जन्मदिन स्पेशल: राजनीति के धूमकेतु अटल बिहारी बाजपेयी हो गए 93 साल के

Update: 2017-12-25 02:17 GMT
अब इस सूची से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी का कट सकता है नाम !

जयपुर: भारतीय जनता पार्टी को शिखर तक पहुंचाने वाले भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी सोमवार (25 दिसंबर) को 93 साल के हो गए हैं।राजनीति में धूमकेतु की तरह चमकने वाले अटल बिहारी बाजपेयी जी साल1996 में पहली बार केवल 13 दिन के लिये प्रधानमंंत्री बने थे। 1999 में अटल जी की सरकार मात्र 1 वोट से सरकार गिर गई थी लेकिन इस दुखद स्थिति में भी अटल जी कभी स्वयं विचलित हुए और न पार्टी के सदस्यों को हार के कारण से दुखी होने दिया। उन क्षणों में अटल जी उदास अवश्य थे पर हताश नहीं। यह तभी संभव है जब व्यक्ति में आत्मबल हो और अपने आप पर पूर्ण विश्वास हो।

पहली बार भारत के आम जनमानस ने इस दर्द को महसूस किया एक रिक्शा या हाथ ठेला चलाने वाला व्यक्ति भी अटल जी जैसे योग्य व्यक्ति की सरकार इस तरह गिरना पसंद नहीं कर रहा था। पर अटल जी ने कहा ‘अपने अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिये मैंने कोई गलत काम नहीं किया, सदस्यों की खरीद फरोख्त का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। सत्ता की चादर को मैंने 13 दिन बाद बेदाग रख दिया।’ इसके लिये विरोधी नेताओं ने भी सदन में अटल जी की प्रशंसा की। सरकार गिरी किन्तु अटल जी ने हार नहीं मानी।

यूपी के मूल निवासी पर एमपी में हुआ जन्म

अटल बिहारी बाजपेयी का जन्म मध्यप्रदेश के ग्वालियर में 25 दिसम्बर 1924 को हुआ था। उनके पिता कृष्ण बिहारी बाजपेयी शिक्षक थे। उनकी माता कृष्णा जी थीं। वैसे मूलत: उनका संबंध उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के बटेश्वर गांव से है लेकिन, पिता जी मध्यप्रदेश में शिक्षक थे। इसलिए उनका जन्म वहीं हुआ। लेकिन, उत्तर प्रदेश से उनका राजनीतिक लगाव सबसे अधिक रहा. प्रदेश की राजधानी लखनऊ से वे सांसद रहे थे। कविताओं को लेकर उन्होंने कहा था कि मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय संकल्प है. वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है। उनकी कविताओं का संकलन 'मेरी इक्यावन कविताएं' खूब चर्चित रहा जिसमें..हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा..खास चर्चा में रही।

पक्ष के साथ विपक्ष भी उनका कायल

राजनीतिक इतिहास में अटल बिहारी बाजपेयी का संपूर्ण व्यक्तित्व शिखर पुरुष के रूप में दर्ज है उनकी पहचान एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भाषाविद, कवि, पत्रकार व लेखक के रूप में । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा में पले-बढ़े अटल राजनीति में उदारवाद और समता एवं समानता के समर्थक माने जाते हैं । उन्होंने राजनीति को दलगत और स्वार्थ की वैचारिकता से अलग हट कर अपनाया और उसको जिया । जीवन में आने वाली हर विषम परिस्थितियों और चुनौतियों को स्वीकार किया ।नीतिगत सिद्धांत और वैचारिकता का कभी कत्ल नहीं होने दिया ।राजनीतिक जीवन के उतार-चढ़ाव में उन्होंने आलोचनाओं के बाद भी अपने को संयमित रखा ।राजनीति में धुर विरोधी भी उनकी विचारधारा और कार्यशैली के कायल रहे । पोखरण जैसा आणविक परीक्षण कर दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के साथ दूसरे मुल्कों को भारत की शक्ति का अहसास कराया । जनसंघ के संस्थापकों में से एक अटल बिहारी बाजपेयी के राजनीतिक मूल्यों की पहचान बाद में हुई और उन्हें भाजपा सरकार में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

