मेल कराती मधुशालाः कालजयी हरिवंश राय बच्चन, महान महाकाव्य

शराब पीने से नशा होता है? यह ग़लत है अमिताभ बच्चन ने अपनी एक फ़िल्म में ऐसा सोचने वालों को जवाब दिया है-नशा शराब में होता तो नाचती बोतल।ऊर्दू साहित्य, ऊर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा इसके बिना मुक्कमल नहीं होता।शाकी और शराब इसके फलक पर ज़रूर मिलेंगे।

Update:2020-11-27 11:13 IST
Kalajayi Harivansh Rai Bachchan's MADHUSHALA

आज हरिवंश राय बच्चन का जन्म दिन है। सुबह सुबह उनके सुयोग्य पुत्र अमिताभ बच्चन के ट्विटों पर नजर पड़ी पूज्य बाबूजी डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी की 113वीं जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि शत-शत नमन !! करते हुए उन्होंने बच्चन जी की दो लाइनें कोट की हैं-"मैं कलम और बंदूक़ चलता हूँ दोनों ; दुनिया में ऐसे बंदे कम पाए जाते हैं" " मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता ; शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा" !

कोटि कोटि शत-शत नमन



बॉलीवुड के महानायक ने एक और ट्वीट बच्चन जी को कोट करते हुए लिखा है "मैं महान काव्य लिखना चाहता हूँ, महाकाव्य नहीं !" पर उन्होंने महान काव्य ही नहीं लिखा आत्मकथा के रूप में "महाकाव्य" भी रचा है। गद्यात्मक महाकाव्य .... महाकाव्य में पर -चरित होता है, इसमें स्वचरित है। भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में बच्चन जी का स्थान सुरक्षित ~

वास्तव में मै बंदूक तो नहीं लेकिन कलम चलाता हूं। हालांकि कलम का स्थान पर कम्प्यूटर के की बोर्ड ने ले लिया है लेकिन अभी और प्रगति बाकी है जब कंप्यूटर विचार पढ़कर कंपोज भी कर दिया करेगा।



कोरोना काल और मधुशाला

वास्तव में मै अमिताभ बच्चन की "मैं महान काव्य लिखना चाहता हूँ, महाकाव्य नहीं !" इस बात से सहमत हूं कि बच्चनजी ने महान काव्य ही नहीं लिखा आत्मकथा के रूप में "महाकाव्य" भी रचा है।

इस अवसर मुझे इस कोरोना काल मेंं लॉकडाउन के दौरान की घटना का स्मरण होता है। लॉकडाउन के दौरान भी हम पत्रकारों को ऑफिस आना जाना पड़ता रहा। मीडिया में काम करने की वजह से ऑफिस जाने की मजबूरी है।

पर कोरोना के संक्रमण से बचने के लिए बाक़ी की जो भी हिदायतें रहीं या हैं। सब का सौ फ़ीसदी पालन कर रहा हूँ। ऑफिस से घर, घर से ऑफिस के अलावा कुछ नहीं किया। कहीं नहीं गया। अभी भी इसका पालन कर कर रहा हूं।

ऑफिस में भी 10-12 साथी ही आ रहे हैं। बाक़ी पूरा स्टाफ़ वर्क फ्रॉम होम है। लेकिन पिछले दिनों जब देश भर के ऑन लाइन मीडिया, सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सब पर कोरोना की खबरों की जगह शराब की दुकानों के खुलने, उस पर लगी लंबी लंबी लाइनों और शराब ख़रीदने के लिए महिलाओं की लाइनों की खबरों ने ले ली, तब लगा कि एक बार अपने शहर लखनऊ को भी देखा जाए।

सरकार अगर शराब खोलने और लाकडाउन जारी रखने सरीखे विरोधाभासी फ़ैसले एक साथ ले सकती है तो हम ही क्यों लॉकडाउन के दौरान अपने शहर का मंजर देखने से खुद को अलग रखें।

सारी ज़िम्मेदारी हमारी ही कैसे है?

मेरे पास चूंकि पास था। मैं एक मंगलवार को शहर के कुछ इलाक़ों में निकला। हालाँकि हमारे पास के मुताबिक़ रिपोर्टिंग के लिए शहर के कुछ सील किये इलाक़ों को छोड़ मैं कहीं भी आ जा सकता था। पर अब तक़रीबन ३० साल की पत्रकारिता के बाद रिपोर्टिंग के काम से निजात मिल गयी है।

अब हमारे सहयोगी साथियों के ज़िम्मे यह काम है। लेकिन जब शहर देख कर लौटा तो सोचा एक रिपोर्ट लिखूँ। वह तो मेरे न्यूज़ ट्रैक पोर्टल पर काम आयेगी लेकिन बाक़ी सब आप सभी सोशल मीडिया के मित्रों के लिए है।

