Atal Bihari Vajpayee Jayanti: मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, ग़ैरों को गले न लगा सकूँ

Atal Bihari Vajpayee Jayanti: बहुत कम लोगों को पता होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक सक्रियता की शुरुआत आर्य समाज की युवा शाखा ग्वालियर की आर्य कुमार सभा से हुई थी।

Written By :  Ramkrishna Vajpei
Update:2022-12-24 09:44 IST

Atal Bihari Vajpayee Jayanti (photo: social media ) 

Atal Bihari Vajpayee Jayanti: पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती की पूर्व संध्या है। उन का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को एक कवि और एक स्कूल मास्टर के पुत्र के रूप में कृष्णा देवी और कृष्ण बिहारी वाजपेयी के यहाँ हुआ था। उन्होंने डीएवी कॉलेज, कानपुर से राजनीति विज्ञान में परास्नातक पूरा किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में, अटल बिहारी वाजपेयी ने 18 वर्षीय के रूप में भाग लिया, और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 23 दिनों तक जेल में रखा गया।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक सक्रियता की शुरुआत आर्य समाज की युवा शाखा ग्वालियर की आर्य कुमार सभा से हुई थी। इसके बाद बाबासाहेब आप्टे से बहुत अधिक प्रभावित होकर, अटल बिहारी वाजपेयी 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) में एक स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुए। बाद में 1944 में, वे समाज के महासचिव बने और 1947 में अटल बिहारी वाजपेयी 'पूर्णकालिक प्रचारक' बन गए। एक संवेदनशील राजनेता, कवि और प्रखर वक्ता, वाजपेयी को उनकी व्यावहारिकता और चतुर राज्य कौशल के लिए विरोधियों द्वारा भी सराहा गया। जब वह देश के प्रधान मंत्री थे तब भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध जीता था, जो मई और जुलाई 1999 के बीच कश्मीर के कारगिल जिले में और नियंत्रण रेखा (LOC) पर हुआ था। वह 1996 से 2004 के बीच तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। खास बात उनका मातृभाषा के प्रति प्रेम था अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलकर एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर राष्ट्र भाषा को बढ़ावा दिया और संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलने वाले पहले व्यक्ति बने।

2000 के अंत में, उनका स्वास्थ्य बिगड़ना शुरू हो गया, वाजपेयी ने 2001 में घुटने की रिप्लेसमेंट सर्जरी करवाई और 2009 में एक स्ट्रोक का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी वाणी पर असर पड़ा। उनका व्यक्तित्व जुझारू था। वाजपेयी ने 12-दिन की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के प्रधान मंत्री के रूप में संसदीय विश्वास मत में लगभग निश्चित हार के चलते इस्तीफा दे दिया थी लेकिन उनका आत्मविश्वास नहीं डिगा था जो कि भारतीय इतिहास में सबसे कम समय तक चलने वाली सरकार थी। वास्तव में अटल जी जन नेता थे। उन्होंने भारत को परमाण शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बनाया और एक अपराजेय योद्धा रहे। लेकिन अगर उनका व्यक्तित्व समझना है तो उनके मन में उतरना होगा जो कि उनकी कविताओं में छिपा है। आज उनकी जयंती पर हम पेश कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएं

15 अगस्त की पुकार

पंद्रह अगस्त का दिन कहता:

आज़ादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाकी है,

रावी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर

आज़ादी भारत में आई,

वे अब तक हैं खानाबदोश

ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर

जो आँधी-पानी सहते हैं।

उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के

बारे में क्या कहते हैं॥

हिंदू के नाते उनका दु:ख

सुनते यदि तुम्हें लाज आती।

तो सीमा के उस पार चलो

सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता,

ईमान ख़रीदा जाता है।

इस्लाम सिसकियाँ भरता है,

डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को

हथियार पिन्हाए जाते हैं।

सूखे कंठों से जेहादी

नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर

मातम की है काली छाया।

पख्तूनों पर, गिलगित पर है

ग़मगीन गुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ

आज़ादी अभी अधूरी है।

कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?

थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को

पुन: अखंड बनाएँगे।

गिलगित से गारो पर्वत तक

आज़ादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से

कमर कसें बलिदान करें।

जो पाया उसमें खो न जाएँ,

जो खोया उसका ध्यान करें॥

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कदम मिलाकर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

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हरी हरी दूब पर

हरी हरी दूब पर

ओस की बूंदे

अभी थी,

अभी नहीं हैं|

ऐसी खुशियाँ

जो हमेशा हमारा साथ दें

कभी नहीं थी,

कहीं नहीं हैं|

क्काँयर की कोख से

फूटा बाल सूर्य,

जब पूरब की गोद में

पाँव फैलाने लगा,

तो मेरी बगीची का

पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,

मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ

या उसके ताप से भाप बनी,

ओस की बुँदों को ढूंढूँ?