राजनीति में संख्या बल का आंकड़ा सर्वोपरि होने से 1996 में उनकी सरकार सिर्फ एक मत से गिर गई और उन्हें प्रधानमंत्री का पद त्यागना पड़ा। यह सरकार सिर्फ तेरह दिन तक रही। बाद में उन्होंने प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई. इसके बाद हुए चुनाव में वे दोबारा प्रधानमंत्री बने। राजनीतिक सेवा का व्रत लेने के कारण वे आजीवन कुंवारे रहे। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय लिया था। अटल बिहारी बाजपेयी ने अपनी राजनीतिक कुशलता से भाजपा को देश में शीर्ष राजनीतिक सम्मान दिलाया। दो दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों को मिलाकर उन्होंने राजग बनाया जिसकी सरकार में 80 से अधिक मंत्री थे, जिसे जम्बो मंत्रीमंडल भी कहा गया. इस सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।

कवि बनना था बन गए राजनीतिज्ञ

वे एक कवि के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। लेकिन, शुरुआत पत्रकारिता से हुई। पत्रकारिता ही उनके राजनैतिक जीवन की आधारशिला बनी। उन्होंने संघ के मुखपत्र पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और वीर अर्जुन जैसे अखबारों का संपादन किया. 1957 में देश की संसद में जनसंघ के सिर्फ चार सदस्य थे जिसमें एक अटल बिहारी बाजपेयी थी थे।

उन्होंने सबसे पहले 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। बाद में 1957 में गोंडा की बलरामपुर सीट से जनसंघ उम्मीदवार के रूप में जीत कर लोकसभा पहुंचे।उन्हें मथुरा और लखनऊ से भी लड़ाया गया लेकिन हार गए. अटल जी ने बीस सालों तक जनसंघ के संसदीय दल के नेता के रूप में काम किया।

इंदिरा गांधी के खिलाफ जब विपक्ष एक हुआ और बाद में जब देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो अटल को विदेशमंत्री बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता की छाप छोड़ी और विदेश नीति को बुलंदियों पर पहुंचाया. बाद में 1980 में जनता पार्टी से नाराज होकर पार्टी का दामन छोड़ दिया। इसके बाद बनी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में वह एक थे. उसी साल उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की कमान सौंपी गई। इसके बाद 1986 तक उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद संभाला। उन्होंने इंदिरा गांधी के कुछ कार्यों की तब सराहना की थी, जब संघ उनकी विचारधारा का विरोध कर रहा था।

विषम परिस्थिति में भी रहते थे अटल

कहा जाता है कि संसद में इंदिरा गांधी को दुर्गा की उपाधि उन्हीं की तरफ से दी गई। उन्होंने इंदिरा सरकार की तरफ से 1975 में लादे गए आपातकाल का विरोध किया. लेकिन, बंग्लादेश के निर्माण में इंदिरा गांधी की भूमिका को उन्होंने सराहा था। अटल हमेशा से समाज में समानता के पोषक रहे। विदेश नीति पर उनका नजरिया साफ था।वह आर्थिक उदारीकरण एवं विदेशी मदद के विरोधी नहीं रहे हैं लेकिन वह इमदाद देशहित के खिलाफ हो, ऐसी नीति को बढ़ावा देने के वह हिमायती नहीं रहे। उन्हें विदेश नीति पर देश की अस्मिता से कोई समझौता स्वीकार नहीं था।

अटल ने पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की तरफ से दिए गए नारे 'जय जवान-जय किसान' में अलग से जय विज्ञान भी जोड़ा। देश की सामरिक सुरक्षा पर उन्हें समझौता गवारा नहीं था. वैश्विक चुनौतियों के बाद भी राजस्थान के पोखरण में 1998 में परमाणु परीक्षण किया। इस परीक्षण के बाद अमेरिका समेत कई देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन उनकी दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति ने इन परिस्थितियों में भी उन्हें अटल स्तंभ के रूप में अडिग रखा। कारगिल युद्ध की भयावहता का भी डट कर मुकाबला किया और पाकिस्तान को धूल चटाई.

उन्होंने दक्षिण भारत के सालों पुराने कावेरी जल विवाद का हल निकालने का प्रयास किया। स्वर्णिम चतुर्भुज योजना से देश को राजमार्ग से जोड़ने के लिए कॉरिडोर बनाया। मुख्य मार्ग से गांवों को जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री सड़क योजना बेहतर विकास का विकल्प लेकर सामने आई। कोंकण रेल सेवा की आधारशिला उन्हीं के काल में रखी गई थी।

हिंदी को दिलाई पहचान

साल 1977 में मोरारजी देसाई सरकार में वाजपेयी को विदेश मंत्री बनाया गया। वह तब पहले गैर कांग्रेसी विदेश मंत्री बने थे। इससे दुनियाभर में हिंदी भाषा को पहचान दिलवाई। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंदी में भाषण देने वाले अटलजी पहले भारतीय राजनीतिज्ञ थे। हिन्दी को सम्मानित करने का काम विदेश की धरती पर अटलजी ने किया।

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