बातें जमीन-जायदाद के कानून नहीं हैं। एक्सपर्ट्स ने ये सवाल भी उठाये हैं कि अंग्रेजों ने अपने हिसाब से मनुस्मृति का मतलब निकाला था। एक्सपर्ट्स का कहना है कि औपनिवेशिक काल में हिंदू कानून और इस्लामी कानून का निर्माण और कार्यान्वयन भारतीय समाज को विभाजित करने के लिए किया गया था।
समान नागरिक संहिता को किया गया नजरअंदाज
स्वतंत्रता के बाद भारत ने एक नया संविधान अपनाया। लेकिन औपनिवेशिक युग के अधिकांश कानूनी कोड नए राष्ट्र के कानून के रूप में जारी रहे, जिसमें हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के लिए एंग्लो-हिंदू कानून, ईसाइयों के लिए एंग्लो-ईसाई कानून और एंग्लो-मुस्लिम के लिए पर्सनल लॉ शामिल हैं। हिंदू लॉ को तो संशोधित किया गया। लेकिन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में कही गयी समान नागरिक संहिता की बात को लगातार भारतीय सरकारों द्वारा मुस्लिम कानून के मामलों में बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया।
भारत में सभी मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 द्वारा शासित हैं। यह कानून मुसलमानों के बीच विवाह, उत्तराधिकार, विरासत और दान से संबंधित है। मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 उन परिस्थितियों से संबंधित है जिनमें मुस्लिम महिलाएं तलाक प्राप्त कर सकती हैं, तलाक के बाद उनके अधिकार आदि मामले इसी में निहित हैं। ये कानून गोवा राज्य में लागू नहीं हैं। क्योंकि गोवा नागरिक संहिता सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से लागू है।
भारतीय प्रायद्वीप में सन 1206 तक मुस्लिम पर्सनल लॉ का कोई सबूत नहीं है। गुलाम वंश (1206-1290 ईस्वी), खिलजी वंश (1290- 1321), तुगलक वंश (1321-1413), लोदी वंश (1451-1526) और सूर वंश (1539-1555) के शासनकाल के दौरान, शाही दरबार शरीयत और मुफ्ती की सहायता से मुसलमानों के बीच व्यक्तिगत कानून से जुड़े मामलों से निपटता था। बाद में औरंगजेब ने कानून की एक संहिता बनाने का आदेश दिया था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत मुस्लिम कानून लागू किया गया। लेकिन ये उन मामलों में लागू नहीं होता था जब मुसलमान अपने विवादों को हिंदू शास्त्रों के अनुसार तय करना चाहते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में वर्ष 1772 के एक नियम में कहा गया था कि - विरासत, उत्तराधिकार, विवाह, जाति और अन्य धार्मिक प्रथाओं या संस्थानों के संबंध में सभी मुकदमों में, मुसलमानों के संबंध में कुरान के कानूनों और हिंदुओं के संबंध में शास्त्रों के कानूनों का हमेशा पालन किया जाएगा।
1822 में, प्रिवी काउंसिल ने शिया मुसलमानों के अपने कानून के अधिकार को मान्यता दी थी। 1937 में भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा शरीयत एप्लीकेशन एक्ट लागू किया गया। भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी शरीयत अधिनियम को बनाए रखा गया था। कानून को मूल रूप से ब्रिटिश सरकार द्वारा नीति के रूप में पेश किया गया था, लेकिन आजादी के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम पहचान और धर्म के लिए महत्वपूर्ण हो गया। जब तक ये सब समाप्त नहीं होते, तब तक धर्म निरपेक्षता, साझी संस्कृति, साझी विरासत, अनेकता में एकता, जैसे दावे बेमानी ही रहेंगे।
क्योंकि समान नागरिक संहिता का न लागू होना, तुष्टिकरण आदि तमाम विसंगतियों के ख़िलाफ़ कहीं न कहीं कोई न कोई लड़ाई देश के अलग अलग हिस्सों में लड़ते हुए लोग मिलते हैं। पर कुछ को सांप्रदायिक कह कर नकार दिया जाता है। पर नकार देने से काम चलने वाला नहीं है। क्योंकि इन्हें लागू करते समय न तो चर्चा की गयी, न ही कोई पर्चा छाप लोगों को जागरूक किया गया। जब ये दोनों नहीं हुए तो ख़र्चा का सवाल ही कहाँ उठता है।
दोस्तों देश और दुनिया की खबरों को तेजी से जानने लिए बने रहें न्यूजट्रैक के साथ। हमें फेसबुक पर फॉलो करने के लिए @newstrack और ट्विटर पर फॉलो करने के लिए @newstrackmedia पर क्लिक करें।