'गुंजन सक्सेना' करने के बाद लोग मुझे पहचानने लगे हैं: एक्टर आशीष भट्ट
'गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल' में जान्हवी कपूर के को-पायलट वीरेंद्र राणा का किरदार आशीष भट्ट ने ही निभाया है। इस किरदार को बख़ूबी निभाने वाले एक्टर आशीष भट्ट से बातचीत के कुछ अंश...
शाश्वत मिश्रा
नफ़ासत-ओ-नज़ाकत के शहर से ताल्लुक रखने वाले, तहज़ीब का अमामा पहने, कला-संस्कृति का जाया अपनी काया पर धारण किये हुए, एक ऐसे एक्टर जिन्होंने अपनी एक्टिंग से लोगों के दिलों में जगह बनाई है। 'गॉन केश', 'मिलन टॉकीज', 'द अटैक्स ऑफ़ 26/11' और 'गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल' में अपनी एक्टिंग का हुनर दिखाकर एक्टर आशीष भट्ट ने इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बनाने में सफल हुए हैं। हाल ही में रिलीज़ हुई 'गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल' में जान्हवी कपूर के को-पायलट वीरेंद्र राणा का किरदार आशीष भट्ट ने ही निभाया है। इस किरदार को बख़ूबी निभाने वाले एक्टर आशीष भट्ट से बातचीत के कुछ अंश...
गुंजन सक्सेना की सक्सेस को कैसे एन्जॉय कर रहे हैं?
घरवालों के साथ एन्जॉय कर रहा हूँ, और मेरे जो वेलविशर्स हैं, उनकी ख़ुशी में शरीक होकर एन्जॉय कर रहा हूँ। क्योंकि, अब मैंने तो कर दिया(गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल), जो अब रिएक्शन्स आ रहा है, वो बहुत पाजिटिविटी दे रहा है। ये लॉकडाउन में मोटिवेशन जैसा है। ऐसा लग रहा कि ये साल तो बर्बाद नहीं गया।
'तनु वेड्स मनु' के असिस्टेंट डायरेक्टर से लेकर 'गुंजन सक्सेना' तक का स्ट्रगल कैसा रहा?
मैं इसको स्ट्रगल नहीं बोलूंगा, हालांकि मुझे स्ट्रगल शब्द से कोई गुरेज़ नहीं है। ये लर्निंग बहुत कमाल की रही और बहुत ही इंट्रेस्टिंग है। हर पल बहुत इंट्रेस्टिंग है, क्योंकि, ये बहुत अनप्रेडिक्टेबल(अविश्वसनीय) है। तो, ये आपको बहुत ज़्यादा जीने का मौका देता है... क्योंकि, जब आपको पता ही नहीं होता कि अगला पल आपके साथ कैसा होगा। तो.. वो.. जो एक लर्निंग होती है कि आप इंसानियत सीखते हैं, आप अपने आप के बारे में जानते हैं। आपको बहुत अच्छे लोगों से मिलने का मौका मिलता है, वे अपने साथ कमाल की चीजें लेकर आते हैं।
उनके साथ काम करके आप एक इंसान के तौर पर, एक एक्टर के रूप में काफी कुछ सीखते हैं। क्योंकि, कहते हैं ना.... जब आप के पास सबकुछ होता है, तब आप सीख नहीं सकते। टाइमिंग, किस्मत अगर सबकुछ सही से चलता रहता है, तो ज़्यादा कुछ सीखने को नहीं मिलता। ये जर्नी बहुत इंट्रेस्टिंग थी। अभी तक की इस जर्नी में एक कम्पलीट प्लेट की तरह 56 भोग के सारे टेस्ट हैं।
एक्टिंग की तरफ जाने का रुझान कैसे आया?
ये बचपन से कहीं न कहीं था। जब मैं छोटा था स्कूल में, तो फिल्म्स बहुत रिझाती थी। पिक्चर देखता रहता था।
किस तरह की फ़िल्में देखना आपको पसंद है? हॉलीवुड या गोविंदा टाइप?
