कभी किया था रसोइया से माली तक का सफर तय, इस गीतकार को दिखा था विनोद खन्ना में 'हीरो'

Update:2017-04-27 13:36 IST

विनोद कपूर

लखनऊ: कोई होता अपना, जिसे हम अपना कह लेते, लेकिन अपनी तो मौत ही हो सकी । जी हां, बात हो रही विनोद खन्ना की जो 70 साल की उम्र में 27 अप्रैल को इस दुनिया को छोड़ गए। अपनी मेहनत से फिल्म हो या राजनीति सभी में उन्होंने लंबी छलांग लगाई।

वो जब विलेन से हीरो बने। तो 70 के दशक में उनका एक इंटरव्यू आया था, जिसमें उनसे यही सवाल पूछे गए थे। विनोद खन्ना ने कहा था कि वो मिट्टी या कागज के बने नहीं हैं। जो तेज धार में बह जाएं या पिघल जाएं। हां, उनकी शख्सियत ठोस चट्टान की थी और उन्होंने इसे साबित भी किया ।

उनकी पहली फिल्म थी 'मन का मीत', जिसे सुुनील दत्त ने अपने भाई सोम दत्त को फिल्मों में स्थापित करने के लिए बनाई थी। उस फिल्म में सभी कलाकार नए थे यानि सभी इंट्रोडयूस हो रहे थे। नायिका के तौर पर लीना चन्द्रावरकर थीं तो विलेन के तौर पर विनोद खन्ना थे। फिल्म नहीं चली, लेकिन विनोद खन्ना चल गए। साथ लीना चन्द्रावरकर भी चल गईं ।

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'मेरा गांव, मेरा देश' में धर्मेंद्र और 'कच्चे धागे' में कबीर बेदी के साथ डकैत के उनके किरदार अब तक लोग याद करते हैं। प्राण के बाद विनोद खन्ना ऐसे कलाकार थे, जो लगातार विलेन के बाद नायक बने और खूब पसंद किए गए।

मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म पूरब पश्चिम में छोटा सा रोल दिया, जिसमें उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। वो ऐसी फिल्म थी, जिसने विनोद खन्ना को विलेन के दलदल से निकाला। गुलजार ने उनमें अपना हीरो देखा। इसीलिए मेरे अपने और अचानक में उन्हें हीरो बना दिया।

मेरे अपने में वो एक बेरोजगार युवक थे, तो अचानक में ऐसे कुंठाग्रस्त फौजी जो अपनी वीबी की वेबफाई के बाद उसकी हत्या कर देता है। अपनी पत्नी को फौजी बहुत प्यार करता था, लेकिन जब उसके बेवफा होने का पता चलता है। तो उसकी हत्या में भी वो वही तरीका अख्तियार करता है। जो उसे फोज में ट्रेनिंग के दौरान सिखाया गया था ।

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बाद में मल्टी हीरो का दौर आया और विनोद खन्ना की जोड़ी अमिताभ के साथ खूब जमीं। प्रकाश मेहरा की फिल्मों हेराफरी, मुकद्दर का सिकंदर की सफलता को देख मनमोहन देसाई ने उन्हें अपनी फिल्म 'अमर अकबर एंथोनी' में भी इस जोड़ी को दोहराया।

विनोद खन्ना फिल्मों में अच्छा खासा नाम और पैसा कमा रहे थे, लेकिन उनका मन कहीं भटक रहा था । भटकते मन को सहारे की उम्मीद से वो पुणे में रजनीश के आश्रम में पहुंच गए थे। वहां वह रसोईया बने, तो बागीचे में माली का भी काम किया। ध्यान और योग को उन्होंने अपना जीवन मान लिया था, लेकिन वो वहां भी रम नहीं पाए और वापस फिल्मों में आ गए।

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