कुछ ऐसा दिखा शहर

हमारे रिपोर्टर्स बता रहे थे कि लॉकडाउन टूट गया। पहली बार लगा कि शराब इतने काम की चीज़ है। ख़ैर, जब मैं शहर में कई जगहों से गुजरा तो कुछ ऐसा लगा जैसे दो तीन दिन की छुट्टी एक साथ हो गई हो। सड़कें ख़ाली थीं। सूनी नहीं। गाड़ियाँ हर तरह की सड़क पर नज़र आ रही थीं। दुकानें भी बहुत सारी खुली थीं। ज़रूरत के सामान ख़रीदने वाले निराश नहीं जा रहे थे। पुलिस मौजूद तो हर जगह थी, पर कहीं रोक टोक नहीं रही थी। काम के काम पूरे हो जाने की सारी सुविधाएँ हर जगह मौजूद रहीं।

मधुशालाएं खुलने के रुझान

शराब की दुकानों को खोले जाने के बाद के रूझान दिखायी पड़ने लगे हैं। कोई बेवडा मस्ती में झूमता एक नई दुनिया में रहते हुए कार के सामने पहाड़ की तरह अड़ जाने को तैयार मिलता है। बचना है तो खुद गाड़ी पीछे करें, बग़ल से निकलें। वह तो दो-चार, दस-बीस घूँट अंदर करने के बाद पहाड़ हो गया। पहाड़ा पढ़ने लगा।

सोशल मीडिया पर इन लोगों के स्वागत, प्रशंसा में बहुत कुछ पढ़ा था। मुझे भी पता चला कि शराब इतनी महत्वपूर्ण चीज़ है। शराब पीने वाले अपने साथियों के प्रति मेरी धारणा एकदम बदल गई। वे श्रद्धा के पात्र हो गये।

मुझे पछतावा होता रहेगा

मुझे अभी तक और न जाने कब तक कुछ बातों का पछतावा होता रहेगा। मसलन, इस बात का कि अपने शराब पीने वाले दोस्तों को मैं इतनी हिक़ारत की नज़र से क्यों देखता था? जब सरकार इनको इतनी तवज्जो देती है तो मैं आख़िर क्यों यह गलती करता रहा?

आज मैं अपने उन सभी दोस्तों से माफ़ी चाहूँगा, जिनको शराब पीने के कारण अलग कोटि में मैंने रखा। मैं सोशल मीडिया पर पसरे वीडियो और टेक्स्ट देख रहा हूँ। ५८ फ़ीसदी शराब से जुड़े वीडियो और लाइनें हैं। हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला प्रासंगिक ही नहीं, बेहद प्रिय हो उठी है।

चढ़ी न प्रतिमा पर माला

बैठा अपने भवन मुअज्जिन

देकर मस्जिद में ताला

लुटे खजाने नरपति ओं के

गिरी गढ़ों की दीवारें

रहे मुबारक पीने वाले

खुली रही यह मधुशाला।

मधुशाला में बच्चन जी ने तो यहाँ तक लिखा है कि बैर कराते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला ।

40 दिन शराब न पीकर जनता ने बता दिया कि वो बिना शराब के जिंदा रह सकती है।

ठेके खोल कर सरकार ने बताया कि शराब के बिना सरकार मर जाएगी। छत्तीसगढ़ और पंजाब में तो होम डिलीवरी करके सरकार ने कितना नाम कमाया । अरविंद केजरीवाल ने शराब के मूल्य में 70 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी करके भी जनता का विश्वास नहीं खोया है। नशा छुड़ाने वाले केंद्रों पर काम करने वाले डॉक्टरों का कहना है कि45 दिन अगर कोई नशा न करें तो उसकी लत और तलब ख़त्म हो जाती है।

इसी तरह यदि 45 दिन तक लगातार कर लें तो उसका आदी हो जाता है। सरकार के पास एडवाइज़र अच्छे है, बंदी के 45 दिन नहीं होने दिये। 41 दिन पर खोल दिया। खोला भी तो रेट जो ले सको इसकी छूट दे दी। जनता भी ग़ज़ब है , आलू , प्याज़, टमाटर , गैस के दाम थोड़े से बढ़ा दो तो सरकार को कोसने लगती है। दाम बढोत्तरी पर सरकारें आती और चली जातीं हैं। अर्थशास्त्र के किसी बड़े से बड़े विद्वान के लिए शराब के मूल्य निर्धारण में माँग और आपूर्ति के फ़ार्मूला के काम न आने का समीकरण समझ से बाहर हो सकता है।

अतृप्त विद्वान की सलाह

जब लॉकडाउन के दौर में शराब नहीं मिल रही थी तो कहीं से दो चार बूँद अंदर करने के बाद एक अतृप्त विद्वान ने सरकार को सलाह देते हुए अपना एक वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर डाला था । जिसमें सरकार को राय दी थी कि यदि कोरोना से निपटने और अर्थव्यवस्था की मंद हो रही गति को आगे बढ़ाने के लिए पैसों की ज़रूरत हो तो पूरे भारत में शराब की दुकानें खुलवा दें और शराब के रेट जितना चाहे बढ़ा दें।

आज जब शराब की दुकानें खुल गई है। कई राज्य मनचाहा दाम ले रहे हैं तब लगता है कि सरकार ने उसकी सुन ली। शराब पीने वाले अब पी कर ग़ज़ब ग़ज़ब आइडिया दे रहे हैं।

