Mrs Chatterjee Vs Norway Review: रानी मुखर्जी की फिल्म पर कैसा रहा क्रिटिक्स का रिएक्शन

Mrs Chatterjee Vs Norway Review: एक्ट्रेस रानी मुखर्जी की फिल्म 'मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे' सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। आइए जानते हैं क्रिटिक्स ने इस फिल्म पर क्या प्रतिक्रिया दी है।

Update:2023-03-17 19:31 IST
Rani Mukherji (Image Credit: Instagram)

Mrs Chatterjee Vs Norway Review: इस बात में तो कोई शक नहीं है कि बॉलीवुड में सच्ची घटानाओं पर आधारित फिल्म का इम्पैक्ट हमेशा गहरा रहा है और अगर फिल्म में रानी मुखर्जी जैसी एक्ट्रेस हों, तो फिल्म का हिट होना तो तय है। ऐसा ही कुछ आशिमा छिब्बर द्वारा निर्देशित फिल्म 'मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे' के साथ भी हुआ है। इस फिल्म की तारीफ हर कोई कर रहा है और करें भी क्यों ना, इस फिल्म में रानी मुखर्जी ने जो एक्टिंग की है, वो वाकई हैरान करने वाली है। तो आइए जानते हैं इस फिल्म पर क्रिटिक्स का क्या रिएक्शन है...

क्या है फिल्म की कहानी?

यह फिल्म सागरिका चक्रवर्ती की जिंदगी की सच्ची घटना पर आधारित कहानी है, जो साल 2011 में अपने पति और बच्चों के साथ नॉर्वे शिफ्ट हुई थीं। नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज ने इस भारतीय दंपति के दोनों बच्चों अभिज्ञान और ऐश्वर्या को अपनी कस्टडी में ले लिया था। उन्होंने फैसला सुनाया कि दोनों बच्चे 18 साल की उम्र तक फोस्टर केयर में रहेंगे, क्योंकि उनकी मां नॉर्वे के नियम -कानूनों के हिसाब से बच्चों की परवरिश में असमर्थ है। इसके बाद सागरिका को बच्चों की कस्टडी के लिए पूरे तीन साल तक नॉर्वे और भारत सरकार की अदालतों के चक्कर लगाने पड़े थे। तब जाकर उसे अपने बच्चे वापस मिले थे।

सागरिका की भूमिका में देबिका (रानी मुखर्जी) है, जो एक हाउसवाइफ हैं और अपने दो बच्चों शुभ, सुचि और पति के साथ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के साथ जूझ रही हैं, लेकिन उनकी जिंदगी में तूफान तब आता है, जब उन्हें बताए बगैर नॉर्वे सरकार की चाइल्ड वेलफेयर सोसायटी के लोग उसके दोनों बच्चों को उठाकर ले जाते हैं। वेलफेयर सोसायटी का तर्क है कि देबिका अपने बच्चों के पालन-पोषण में असमर्थ है और वह मानसिक रूप से अस्थिर है, इसलिए 18 साल तक वह बच्चों के साइरक्शन से वंचित रहेगी।

कुछ समय फॉस्टर होम में रखने के बाद उनके बच्चों को वहां की सरकार विदेशी दंपती को गोद दे देती है। मगर जिस पल देबिका के बच्चों को घर से उठाया गया था, उस पल से ही वह बच्चों की कस्टडी पाने के लिए जी जान से जुट जाती है। उसे अपनी इस लड़ाई में पति अनिरुद्ध (अनिर्बान भट्टाचार्य) का साथ नहीं मिलता। कैसे देबिका पहले एक बेबस और हाइपर मां की तरह अपने ही बच्चों को अगुवा करती है? कैसे वो अपने दोनों देशों की सरकारों और अपने पति तथा ससुराल वालों से एक लंबी और थकाऊ लड़ाई लड़ती है, इन्हीं बिंदुओं पर कहानी आगे बढ़ती है।

कैसी है ये फिल्म?

फिल्म में एक मां की ममता को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। फिल्म में जैसे रानी मुखर्जी कार के पीछे भागती हैं, उनका घिसटना और गिर जाना कहानी को बेहद इमोशनल बनाती है और यही दर्शकों के दिल को छू रही है। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे एक मां अपने बच्चों को वापिस पाने के लिए अपने घरवालों और दुनिया से लड़ जाती हैं। हालांकि, फिल्म में कुछ ऐसे किरदार भी होते हैं, जो टोटल ब्लैक और वाइट नजर आते हैं, जो अटपटे लगते हैं। इन किरदारों के दुसरे डाइमेंशन्स पर भी काम होना चाहिए था, मगर इसके बावजूद प्री क्लाइमेक्स और क्लाइमेक्स आपको जहां बुरी तरह से बेचैन करता है, वहीं राहत की सांस भी देता है। हालांकि, कहानी में कुछ सवाल बिना जवाब दिए ही आगे बढ़ जाते हैं।

फिल्म में शानदार रही रानी मुखर्जी की एक्टिंग

एक्टिंग की बात करें, तो रानी ने वाकई शानदार परफॉर्मेंस दिया है। देबिका के चरित्र को वे अपने अंदाज में गूंथती नजर आई और फिर अपने ही अंदाज में जीती हैं। एक हायपर, बेबस और लड़ैत मां के रूप में रानी की परफॉर्मेंस कई जगहों पर रुलाने वाली है।

क्यों देखनी चाहिए ये फिल्म?

फिल्म का फर्स्ट हाफ भावुक करने वाला है, तो सेकंड हाफ में कहानी थोड़ी तेज हो जाती है। रानी मुखर्जी की दमदार एक्टिंग के साथ एक भारतीय मां ने किस तरह से अपनी लड़ाई लड़ी, कैसे एक बड़े देश के सामने बिना घुटने टेके अपने बच्चों की कस्टडी हासिल की, ऐसीप्रेरणादायी कहानी के लिए ये आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

क्यों नहीं देखनी चाहिए ये फिल्म?

यह फिल्म बेहद इमोशनल जो एक पक्ष की तरफ से कहानी पेश कर रहा है। अगर आपको इमोशनल फिल्में नहीं पसंद हैं, तो आप ये फिल्म देखना स्किप कर सकते हैं।

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