...हॉलीवुड तो बिलकुल नहीं था लाइफ में। एक या दो फ़िल्में जो हिट होती, वही देखता था। टाइटैनिक टाइप। क्योंकि, आमतौर पर लखनऊ में उतना चलन नहीं था। दूसरा, घरवाले ले जाते भी नहीं थे, इंग्लिश पिक्चरें दिखाने। बहुत कम लोगों के ही फ़ैमिली वाले लेकर जाते थे। मेरे घर में फिल्म्स देखने का माहौल नहीं था। मेरे पापा को फ़िल्में देखना का शौक नहीं था, वो सो जाते थे सिनेमाहॉल में।
शाहरुख़ खान की फ़िल्में बहुत एन्जॉय करता था, और गोविंदा की 90s की फ़िल्में बहुत एन्जॉय करता था।
कॉमेडी और एक्शन की फिल्मों वाला जॉनर काफी अच्छा लगता था। तो कहीं न कहीं, दिमाग में ऐसा लगता था कि यार ये सही काम है। बहुत ज़्यादा अच्छा लगता था, और दूसरा ... जैसे हर लड़के को होता है कि या तो आर्मी में जाऊँगा, या हीरों बनूँगा या क्रिकेटर, तो आप तीनों ही चीजों को साथ लेकर चल रहे होते हैं, लेकिन कोई चीज ऐसी नहीं होती, जिसे आप प्रैक्टिकल तरीके से सोच रहे होते हैं।
लेकिन, 12वीं के बाद मुझे ये महसूस हो गया था कि मैं एकैडमिक्स के लिए नहीं बना हूँ। मतलब, जो मेरा एप्टीट्यूड है, टेम्परामेंट है... वो एकैडमिक्स ओरिएंटेड नहीं है। मुझे स्कूल में एक ऐसा मौका मिला, जिसमें लोगों ने मेरे लिए तालियां बजाई। तभी, मैं समझ गया कि अगर मुझे मज़ा आ रहा है, तो इनको भी आ रहा होगा। उसके बाद ही ऊपर वाले ने कुछ मौके दिए, और कुछ मेरी ज़िद थी... कि मुझे यही करना है।
किस एक्टर को आप अपना आइडल मानते हैं? किससे आपको इंस्पिरेशन मिलती है?
मैं बहुत सारे एक्टर्स से इंस्पायर होता हूँ, और मैंने ये देखा है कि मैं उन एक्टर्स से इंस्पायर ज़्यादा होता हूँ, जो एक शख़्सियत के रुप में काफी चीजें देते हैं। बचपन से तो शाहरुख खान थे, वो तो हैं ही...एक इंस्पिरेशन। मैंने पढ़ाई भी मास कम्युनिकेशन की कर रखी थी।
तो तबसे सिनेमा भी देखने लगा। उसके बाद ऐसा हुआ कि आइडल्स बहुत सारे बन गए। तो उसमें से कुछ हॉलीवुड के हैं, टॉम हार्डी मुझे बहुत पसंद हैं। अभी के एक्टर्स में नाना पाटेकर; जिनके साथ मुझे भाग्यवश काम करने कभी मौका मिला।
वो बहुत पसंद हैं। बहुत सारे एक्टर्स से समय- समय पर कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। वे एक-एक पल में पूरी-पूरी दुनिया दिखा देते हैं। वो भले मेरे साथ के ही क्यों न हों...
फ़िल्म में आपके साथ पंकज त्रिपाठी भी थे, उनसे क्या सीखने को मिला?
हमारा जो शेड्यूल था वो फ़िल्म के कुछ दिन बाद का था। पंकज सर लीड रोल में थे, तो वो शुरुआत से ही शूटिंग कर रहे थे. तो, पंकज सर का जिस दिन पैकअप था उसके दूसरे दिन से हमारा शूट था. हम लोग रात में होटल में मिले, डिनर के वक़्त। हमारी डायरेक्टर शगुन शर्मा ने हमें इंट्रोड्यूस कराया पंकज सर से.... कि ये पायलट्स हैं। उन्होंने हमें देखा, और देखने के बाद बोला- "सच्ची के पायलट हैं क्या ये, सही में ले आए हो क्या? ये तो सच्ची के पायलट लग रहे हैं।" ये कॉन्फिडेंस को बूस्ट करने जैसा था। क्योंकि, दूसरे दिन हमें पहला शॉट देना था। तो उनको सुनकर ऐसा लगा, कि हमारा आधा काम हो गया।
लखनऊ से कैसा रिश्ता रहा है? ज़िन्दगी में क्या महत्व है?