कहा जा रहा है-वैज्ञानिकों ने दूध का पाउडर बना दिया। सूप का पाउडर बना दिया। काफी का पाउडर बना दिया, मेहंदी का पाउडर बना दिया। रसना का पाउडर बना दिया। मगर दारु का पाउडर अभी तक नहीं बनाया ? ज़रूर कल से इस पर काम शुरू हो जायेगा। क्योंकि सचमुच आइडिया है एकदम हिट।

ये इकोनॉमी वारिसर्स हैं। इकोनॉमी कर्मवीर हैं।

शराब की दुकानों के आगे लगी लाइनें, जो नोटबन्दी की यादें भी ताजा कर रही हैं, में सोशल डिस्टेंसिंग का बहुत ठीक से पालन हुआ। यही अनुशासन इन खरीदारों को दूसरी किसी भी चीज़ को बाज़ार से ख़रीदने वालों से अलग करती है।

सरकार की निर्भरता, शराब के लिए तलब, ख़रीदारी में अनुशासन यह सब देख कर हम इस फ़ैसले पर पहुँचे हैं कि शराब पीने वालों को किसी ने शराबी, नशेडी या बेवडा कहा तो ठीक नहीं।

ये इकोनॉमीै वारिसर्स हैं। इकोनॉमी कर्मवीर हैं। इनका स्वागत और अभिनंदन किया जाना चाहिए । होना तो यह चाहिए कि जब कोई शराब लेने निकले तो उसका उत्साहवर्धन करें । क्योंकि वह देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने जा रहा है।

शराब पिए हुए आदमी के कदम लड़खड़ाते क्यों हैं

मेरे ज़िंदगी की एक अबूझ पहेली भी इसी के साथ हल हो गई। वह यह कि शराब पीये हुए आदमी के कदम क्यों लड़खड़ाते हैं? हम समझते कि नशे की वजह से। पर अब साफ़ हो गया कि शराब पीने वाले के कंधे पर अर्थव्यवस्था का भार होता है।

वह भी ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें १३० करोड़ लोगों के खर्चें का ज़िम्मा हो। ये सब के सब लोग तलब लगी जमात के लोग हैं। तलब लगी और तबलिगी में अंतर पर ज़रूर गौर रखियेगा। दोनों में बहुत अंतर है।

नई आइडिया लाँच

इस जमात ने एक और नई आइडिया लाँच की है। बेहद क्रियेटिव है यह आइडिया भी। इसके मुताबिक़ डाक्टर कहते हैं कि ६० फ़ीसदी से ज़्यादा स्ट्रैंथ वाले अल्कोहल में कोरोना मर जाता है। पर शराब के कई ब्रांड में ६० फ़ीसदी से काफ़ी कम है अल्कोहल की स्ट्रैंथ ।

मसलन, व्हिस्की में ४० फ़ीसदी स्ट्रैंथ से कम अल्कोहल है। ऐसे में मेरे हम प्याला मित्रों का तर्क है कि चलो कोरोना मरेगा नहीं तो घायल तो हो ही जायेगा। बात भी सही है। आत्म विस्मृति का सबसे बेजोड़ पेय है। इसको गटकने के बाद हमारे लिए एक नई दुनिया होती है। हमारे सामने एक नई दुनिया होती है।

महिला दारू ख़रीद नहीं सकती? पी नहीं सकती?

दुनिया में एक बड़ी जमात का काम महज़ आलोचना करना है। वह हर बात की, हर काम की महज़ आलोचन करते हैं। आलोचना की भी आलोचना करते हैं।उनको शराब की दुकानों को खोलने के सरकारी फ़ैसले में खोट नज़र आ रहा है।

वे यह भूल रहे हैं कि सरकार वेलफ़ेयर स्टेट भी है। हर आदमी के वोट का लोकतंत्र में एक ही महत्व है। यानी हर आदमी बराबर एक-एक वोट। यहाँ गुणतंत्र नहीं लोकतंत्र है। इन लोगों की आलोचना के केंद्र में महिलाओं और लड़कियों का लाइन लगाकर शराब ख़रीदना भी है। पर ये नहीं जानते कि यह महिला सशक्तिकरण है। पुरूष दारू पी कर महिला को पीट सकता है। महिला दारू ख़रीद नहीं सकती? पी नहीं सकती? किसी ने क्या खूब कहा है

एक बाेतल शराब के लिए,कतार मे जिंदगी लेकर खडा हाे गया

माैत का डर ताे वहम था, आज नशा जिंदगी से बडा हाे गया

शराब पीने से नशा होता है, यह ग़लत है अमिताभ बच्चन ने अपनी एक फ़िल्म में ऐसा सोचने वालों को जवाब दिया है-नशा शराब में होता तो नाचती बोतल। उर्दू साहित्य, उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा इसके बिना मुक्कमल नहीं होता। साकी और शराब इसके फलक पर ज़रूर मिलेंगे।

योगेश मिश्र

(लेखक न्यूजट्रैक/अपना भारत के संपादक हैं, ये उनके विचार हैं)

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