सूर्य एक सत्य है

जिसे झुठलाया नहीं जा सकता

मगर ओस भी तो एक सच्चाई है

यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है

क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?

कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?

सूर्य तो फिर भी उगेगा,

धूप तो फिर भी खिलेगी,

लेकिन मेरी बगीची की

हरी-हरी दूब पर,

ओस की बूंद

हर मौसम में नहीं मिलेगी|

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कौरव कौन, कौन पांडव

कौरव कौन

कौन पांडव,

टेढ़ा सवाल है|

दोनों ओर शकुनि

का फैला

कूटजाल है|

धर्मराज ने छोड़ी नहीं

जुए की लत है|

हर पंचायत में

पांचाली

अपमानित है|

बिना कृष्ण के

आज

महाभारत होना है,

कोई राजा बने,

रंक को तो रोना है|

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दूध में दरार पड़ गई

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया।

बँट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।

बात बनाएँ, बिगड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।

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क्षमा याचना

क्षमा करो बापू! तुम हमको,

बचन भंग के हम अपराधी,

राजघाट को किया अपावन,

मंज़िल भूले, यात्रा आधी।

जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,

टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

चिताभस्म की चिंगारी से,

अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

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मनाली मत जइयो

मनाली मत जइयो, गोरी

राजा के राज में।

जइयो तो जइयो,

उड़िके मत जइयो,

अधर में लटकीहौ,

वायुदूत के जहाज़ में।

जइयो तो जइयो,

सन्देसा न पइयो,

टेलिफोन बिगड़े हैं,

मिर्धा महाराज में।

जइयो तो जइयो,

मशाल ले के जइयो,

बिजुरी भइ बैरिन

अंधेरिया रात में।

जइयो तो जइयो,

त्रिशूल बांध जइयो,

मिलेंगे ख़ालिस्तानी,

राजीव के राज में।

मनाली तो जइहो।

सुरग सुख पइहों।

दुख नीको लागे, मोहे

राजा के राज में।

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अंतरद्वंद्व

क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर?

शव का अर्चन,

शिव का वर्जन,

कहूँ विसंगति या रूपांतर?

वैभव दूना,

अंतर सूना,

कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर?

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जीवन की ढलने लगी सांझ

जीवन की ढलने लगी सांझ

उमर घट गई

डगर कट गई

जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ

शब्द हुए व्यर्थ

शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत

बिखरा संगीत

ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।

जीवन की ढलने लगी सांझ।

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मौत से ठन गई।

ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

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आओ फिर से दिया जलाएं

आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अँधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल

लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल

वर्त्तमान के मोहजाल में-

आने वाला कल न भुलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने-

नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

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क्या खोया, क्या पाया जग में

मिलते और बिछुड़ते मग में

मुझे किसी से नहीं शिकायत

यद्यपि छला गया पग-पग में

एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

जीवन एक अनन्त कहानी

पर तन की अपनी सीमाएँ

यद्यपि सौ शरदों की वाणी

इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

जन्म-मरण अविरत फेरा

जीवन बंजारों का डेरा

आज यहाँ, कल कहाँ कूच है

कौन जानता किधर सवेरा

अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!

अपने ही मन से कुछ बोलें!

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ऊंचाई

ऊँचे पहाड़ पर,

पेड़ नहीं लगते,

पौधे नहीं उगते,

न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,

जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,

मौत की तरह ठंडी होती है।

खेलती, खिलखिलाती नदी,

जिसका रूप धारण कर,

अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,

जिसका परस

पानी को पत्थर कर दे,

ऐसी ऊँचाई

जिसका दरस हीन भाव भर दे,

अभिनंदन की अधिकारी है,

आरोहियों के लिये आमंत्रण है,

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,

वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,

ना कोई थका-मांदा बटोही,

उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि

केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,

सबसे अलग-थलग,

परिवेश से पृथक,

अपनों से कटा-बँटा,

शून्य में अकेला खड़ा होना,

पहाड़ की महानता नहीं,

मजबूरी है।

ऊँचाई और गहराई में

आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,

उतना एकाकी होता है,

हर भार को स्वयं ढोता है,

चेहरे पर मुस्कानें चिपका,

मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि

ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिससे मनुष्य,

ठूँठ सा खड़ा न रहे,

औरों से घुले-मिले,

किसी को साथ ले,

किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,

यादों में डूब जाना,

स्वयं को भूल जाना,

अस्तित्व को अर्थ,

जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,

ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।

इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,

नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,

कि पाँव तले दूब ही न जमे,

कोई काँटा न चुभे,

कोई कली न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,

हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,

मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!

मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,

ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,

इतनी रुखाई कभी मत देना।

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