लखनऊ ही है... जो मेरी पहली टीचर है। असल में बोलूँ तो शहर सिखाता है आपको। आप जिस आबो-हवा में पलते हैं, जहाँ आपकी आँख खुलती है, वो आपको बहुत सिखाता है, आपका शहर ही आपको सबकुछ सिखाता है। लखनऊ ने मुझे बहुत कुछ दिया है। भाषा के टर्म में मुझे बहुत कुछ दिया है। मुझे उस वक़्त तक नहीं एहसास था, जब तक मैं लखनऊ में था। लेकिन, जब मैं लखनऊ के बाहर (मुंबई) निकला हूँ... मुंबई पहुंचा हूँ... तब मैंने देखा, यार यहाँ तो मैं साफ़ बोलता हूँ नैचुरली... जिस चीज के लिए लोग ट्रेनिंग करते हैं, अलग से मेहनत करते हैं, टीचर हायर करते हैं, वो मेरा लखनऊ की वजह से नैचुरल था।
आपको किस तरह की फ़िल्में करना पसंद है? किस तरह का किरदार आप निभाना चाहते हैं?
मुझे फोर्सेस वाली फ़िल्में ज़्यादा पसंद हैं। कोई रियल लाइफ कारगिल वॉर हीरो, या कोई ऐसा...रियल लाइफ स्टोरी। जिसमें कोई सेंट्रल कैरेक्टर हो, उसे मैं निभाना चाहता हूँ। क्योंकि मेरे स्कूल से ही पढ़े हुए थे, कारगिल वॉर के शहीद कैप्टन नवनीत राय और कैप्टन मनोज पांडेय। उसके अलावा मैं क्राइम बेस्ड फ़िल्में करना चाहता हूँ। गैंगस्टर का रोल मुझे बहुत आकर्षित करता है। मैं वो चीज चाहता हूँ, जो मैंने भी न सोचा हो। मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ, जो मुझे एक इंसान के तौर पर और एक एक्टर के तौर पर कुछ सिखा जाए।
आपकी ज़िन्दगी में आपके पिता का क्या रोल है?
बहुत ज़्यादा महत्व है। मैं शायद अपने पापा को सही तरह से नहीं समझता था, जब तक मैं लखनऊ में था या जब तक मैं ग्रेजुएशन में नहीं पहुंचा था। मुझे लगता था कि मेरे पापा कम बोलते हैं, तो मुझे लगता था कि वो ज़्यादा स्ट्रिक्ट हैं। मेरे एक्टिंग के सपने को नहीं समझेंगे। जो कि बिलकुल सत्य नहीं था। क्योंकि, इस जर्नी में सबसे ज़्यादा सपोर्ट करने वाले मेरे पिता ही हैं।
बिना कहे वो सारी इच्छाएं जान जाते हैं और उसे पूरा कर देते हैं। वो कहते हैं कि ''कहीं भी रहो, बिल्कुल दिमाग पॉजिटिव रखो, अच्छी आदतें रखो, बाकी काम के लिए परेशान न हो, काम मिलेगा।'' ये एक बहुत बड़ी बात होती है अपने लड़के से कहना।
जिसने साइंस साइड होकर भी इंजीनियरिंग नहीं करी। इसको लेकर उन्होंने कभी कोई निराशा नहीं दिखाई। सबसे बड़ी बात होती है जब कोई पिता कहता है अपने लड़के को, कि जाओ, तुम बॉम्बे जाओ... अपना ड्रीम आगे बढ़ाओ। उन्होंने मुझे जितनी आज़ादी दी, जितना मॉडर्न ख़्यालात दिखाए, उससे मैं सरप्राइज था। ऐसे ही फादर हों सबके। तो मैं अपने फादर और मदर( माता और पिता) दोनों को इसका श्रेय देता हूँ।
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